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प्रवासी भारतीय दिवस: पहला गिरमिटिया से 3.50 करोड़ प्रवासियों के परिवार तक, भारत के ग्लोबल ड्रीम के चमकने की कहानी...

Pravasi Bharatiya Divas: हिन्दुस्तान से हजारों मील दूर बिहार, बंगाल और यूपी के मजदूरों ने विदेशी जमीन पर 'अपना भारत' बसाया. उनके मन में बिछोह था, पलायन की पीडा थी. इन्होंने तुलसी की चौपाइयां, लोक गीत, तीज त्योहार इन मजदूरों के लिए खुद को दिलासा देने का आधार बन गया. मातृभूमि से हजारों मील दूर इन भारतीयों ने अपने लिए एक अनूठे सामाजिक-सांस्कृतिक इको सिस्टम का निर्माण किया. प्रवासी भारतीय दिवस पर पेश है वो कहानी जब भारतीय पूरी दुनिया में फैले और छा गये.

 : भारत के प्रवासियों के संघर्ष की कहानी. (फोटो डिजाइन-आजतक) : भारत के प्रवासियों के संघर्ष की कहानी. (फोटो डिजाइन-आजतक)
पन्ना लाल
  • नई दिल्ली,
  • 09 जनवरी 2025,
  • अपडेटेड 11:33 AM IST

सुंदर सुभूमि भैया भारत के देसवा से
मोरे प्राण बसे हिम-खोह रे बटोहिया
एक द्वार घेरे रामा हिम-कोतवलवा से
तीन द्वार सिंधु घहरावे रे बटोहिया
 जाऊं-जाऊं भैया रे बटोही हिंद देखी आऊं, 
जहवां कुहुकी कोइली गावे रे बटोहिया...

अगर आप भोजपुरी नहीं भी समझते हैं तो भी इन पंक्तियों के भाव आपकी आंखें सहज ही नम कर देंगी. भोजपुरी में राष्ट्रगीत का दर्जा पा चुकी बाबू रघुवीर नारायण की ये रचना मारीशस, फिजी, त्रिनिदाद, फिजी, गुयाना, सूरीनाम में फैले प्रवासी भारतियों की पुकार थी. 1912 में लिखा गया ये गीत 'गिरमिटिया' की पहचान लिए मजदूरों को उनकी जन्मभूमि भारत से जोड़े रखता था. 

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अविभाजित बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश के ये वो मजदूर थे जो अंग्रेजों द्वारा बुने गए एक सुनहरे भविष्य के जाल में फंस गये. ये समय आज से लगभग 200 साल पहले का था. अंग्रेजों ने गरीबी और गुलामी में फंसे पूर्वांचल के युवाओं को परदेस जाकर जिंदगी संवारने का लुभावना ऑफर दिया. 

महिलाएं और बुजुर्ग तो गोरों की चालबाजी समझते थे, लेकिन युवाओं का गर्म खून लालच और गुलाबी खयालों के जाल में फंस गया. उन्होंने फैसला सुना दिया वे अब गोरों के मुलाजिम बनेंगे और कलकत्ता में कमाएंगे. 

कुछ तो बांकपन और कुछ लड़कपन... ये लड़के नहीं जानते थे कलकत्ता में हुगली के किनारे कुछ नावें उनका इंतजार कर रही हैं. जहां से एक यात्रा शुरू होनी है जिसका लक्ष्य है भारत से हजारों किलोमीटर दूर, समंदर के उस पार बसी अंग्रेजों की वो कॉलोनियां जो बेनाम, बंजर और विरान थीं. 

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गठरी में बांध ले गए भारत की आत्मा

प्रसिद्ध लोकगायिका मालिनी अवस्थी ने हिन्दी समाचारपत्र दैनिक जागरण में लिखा है, "कोई अकेला चल पड़ा तो कोई पत्नी के साथ. आंसुओं से भीगी आंखें, अपनों का बिछोह भी उन्हें रोक न सका. यू.पी. और बिहार के साहसी पथिक अपनी माटी से दूर जा रहे थे, लेकिन भारत की आत्मा को अपने साथ गठरी में बांधे ले जा रहे थे. श्रीरामचरितमानस और हनुमान चालीसा के रूप में, देवी-देवताओं के चित्र और सिंदूर-टिकुली के रूप में."

दरअसल भारत से मजदूरों को ले जाने के पीछे एक और कहानी है. 1833 में यूरोप में दास प्रथा खत्म हो गई थी. इसके बाद ब्रिटेन, फ्रांस, पुर्तगाल जैसी औपनिवेशक शक्तियों को दुनिया भर में फैले अपने उपनिवेश को संभालने के लिए बड़ी संख्या में लेबर की जरूरत पड़ी. अंग्रेजों ने मौका देखा, भारत की विशाल आबादी उनके सामने मजदूरी के खाली पड़ी थी. 

गिरमिटिया की कहानी

भारत से इतनी भारी संख्या में मजदूरों को ले जाने के लिए अंग्रेज इन युवाओं के साथ एक एग्रीमेंट (Agreement) कर रहे थे. अमूमन अनपढ़ पूर्वांचल के लड़के इस अंग्रेजी शब्द का उच्चारण नहीं कर पा रहे थे. उन्होंने अपनी जुबान में इस समझौते को 'गिरमिटिया' और वे 'गिरमिटिया मजदूर' कहलाये. 

ऐसी थी गिरमिटिया की जिंदगी

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भारत के संसाधनों पर गिद्ध नजर लगाये बैठे अंग्रेज इस समझौते में कहां ईमानदार होने वाले थे. गिरमिटिया की शर्तें न सिर्फ कठोर बल्कि अमानवीय थीं. मसलन, पांच वर्ष से पहले लौटना संभव नहीं हो सकेगा, 5 वर्ष काम करने के बाद वे 'खुला' कहलाएंगे और दूसरे लोगों के साथ काम कर सकेंगे. 10 साल गुजारने के बाद ही लौटने की अनुमति होगी. वहां शादी की अनुमति नहीं होगी. गन्ना के खेत में जैसे-तैसे जिंदगी गुजारनी होगी. 

मालिनी अवस्थी लिखती है, "ये यात्राएं बहुत कठिन थीं. अव्यवस्था के कारण जहाज में हैजा, चेचक जैसी महामारियां फैलीं. बहुतों ने यात्रा समाप्त न होते देख घबराहट में सागर में कूदकर जान दे दी."

1829 में चार महीने की संघर्षपूर्ण यात्रा के बाद पहला जहाज मॉरीशस पहुंचा. भोले-भाले पुरबियों ने इसे 'मारीच द्वीप' कहा. लेकिन ये यात्रा बहुत कष्टकारी रही. विराट समंदर इनके लिए एक अजूबा ही था. रास्ते में कई यात्रियों की मौत हो गई.  इसके बाद भारत के बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश और  तमिलनाडु से भारतीय मजदूरों के पलायन का रेला शुरू हो गया. अंग्रेज लाखों भारतीयों को फिजी, गुयाना, मॉरीशस, सूरीनाम, त्रिनीदाद और टोबेगो, जमैका, मलाया, सिंगापुर और अफ्रीका ले गये. अंग्रेजों ने मजदूरों की बहाली के लिए कलकत्ता और मद्रास में दफ्तर भी खोल रखे थे. 

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दक्षिण अफ्रीका में प्रवासी भारतीयों का एक समूह (फोटो-Getty image)

1879 में 3 मार्च को कलकत्ता से एक जहाज 373 पुरुषों और 149 महिलाओं को लेकर फिजी के लिए रवाना हुआ. 14 मई को ये जहाज जब फिजी पहुंचा तो हैजा, पेचिश और चेचक से 17 मजदूरों की मौत हो चुकी थी. ये तो एक बानगी है, न जाने इन यात्राओं में कितने गुमनाम मजदूर अपने सपनों का पीछा करते-करते फना हो गये. 

प्रवासी भारतीयों की छतरी में बड़ा हिस्सा गिरमिटिया मजदूरों का

गिरमिटिया मजदूरों से गोरे अमूमन हर काम कराते थे, गन्ने की खेती, रेल की पटरियां बिछाना, फैक्टरियों में काम, घरेलू मजदूरी, या कहिए कुछ भी. तमाम विपरित हालात में अपना वतन छोड़ कर गये इन भारतीय मजदूरों ने विदेशी जमीन को अपने खून-पसीने से सींच कर वहां की तकदीर बदल दी. ये मजदूर ज्यादा से ज्यादा कमाकर सदा के लिए अपना भाग्य बदल लेना चाहते थे. ताकि एक बार भारत लौटकर अपने परिवार के सपनों पर न्योछावर हो जाएं

परंतु ब्रिटिश ऐसा नहीं चाहते थे क्योंकि इससे उनके व्यापार पर प्रभाव पड़ सकता था. इस वजह से उन्होंने पारिवारिक प्रवासन को प्रोत्साहित किया. यानी कि अब मजदूर भारत से अपने परिवार समेत आने लगे. इसका परिणाम यह हुआ कि कई गिरमिटिया मजदूर उसी देश में बस गए जहां वे काम के लिए गए थे. प्रवासी भारतीयों की छतरी में बड़ा हिस्सा ऐसे ही मजदूरों का है. 

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हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी की संपादकीय डायरेक्टर शर्मिला सेन ने अपनी पुस्तक Not Quite Not White में लिखा है, "19वीं सदी में कैरेबिया में पैदा किये गए चीनी से बहुत ज़्यादा मुनाफ़ा कमाया जा रहा था और कई अमीर ब्रिटिश परिवार इस कारोबार में शामिल थे."

मातृभूमि से हजारों मील दूर इन भारतीयों ने अपने लिए एक अनूठे सामाजिक-सांस्कृतिक इको सिस्टम का निर्माण किया. इस कोशिश में रामायण-महाभारत की कहानियां, गीता के श्लोक, कुरान की आयतें उनके लिए अपनी जड़ों से जुड़ने का सहारा बनीं. 

मजदूरों के पलायन का ये सिलसिला 1922 तक चला. ये वो समय था जब अंग्रेजों की दबंगई को चुनौती देने के लिए मोहन दास नाम के एक भारतीय सितारे का उदय हो चुका था. मोहन दास यानी कि गांधी जी ने सबसे पहले दक्षिण अफ्रीका में गिरमिटिया मजदूरों की बदहाली का मुद्दा उठाया. बड़ा आंदोलन हुआ. अंग्रेज झुकने के लिए मजबूर हुए और गिरमिटिया मजदूरों की स्थिति सुधरी. एक बार गिरमिटिया मजदूरों की स्थिति सुधरने के बाद भी मोहन दास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत आए. 

गिरमिटिया मजदूरों को इंसाफ दिलाकर बापू के अफ्रीका से भारत लौटने की वो तारीख थी 9 जनवरी 1915. यानी कि आज से ठीक 109 साल पहले. उस दिन बंबई के समुद्र तट पर अंग्रेजों को घुटनों पर लाने वाले 45 साल के इस वकील का भव्य स्वागत हुआ. 

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वरिष्ठ हिंदी साहित्यकार गिरिराज किशोर ने महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीका प्रवास पर 'पहला गिरमिटिया' नाम का उपन्यास लिखा.

9 जनवरी की इस तारीख को भारत में गिरमिटिया मजदूरों के सम्मान के साथ जोड़ दिया गया. अब सरकार देश के विकास में प्रवासी भारतीयों के योगदान के महत्त्व को मान्यता देने और उन्हें देश की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए हर वर्ष में 9 जनवरी को प्रवासी भारतीय दिवस (Pravasi Bharatiya Divas) का आयोजन करती है. इस वर्ष भी ओडिशा में आज ये दिवस मनाया जा रहा है. 

विदेशी जमीन पर बसाया अपना 'भारत' 

हमने देखा कि सुनहरे भविष्य की तलाश में अपना मुल्क छोड़ने वाले इन भारतीय मजूदरों के सामने स्थिति ऐसी बनी कि वे फिर स्वेदश नहीं लौट पाए. इन्होंने उस विदेशी जमीन पर ही अपना 'भारत' बसाया. असाधारण मेहनत, गजब की अनुकूलता और प्रखर कौशल के दम पर ये मजदूर धीरे-धीरे लोकल सिस्टम में न सिर्फ पनपने लगे बल्कि वहां के मालिक भी बनने लगे. मजदूर से मालिक बनने की इन मजदूरों की कहानी अदभुत गाथा है.  

बता दें कि त्रिनिदाद और टोबैगो की राष्ट्रपति क्रिस्टीन कार्ला कंगालू इस बार हो रहे प्रवासी भारतीय सम्मेलन की मुख्य अतिथि हैं. 

दुनिया में कितने प्रवासी भारतीय 

गुजरते वक्त के साथ भारत के प्रवासियों का विस्तार पूरे ग्लोब में हुआ है. विश्व के फलक पर भारतीयों प्रवासियों का फैलाव इनके ग्लोबल ड्रीम की कहानी है. जहां हर भारतीय गजब की पेशेवर दक्षता का परिचय देते हुए दुनिया की बेस्ट कंपनियों की बोर्डरुम में नेतृत्व संभाल रहे हैं. 150 साल पहले गन्ने उपजाने वाले, पटरियां बिछाने वाले प्रवासी भारतीय अब टेक कंपनियों के CEO, AI के आविष्कारक और दिग्गज व्यापारिक घरानों का मैनेजमेंट संभालते हैं.

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आधुनिक अर्थों में प्रवासी भारतीय की परिभाषा बदली है. इसमें अब नॉन रेजिडेंट इंडियन, पर्सन ऑफ इंडियन ऑरिजिन इंडिया शामिल हैं. इस छतरी के अंदर अमेरिका, अरब देश, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, यूनाइटेड किंगडम, मलेशिया, मॉरीशस, श्रीलंका, सिंगापुर, नेपाल समेत दुनिया के दूसरे देशों में रहने वाले प्रवासी शामिल हैं. 

दरअसल 1947 में भारत को आजादी मिलने के बाद देश से माइ्ग्रेशन का एक नया दौर शुरू हुआ. 70-80 के दशक में आईआईटी और आईआईएम में पढ़े लिखी पेशेवर प्रतिभाएं अच्छे रोजगार के लिए ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप की ओर प्रस्थान करने लगीं.

रैंकिंग देश NRI  पर्सन ऑफ इंडियन ऑरिजिन कुल ओवरसीज इंडियन
1 USA 20,77,158              33,31,904 54,09,062
2 UAE 35,54,274                    14574 35,68,848
3 मलेशिया 1,63,127             27,51,000 29,14,127
4 कनाडा 10,16,274             18,59,680 28,75,954
5 सऊदी अरब 24,60,603                    2,906 24,63,509
6 म्यांमार        2,660             2,000,000 20,02,660
7 यूके   3,69,000             14,95,318 18,64,318

अमेरिका में भारतीय प्रवासियों का सिक्का तो गजब का चलता है. सुंदर पिचाई:गूगल के सीईओ, सत्या नडेला: माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ, इंद्रा नूई: पेप्सीको की पूर्व सीईओ, राजीव सुरी: माइक्रोसॉफ्ट के पूर्व सीईओ, विक्रम पंडित: सीएससी के पूर्व सीईओ इस कड़ी के कुछ गिने चुने नाम है. 

इन देशों में भारतवंशी नेता, डॉक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिकों ने व्यावसायिक जीवन में एवन क्लास की कामयाबी हासिल की है. ब्रिटेन के पूर्व पीएम ऋषि सुनक का उदाहरण सबके सामने हैं.

भारत से लोगों के पलायन का तीसरा दौर 20सदीं के अंत और 21वीं सदी की शुरुआत में शुरू हुई. इस दौरान गल्फ ने लाखों की संख्या में भारतीयों को आकर्षित किया. आईटी क्रांति, अंग्रेजी भाषा पर दक्षता और इंजीनियरिंग कौशल से लैस भारतीय प्रतिभाओं को अरब ने हाथों हाथ लिया. इनमें से कई वहीं बस गये. यही वजह है कि दुबई और जेद्दा तो छोड़िए यमन और सीरिया में भी भारतीय आपको अच्छे पदों पर मिल जाएंगे. 

भारत के विदेश मंत्रालय के अनुसार भारतीय प्रवासियों की संख्या 3 करोड़ 54 लाख है. इसमें 19.5 मिलियन भारतीय मूल के लोग और 15.8 मिलियन NRI शामिल हैं. अमेरिका में सबसे ज्यादा 2 मिलियन भारतीय मूल के लोग रहते हैं. जबकि UAE में सबसे ज्यादा 3.5 मिलियन NRI हैं. नौकरी, उद्योग, व्यापार और दूसरे कारणों की वजह से अपना देश छोड़कर दूसरे देशों में रहने वालों में भारतीयों की आबादी दुनिया में सबसे अधिक है.

 

कनाडा में प्रवासी सिखों का समूह (फोटो-GETTY IMAGE)

सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कतर, कुवैत जैसे देशों की पूरी बुनियाद भारतीय इंजीनियर और लेबर खड़ा कर रहे हैं. 

कनाडा में प्रवासी भारतीय सिखों का समृद्ध संसार है. पीएम ट्रूडो के इस्तीफे बाद भारतीय मूल की अनीता आनंद वहां की पीएम बनने की रेस में हैं. 

प्रवासी भारतीयों ने झोली भर-भर कर भेजे डॉलर 

विदेश में धन अर्जन करने वाले प्रवासी भारतीयों का पूरा परिवार भारत में रहता है. वे अपनी जड़ों को कभी नहीं भूल पाते हैं और अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा भारत अपने परिवार के सदस्यों को भेजते हैं. भारत सरकार के डॉलर भंडार का ये एक बड़ा स्रोत है. 

वर्ल्ड बैंक के अनुसार वर्ष 2024 में भारत को विदेशों से 129 अरब डॉलर की रकम प्राप्त हुई है. ये दुनिया में किसी भी देश को प्रवासियों से मिलने वाली रकम का सबसे ज्यादा हिस्सा है.  2022 में प्रवासी भारतीयों लगभग 100 अरब डॉलर देश भेजे, जबकि 2020 में ये आंकड़ा 79 अरब डॉलर था. 1990-91 में ये आंकड़ा मात्र 2.1 अरब डॉलर था. 

प्रवासी कूटनीति का लाभ

एक बड़ा प्रवासी भारतीय समूह होने का फायदा ये है कि भारत इन लोगों के जरिये सॉफ्ट डिप्लोमेसी का इस्तेमाल करता है और अपने पक्ष में नीतियां बनवाता है. वर्ष 2008 में यूएस-इंडिया सिविलियन न्यूक्लियर डील को पास कराने में अमेरिकी-भारतीयों की बड़ी भूमिका रही. इसके अलावा हिंदी भाषा के प्रसार, सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में पैरवी जैसे मामलों में भी प्रवासी भारतीय भारत के पक्ष में लॉबिंग करते हैं.

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