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पाकिस्तान की मांग को शेख मुजीबुर्रहमान ने भी सींचा, जिन्ना की पुकार पर कलकत्ता यूनिवर्सिटी में फहराया था मुस्लिम लीग का झंडा

कांग्रेस जब भारत की आजादी की लड़ाई के लिए अंग्रेजों से लड़ रही थी उस समय शेख मुजीबुर्रहमान अलग पाकिस्तान का झंडा बुलंद किए हुए थे. तत्कालीन अविभाजित बंगाल प्रांत में पैदा हुए शेख मुजीब के सामने हालात ऐसे बने कि स्कूल के दिनों में ही उनके दिमाग में मजहबी पहचान विकसित हो गया. फिर एक दिन उनकी मुलाकात मुस्लिम लीग के कट्टर नेता हुसैन सुहरावर्दी से हुई. इसके बाद उनकी जिंदगी सियासत की उस राह पर चली पड़ी जिसका लक्ष्य भारत का बंटवारा था.

बांग्लादेश बनने से पहले शेख मुजीबुर्रहमान पाकिस्तान के लिए संघर्ष कर रहे थे (फोटो- Getty image) बांग्लादेश बनने से पहले शेख मुजीबुर्रहमान पाकिस्तान के लिए संघर्ष कर रहे थे (फोटो- Getty image)
पन्ना लाल
  • नई दिल्ली,
  • 08 अगस्त 2024,
  • अपडेटेड 8:58 AM IST

पाकिस्तान की मांग पर आमदा मुहम्मद अली जिन्ना ने बंबई में 29 जुलाई 1946 को मुस्लिम लीग के नेताओं की बड़ी मीटिंग बुलाई थी. मुस्लिम लीग का 26 साल का एक फायर ब्रांड नेता इस मीटिंग में नहीं पहुंच पाया था. इसकी वजह उसने अपनी डायरी में खुद लिखी है. ये युवा नेता था 5 फीट 11 इंच लंबा, बड़े बालों वाला बंगाली मुसलमान शेख मुजीबुर्रहमान. 

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शेख मुजीबुर्रहमान ने लिखा है, "मैं पैसे की कुछ तंगी के कारण इस मीटिंग में नहीं जा सका. जिन्ना साहेब ने 16 अगस्त को डायरेक्ट एक्शन डे घोषित किया. उन्होंने एक बयान के ज़रिए इस दिन को शांतिपूर्वक मनाने की घोषणा की. वे ब्रिटिश सरकार और कैबिनेट मिशन को दिखाना चाहते थे कि 10 करोड़ भारतीय मुसलमान पाकिस्तान के लिए अडिग हैं. वे किसी भी बाधा को स्वीकार नहीं करेंगे."

शेख मुजीबुर्रहमान 29 जुलाई को तो चूक गए थे. लेकिन अगली बार 16 अगस्त 1946 को जब (Direct action) की बारी आई तो वे पीछे नहीं रहने वाले थे. शेख मुजीब समय से पहले ही कलकता की तय जगह पर पहुंच गये थे और उन्होंने वहां मुस्लिम लीग का झंडा फहराया. 

लेकिन अभी थोड़ा पीछे चलते हैं. शेख मुजीबुर्रहमान का बैकग्राउंड समझते हैं. 17 मार्च 1920 को ब्रिटिश भारत के बंगाल प्रांत के फरीदपुर जिले में जन्मे शेख मुजीबुर्रहमान एक जमींदार परिवार से थे. मुजीब जब सातवीं कक्षा में थे तो उन्हें आंखों की बीमारी ग्लूकोमा हो गई. इस वजह से 4 साल तक उनकी पढ़ाई रुक गई. अपने उम्र के मुकाबले काफी देर बाद उन्होंने  गोपालगंज मिशनरी स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की. 

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जब शेख मुजीबुर्रहमान ने समझा हिन्दू-मुस्लिम का भेद

1938 में इसी गोपालगंज में बंगाल के प्रधानमंत्री फजलुल हक और उनके श्रम मंत्री सैयद सुहरावर्दी का दौरा हुआ. बता दें कि उस समय बंगाल असेंबली में सीएम का पद प्रधानमंत्री के नाम से जाना जाता था.

इस दौरान एक खास बात हुई. शेख मुजीबुर्रहमान दूसरे मुस्लिम लड़कों के साथ मुख्यमंत्री के स्वागत की तैयारियां कर रहे थे. लेकिन मुजीबुर्रहमान को हैरानी तब हुई जब उन्होंने देखा कि हिन्दू लड़के इस आयोजन से दूर रहे. मुजीबुर्रहमान के अनुसार ऐसा कांग्रेस के निर्देश पर हो रहा था. शेख मुजीबुर्रहमान लिखते हैं, "इस खबर ने मुझे चौंका दिया क्योंकि हम तब हिंदुओं और मुसलमानों के साथ अलग व्यवहार नहीं करते थे. मैं हिंदू लड़कों के साथ बहुत दोस्ताना व्यवहार करता था. हम साथ खेलते, गाते और सड़कों पर घूमते थे."

शेख मुजीबुर्रहमान (फाइल फोटो)

याद रखें ये वो समय तो जब भारत की आजादी के आंदोलन में कांग्रेस और मुस्लिम लीग अलग-अलग राहें अख्तियार कर चुके थे. इस राह में साम्प्रदायिक विभाजन स्पष्ट दिख रहा था. इसी माहौल में युवा मुजीबुर्रहमान के मन में 'अलग पहचान' का बीज पनपने लगा. उस समय की घटनाओं ने इस बीज को लगातार खाद पानी दिया.

सुहरावर्दी सरपस्ती और शेख मुजीब का उभार

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तो गोपालगंज के इस स्कूल में स्वागत समारोह के बाद सुहरावर्दी ने युवा मुजीब का नाम और पता नोट किया और उनसे संपर्क में रहने के लिए कहा. इसके बाद इन दो शख्सियतों के बीच विचारधारा का ऐसा संबंध कायम हुआ जो सुहरावर्दी के इंतकाल तक कायम रहा. 

फिलवक्त युवा मुजीब कलकत्ता के इस्लामिया कॉलेज में आ गए और इंटरमीडिएट की पढ़ाई करने लगे.वे यहां बाकर हॉस्टल के कमरा नंबर 24 में रहा करते थे.

बतौर कॉलेज स्टूडेंट मुजीबुर्रहमान ने मुसलमानों के लिए एक अलग देश, पाकिस्तान के निर्माण के लिए चल रहे आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया. 

'हमें पाकिस्तान बनाना होगा, इसके बिना मुसलमानों का भविष्य नहीं'

 अपनी जीवनी 'Unfinished Memoirs' में वे लिखते हैं,"मुझे विश्वास था कि हमें पाकिस्तान बनाना होगा और इसके बिना दुनिया के हमारे हिस्से में मुसलमानों का कोई भविष्य नहीं है. मैंने जो एकमात्र अखबार पढ़ा वह आज़ाद था और मुझे लगा कि मैंने उसमें जो कुछ भी पढ़ा वह सच था. मैं अपनी परीक्षाओं के तुरंत बाद कलकत्ता चला गया. मैंने वहां भी बैठकों में भाग लेना शुरू कर दिया. मैं मदारीपुर भी गया और वहां एक मुस्लिम छात्र लीग की स्थापना की." बांग्लादेश के अग्रणी अखबार ढाका ट्रिब्यून में उनकी जीवनी का ये हिस्सा छपा है. 

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दो कौमी नजरिया (टू नेशन थ्योरी) से प्रभावित शेख मुजीब के लिए 23 मार्च 1940 बड़ा मौका साबित हुआ. ये वो दिन था जब मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान बनाने के लिए लाहौर प्रस्ताव पेश किया. इस प्रस्ताव के अनुसार ब्रिटिश भारत के उत्तर पश्चिम और पूर्व क्षेत्र में अलग देश बनाया जाएगा.  मुजीबुर्रहमान को लगता था कि ये पूर्वी क्षेत्र यानी कि पूर्वी पाकिस्तान निश्चित रूप से उनका अपना मुल्क होगा. लेकिन वे एक गलतफहमी का शिकार थे. मुस्लिम लीग के इस प्रस्ताव में मुसलमानों के लिए Muslim states बनाने का जिक्र था. यानी कि मुस्लिम लीग अविभाजित भारत को तोड़कर एक नहीं दो मुस्लिम राष्ट्र बनाना चाहती थी.ये दो देश थे पश्चिमी पाकिस्तान यानी कि मौजूदा पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान, मतलब आज का बांग्लादेश. 

लेकिन शेख मुजीब का ये भ्रम 1946 में तब टूटा जब उसी साल अप्रैल में दिल्ली में मुस्लिम लीग की बैठक हुई. इसमें शेख मुजीबुर्रहमान भी शामिल थे. इस बैठक में नया प्रस्ताव पास हुआ और मुसलमानों के वतन के लिए states के बजाय state बनाने का प्रस्ताव पास किया गया. यानी कि मुसलमानों के लिए अब एक ही वतन बनने वाला था. मुजीबुर्रहमान के लिए ये हैरान करने वाला था. वे तो पूर्वी बंगाल को एक स्वतंत्र देश के रूप में देखना चाहते थे. जहां उन्हें अपना मुस्तकबिल नजर आ रहा था. उन्होंने अपनी शिकायत मुस्लिम लीग के बड़े नेताओं के सामने रखी. मगर जिन्ना समेत लीग के घाघ नेताओं ने मुजीबुर्रहमान को समझा-बुझा कर मना लिया. फिलहाल मुजीबुर्रहमान पाकिस्तानी मकसद के लिए लीग के साथ डटे रहे.इस उद्देश्य में इस्लाम बॉन्डिंग फैक्टर के रुप में काम कर रहा था. 

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बंगाल में उनका आंदोलन जारी रहा. सुहरावर्दी की सरपरस्पती में मुजीबुर्रहमान कुछ ही सालों में बंगाल में मुस्लिम लीग के जाने पहचाने नेता बन गए. गौरतलब है कि उस समय लाहौर और कोलकाता, ढाका ही वो शहर थे जो मुस्लिम लीग की गतिविधियों का केंद्र थे. 

शेख मुजीबुर्रहमान और सुहरावर्दी अपनी कोशिशों से इलाके की मुस्लिम आबादी को पाकिस्तान की घुट्टी पिलाने में कामयाब रहे. इसका नतीजा ये रहा कि 1945-46 के चुनाव में मुस्लिम लीग को यहां बंपर जीत मिली और पार्टी 113 सीटें जीतने में कामयाब रही. लीग ने यहां अपने दम पर सरकार बनाई और सुहरावर्दी बंगाल के अगले प्रधानमंत्री बने. 

कलकत्ता में जुमे का दिन और डायरेक्ट एक्शन

इसके कुछ ही दिनों बाद जिन्ना ने सीधी कार्रवाई (Direct action) की घोषणा कर दी. तारीख तय की गई 16 अगस्त 1946. जिन्ना ने कांग्रेस को चेतावनी देते हुए कहा, "हम जंग नहीं चाहते हैं, लेकिन यदि आप युद्ध चाहते हैं तो हम इस प्रस्ताव को बिना झिझक स्वीकार करते हैं. हम या तो भारत को विभाजित करेंगे या फिर तबाह करके रख देंगे."

शेख मुजीबुर्रहमान के लिए ये कॉल बेहद खास था. 16 अगस्त जुमे का दिन था. मुस्लिम लीग के नेता और बंगाल के प्रधानमंत्री सुहरावर्दी अलग मुल्क के लिए जी-जान से अड़े थे.तब गृह विभाग का जिम्मा सुहरावर्दी ही संभाल रहे थे. बावजूद इसके उन्होंने दंगाइयों को हिंसा की खुली छूट दे दी और जुमे के रोज छुट्टी की घोषणा कर दी.रिपोर्ट्स बताते हैं कि कलकत्ता के लालबाजार स्थित पुलिस हेडक्वार्टर में सुहरावर्दी खुद अपने समर्थकों के साथ बैठा हुआ था. 

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कलकत्ता यूनिवर्सिटी में फहराया मुस्लिम लीग का झंडा

शेख मुजीब अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, "मुझे कलकत्ता इस्लामिया कॉलेज का प्रभार संभालने के लिए कहा गया था, जहां पर छात्र सुबह 10 बजे इकट्ठा होने थे. मैं नूरुद्दीन के साथ सुबह 7 बजे ही कलकत्ता यूनिवर्सिटी पहुंच गया और मुस्लिम लीग का झंडा फहरा दिया. किसी ने हमें नहीं रोका. मगर बाद में पता चला कि जब हम वहां से निकल आए तो झंडे को फाड़ दिया गया."

मुजीबुर्रहमान आगे लिखते हैं कि वहां से निकलकर जब हम इस्लामिया कॉलेज के कैंपस में दाखिल हुए तो कुछ छात्र दौड़ते हुए कॉलेज आए. वे सब खून से सने हुए थे. उनमें से कुछ पर चाकू के जख्म थे तो कुछ के सिर पर वार किया गया था. हम इन हालात से निपटने के लिए तैयार नहीं थे.

'पाकिस्तान ज़िंदाबाद' का नारा

दिन चढ़ते-चढ़ते कलकत्ता में दंगे शुरू हो गए थे. मुजीबुर्रहमान बताते हैं, "हमलोग 40 या 50 थे और धर्मताला चौराहे की ओर बढ़ रहे थे हमारे पास हथियार नहीं थे. मुझे तब तक साफ-साफ पता नहीं था कि ये दंगा क्या होता है. मस्जिद के इमाम दौड़ते हुए हमारे पास आए, डंडे और तलवार लिए लोग उनका पीछा कर रहे थे. हममें से कुछ लोगों ने 'पाकिस्तान ज़िंदाबाद' का नारा लगाया."

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शुरू हुआ  Long week of knives

मुजीबुर्रहमान के अनुसार कुछ समय के बाद हमारे समर्थन में एक भीड़ आ गई, फिर हिंदुओं ने आगे बढ़ना बंद कर दिया और हमने भी ऐसा ही किया. पूरा कलकत्ता एक युद्ध क्षेत्र में तब्दील हो चुका था. हिंसा के दौरान हमने कई मुस्लिम और हिंदू परिवारों को बचाया. कलकत्ते की सड़कों पर लाशें बिछी हुई थीं. मुसलमान मुस्लिम इलाकों में शरण ले रहे थे और हिंदू के हिंदू बहुल क्षेत्र में जा रहे थे. 

इतिहास की पुस्तकें बताती हैं कि इस दंगे में मात्र 72 घंटे में कोलकाता में 4000 लोग मारे गये थे और एक लाख लोग बेघर हो गए. इसके बाद हिंसा का जो दौर शुरू हुआ उसे इतिहास में Long week of knives के नाम से जाना जाता है.

बाद में जब भारत का बंटवारा तय हो गया तो असम प्रांत के बंगाली मुस्लिम बहुल सिलहट जिले के भाग्य का फैसला करने के लिए एक जनमत संग्रह कराया गया. शेख मुजीब चाहते थे कि सिलहट पाकिस्तान में शामिल हो. इस जनमत को प्रभावित करने के लिए वे 500 कार्यकर्ताओं के साथ कोलकाता से सिलहट गए थे.

शेख मुजीब की जिंदगी की ये पहली पारी थी. दूसरी पारी तो 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान बनने के बाद शुरू होने वाली थी. जब उन्हें बांग्लादेश कायम करने के लिए लीग के उन्हीं नेताओं से लड़ना था जिनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर उन्होंने पाकिस्तान बनाया था.

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