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चीन को बगलें झांकने के लिए किया मजबूर, जानिए एलीट तिब्बती यूनिट की शौर्य गाथा

अधिकतर भारतीयों ने पहली बार भारतीय सेना के हिस्से के रूप में तिब्बतियों के लड़ने के बारे में सुना होगा. लेकिन उन्हें पता नहीं है कि ये बहादुर तिब्बती सैनिक उसी विरासत को बढ़ा रहे हैं, जो 1962 के भारत-चीन युद्ध के तुरंत बाद शुरू हुई थी. 

क्या है एलीट तिब्बती यूनिट? (Source: Heinrich Harrer Limited Edition Portfolio) क्या है एलीट तिब्बती यूनिट? (Source: Heinrich Harrer Limited Edition Portfolio)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 07 सितंबर 2020,
  • अपडेटेड 2:27 AM IST
  • चीन के खिलाफ एसएफएफ का कई बार हुआ है इस्तेमाल
  • खुफिया जानकारी जुटाने का काम भी करती थी एसएफएफ
  • 71 में SFF के सैनिक बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में शामिल हुए

1950 में तिब्बत पर चीन के कब्जे ने हालिया इतिहास के सबसे लंबे स्वतंत्रता आंदोलनों में से एक का आधार तय किया. सात दशक बाद, भारतीय सेना की ओर से ट्रेंड तिब्बतियों के एक ग्रुप ने चीनी सेना को चौंका कर बगलें झांकने को मजबूर कर दिया. 

रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (RAW) के तहत काम करने वाली सीक्रेट भारतीय सेना यूनिट-  स्पेशल फ्रंटियर फोर्स (SFF)  30 अगस्त को सुर्खियों में आई. इसकी वजह वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर पैंगोंग लेक के पास बारूदी सुरंग विस्फोट में फोर्स के एक जवान का शहीद होना रहा.

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भारतीय और तिब्बती झंडे में लिपटे शहीद SSF कमांडो तेनजिन न्यिमा की तस्वीर और स्थानीय लोगों की ओर से बॉर्डर के लिए जा रहे तिब्बती मूल के जवानों को विदाई दिए जाने का वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर होने तक इन ट्रेंड माउंटेन वॉरियर्स के बारे में ज्यादा कुछ सार्वजनिक तौर पर पता नहीं था.  

SFF (जिसमें भारतीय अधिकारियों के नेतृत्व में तिब्बती सैनिक शामिल थे) ने 29 से 31 अगस्त के बीच महत्वपूर्ण चोटियों पर कब्जा करने में अहम भूमिका निभाई. अधिकतर भारतीयों ने पहली बार भारतीय सेना के हिस्से के रूप में तिब्बतियों के लड़ने के बारे में सुना होगा. लेकिन उन्हें पता नहीं है कि ये बहादुर तिब्बती सैनिक उसी विरासत को बढ़ा रहे हैं, जो 1962 के भारत-चीन युद्ध के तुरंत बाद शुरू हुई थी. 

दो हिस्सों वाली सीरीज में आजतक/ इंडिया टुडे ने इस गुप्त गुरिल्ला फोर्स के जन्म लेने और फिर इसके अज्ञात योद्धाओं के एक्शंस को लेकर जानकारी जुटाई है. 

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प्रतिरोध की गाथा   

1950 में, चीन ने अमदो, गोलोक और खाम सहित तिब्बत के बाहरी और पूर्वी क्षेत्र पर आक्रमण कर कब्जा किया. चीनी कम्युनिस्टों ने तिब्बतियों की जीवन शैली को कमजोर करने के लिए विभिन्न नीतियों को अमल में लाना शुरू किया. 1955-56 तक, इन क्षेत्रों के लोग चीनी कब्जे के खिलाफ आवाज बुलंद करने लगे.

बीजिंग ने दमनात्मक जवाब में मठों को भारी बमवर्षकों और लड़ाकू विमानों से निशाना बनाया. चीन की इन क्रूर कार्रवाइयों में हजारों तिब्बतियों की मौत हुई.  

तिब्बत पर चीनी कब्जे के खिलाफ खड़े होने वाले खम्पा योद्धा (Source: Heinrich Harrer Limited Edition Portfolio)

1957 की शुरुआत में, गोम्पो ताशी आंद्रुगत्संग की अगुआई में सेंट्रलाइज्ड आर्म्ड रेसिस्टेंस (प्रतिरोध) संगठित हुआ. इसका नाम 'चुशी गंगद्रुक' (चार नदियां, छह रेंज) रखा गया. 

1958 के मध्य में, मुख्य तौर पर पूर्वी तिब्बत की सुरक्षा के लिए खड़ा किया गया यह रेसिस्टेंस फोर्स, ऑल-तिब्बत फोर्स में बदल गया और इसका नाम नेशनल वॉलन्टियर आर्मी (NVDA) रखा गया. लेकिन इसकी पहचान 'चुशी गंगद्रुक' के तौर पर ही अधिक बनी रही.

मध्य में गोमपो ताशी (Source: Pinterest)

 

यह वह दौर भी था जब अमेरिकियों ने तिब्बत के घटनाक्रम में गहरी दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया. वो 1950 के दशक की शुरुआत से ही मौजूदा दलाई लामा के दो निर्वासित भाइयों के साथ संपर्क में थे. 1956 तक, आइजनहावर प्रशासन ने तिब्बत में चीन के खिलाफ सीक्रेट गतिविधियों का समर्थन करने का फैसला किया. 

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इसके बाद, एक तिब्बती टास्क फोर्स की स्थापना की गई. यह तय किया गया कि तिब्बतियों के एक बैच को खुफिया ऑपरेशन्स और गुरिल्ला वारफेयर में ट्रेंड किया जाए. यह ट्रेनिंग सायपन के पैसेफिक टापू पर की गई. 

भौगोलिक निकटता को देखते हुए, केंद्रीय खुफिया एजेंसी (CIA) ने तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से ऑपरेशन चलाया. छह तिब्बतियों का पहला जत्था फरवरी 1957 में पश्चिम बंगाल के रास्ते पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में लाया गया. फिर उन्हें पहले B-17 के जरिए ओकिनावा (जापान) ले जाया गया और फिर वहां से सायपन.  B-17 का इस्तेमाल तिब्बत में कुछ प्रारंभिक बैचों को पैरा-ड्रॉप करने के लिए भी किया गया था. बाद में, C-118 'लिफ़्टमास्टर' (DC-6 का USAF पदनाम) और यहां तक ​​कि C-130 का भी इस्तेमाल किया गया.  

तिब्बतियों के बाद के बैचों को अमेरिका में कोलोराडो के पर्वतीय क्षेत्रों में ट्रेंड किया गया, जहां का इलाका और आबोहवा तिब्बत से मिलती है. भारत की भागीदारी से पहले तक, ये ट्रेंड गुरिल्ला तिब्बत में पैरा ड्रॉप किए गए थे. 

अमेरिका के कोलोराडो में कैंप होल, जहां तिब्बतियों को CIA की ओर से ट्रेंड किया गया था (Source: Center For Asian American Media)

पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में कुर्मिटोला अहम बेस था, जहां से फ्लाइट में तिब्बती छापामारों को सुदूर पूर्व में सीआईए के ठिकानों तक पहुंचाया जाता था. फिर गहन ट्रेनिंग के बाद हथियारों और गोला-बारूद के साथ उन्हें लैस कर तिब्बत के अंदर उतारा जाता था. 

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इस अवधि के दौरान, तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू भारत की धरती से चीन विरोधी गतिविधियों को अनुमति देने के पक्ष में नहीं थे, और भारत की ओर से तिब्बती छापामारों को कोई मदद नहीं दी गई थी. 

अजब अस्थायी सहयोगी 

1962 के भारत-चीन युद्ध तक की अवधि में, दोनों देशों के संबंधों में काफी खटास आई. युद्ध से पहले भी तिब्बती गुरिल्लाओं को भारत के समर्थन को लेकर अमेरिका और भारत के बीच तीखी समझ थी. 

तिब्बती प्रतिरोध को पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने गंभीर रूप से दबा दिया था. ज्यादातर कैडर या तो हताहत हो गए थे या भारत चले गए. इसलिए, 1960 में, CIA ने तिब्बत सीमा के साथ उत्तरी नेपाल के मस्तंग क्षेत्र में एक नया तिब्बती गुरिल्ला बेस स्थापित करने का निर्णय लिया. यह क्षेत्र तिब्बत तक फैला है और यहां के लोग तिब्बती रीति-रिवाजों से अच्छी तरह अवगत थे. 

नेपाल में इन छापामारों को सप्लाई के लिए CIA  की ओर से इस्तेमाल किए जा रहे विभिन्न एरियल रूट्स पर दिक्कतें आने लगी थीं. चीनियों ने तब तक एयर सर्विलांस और एयर डिफेंस एसेट्स को कुनमिंग प्रांत में शिफ्ट कर दिया था. इसलिए, यह कॉरिडोर अब सुरक्षित नहीं रहा था. बर्मा (म्यांमार) ने भी अपने हवाई क्षेत्र से उड़ानों पर आपत्ति जताई थी. 

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इस क्षेत्र में सप्लाई और अमेरिका प्रशिक्षित गुरिल्लाओं को पैरा ड्रॉप करने के लिए सबसे अच्छा रास्ता भारतीय हवाई क्षेत्र का इस्तेमाल करना था. 1961 के अंत तक, भारत ने इन उड़ानों के लिए मौन मंजूरी दे दी.  

अक्टूबर 1962 में, चीन ने भारत पर पूर्वी और उत्तरी सीमाओं से हमला किया. यह युद्ध भारत के लिए विनाशकारी था और नेहरू ने हथियारों की मदद के लिए अमेरिका से संपर्क किया. इस नए भारत-अमेरिका संबंध का एक पहलू तिब्बत में चीनी हितों के खिलाफ तिब्बती गुरिल्लाओं के इस्तेमाल से भी जुड़ा था. 

एक आइडिया का जन्म 

भारत में कई क्वार्टर्स की ओर से खुफिया, सर्विलांस और अन्य गुप्त गतिविधियों के लिए तिब्बती गुरिल्ला संगठन के इस्तेमाल की जरूरत महसूस की गई. इस तरह की एक पहल में तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन और लेफ्टिनेंट जनरल बीएन कौल शामिल थे.

अक्टूबर 1962 में चीन के शुरुआती हमलों और आगे बढ़ने पर दोनों ने चीनी सेना पर तिब्बत के अंदर से ही हमले करने के लिए तिब्बतियों को शामिल कर एक फोर्स बनाने की व्यावहारिकता पर विचार किया. इन दोनों ने ही फोर्स के पहले कमांडर के तौर पर ब्रिगेडियर सुजान सिंह उबान (बाद में मेजर जनरल एसएस उबान) की पहचान की.  

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ब्रिगेडियर उबान को जब इस जिम्मेदारी की पेशकश की गई तब वो या रिटायर हो गए थे या रिटायरमेंट की कगार पर थे. बाद में, जब इस आइडिया पर अमल किया गया तो उन्हें न सिर्फ पुनर्नियुक्त किया गया बल्कि मेजर जनरल के रैंक पर प्रोन्नत भी किया गया. आज तक, SFF कमांडर मेजर जनरल रैंक का एक सेना अधिकारी है और उसे SFF के महानिरीक्षक के तौर पर जाना जाता है. 

इस गतिविधि में अन्य भागीदार इंटेलीजेंस ब्यूरो के तत्कालीन डायरेक्टर भोलानाथ मलिक थे. आईबी के माध्यम से, दलाई लामा के भाई ग्यालो थोंडुप से संपर्क किया गया  जो कलकत्ता (अब कोलकाता) में रह रहे थे. उन्हें गुरिल्ला फोर्स में भर्ती करने के लिए भारत के विभिन्न तिब्बती शरणार्थी शिविरों में रह रहे तिब्बतियों के बारे में बताने के लिए मदद करने का आग्रह किया गया था. 

हालांकि, नवंबर 1962 में नए चीनी हमले और भारत की बड़ी हार के बाद, कृष्णा मेनन ने रक्षा मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और लेफ्टिनेंट जनरल कौल हार के दंश की वजह से तस्वीर से पूरी तरह बाहर रहे. पूरा कार्यक्रम बीएन मलिक और इंटेलीजेंस ब्यूरो के हवाले कर दिया गया. 

इसी विचार के साथ ओडिशा के तत्कालीन मुख्यमंत्री बीजू पटनायक ने भी नेहरू से संपर्क किया था. उन्हें गुप्त रूप से एयर ऑपरेशन चलाने का पूर्व अनुभव था. नेहरू ने उन्हें बीएन मलिक के साथ काम करने का निर्देश दिया, क्योंकि वे इस तरह की कोशिश की अगुवाई कर रहे थे.  

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बीएन मलिक और बीजू पटनायक दोनों, भारत में एक तिब्बती गुरिल्ला फोर्स बनाने और एविएशन एसेट्स को समर्थन करने के लिए अहम केंद्रीय व्यक्ति थे. नेहरू के अनुरोध के बाद, अमेरिका में कैनेडी प्रशासन ने नवंबर 1962 में एक प्रतिनिधिमंडल भेजा, इसमें विदेश विभाग, पेंटागन और सीआईए के प्रतिनिधि शामिल थे. इस प्रतिनिधिमंडल को भारत की ओर से मांगी गई सहायता पर विचार करना था.   

CIA प्रतिनिधिमंडल ने बीएन मलिक और अन्य अधिकारियों के साथ गुप्त गतिविधियों के लिए तिब्बती छापामारों को शामिल करने का ढांचा तैयार किया. सीआईए ने भारत में निर्वासित तिब्बतियों को शामिल कर एक पैरामिलिट्री फोर्स खड़ी करने के लिए समर्थन की पेशकश की. आईबी के तहत सपोर्ट इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए सहमति बनी. 

इस फोर्स को भविष्य में भारत-चीन के किसी भी टकराव के दौरान खुफिया जानकारी जुटाने और तिब्बत में गुप्त अभियानों के लिए इस्तेमाल किए जाना था. इस व्यवस्था से SFF और एविएशन रिसर्च सेंटर (ARC) के जन्म का आधार बना. 

ARC, रॉ के तहत एक और संगठन है जो परिवहन, परिष्कृत इलेक्ट्रॉनिक इंटेलिजेंस (ELINT) और सिग्नल इंटेलिजेंस (SIGINT) विमानों को ऑपरेट करता है. यह भारत और सीआईए के नेतृत्व वाली गुरिल्ला गतिविधियों को एयर सपोर्ट के रूप में शुरू हुआ. SFF और ARC दोनों एक साथ अस्तित्व में आए थे. 

भारत ने तिब्बत में मस्टांग मे बेस से गुरिल्ला गतिविधियों को जारी रखने के लिए सहमति व्यक्त की. हालांकि 1960 के दशक के आखिर तक इस ऑपरेशन में भारत की संलिप्तता बहुत कम हो गई थी. लेकिन 1970 के दशक की शुरुआत तक CIA ने इस कार्यक्रम को चलाया. फिर अमेरिका का चीन से संपर्क बढ़ा. उसके बाद तिब्बती प्रतिरोध को उसने सभी तरह का समर्थन बंद कर दिया. 

यह तिब्बतियों को इलीट स्पेशल ऑपरेशन्स फोर्स के लिए भर्ती करने और प्रशिक्षित करने की भारत की कोशिश की शुरुआत थी, एक साझा दुश्मन के खिलाफ. जैसे-जैसे समय बीतता गया, इस संगठन का आकार और दायरा, दोनों बढ़ते गए. 

ट्रेनिंग 

तिब्बती हाई एल्टीट्यूड पैरामिलिट्री फोर्स को खड़ा करने की प्रक्रिया 1962 के आखिर में चकराता में हेडक्वार्टर के साथ शुरू हुई जो कि उत्तराखंड (अब) में मौजूद है. चकराता देहरादून के पश्चिम में स्थित छावनी इलाका था जहां ब्रिटिश भारतीय और भारतीय सेना की विभिन्न यूनिट्स को रखा गया. 1947 के बाद कुछ वर्षों के लिए, यह भारतीय सेना की चौथी गोरखा राइफल्स का रेजिमेंटल सेंटर था. 

1963 से, सीआईए के प्रशिक्षकों के एक ग्रुप ने नियमित अंतराल पर सुविधा से बाहर रोटेट कर तिब्बतियों को गुरिल्ला वारफेयर और अनियमित युद्ध के लिए ट्रेंड किया, जिसमें पैरा-जंपिंग भी शामिल थी. नई पैरा मिलिट्री फोर्स को इस्टेबलिशमेंट-22 नाम दिया गया था. 

ऐसा इसलिए था क्योंकि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान मेजर जनरल उबान ने प्रतिष्ठित 22वीं माउंटेन रेजिमेंट के साथ काम किया था. समय बीतने के साथ इस्टेबलिशमेंट-22 को आम "Two-Two" के रूप में जाना जाने लगा. 

1972 में एसएफएफ ट्रूप्स को संबोधित करते दलाई लामा के साथ मेजर जनरल एसएस उबान (सोर्स: इंटरनेट)

गुप्त ऑपरेटर के तौर पर उनकी भूमिका को ध्यान में रखते हुए, पूरी फोर्स को पैराशूट दक्ष होना अपेक्षित था. आगरा में पैरा-जम्पिंग ट्रेनिंग दी गई. आगरा में भारतीय सेना का पैराट्रूपर्स ट्रेनिंग स्कूल (पीटीएस) और 50 (I) पैराशूट ब्रिगेड का बेस स्थित है. 

यूनिट को बाकी सेना से सीक्रेट रखा गया था, और एक राज के रूप में, यह दिखाने का प्रयास किया गया कि काल्पनिक 12 गोरखा राइफल्स के सैनिकों को पैरा-जंपिंग में प्रशिक्षित किया जा रहा था. ट्रेनिंग CIA और भारतीय स्टाफ की ओर से मिलेजुले रूप से इस्टेबलिशमेंट-22 को दिया गया. बाद में, पैराशूट प्रशिक्षण को पहले चारबतिया और और आखिर में सरसावा स्थानांतरित कर दिया गया, जो चकराता से लगभग 130 किमी दूर है. 

दिलचस्प है मेजर जनरल उबान पैरा-जंपिंग की प्रक्रिया सिर्फ एक दिन सीखने के बाद विमान से कूदने वाले पहले व्यक्ति थे. वह उस समय 49 वर्ष के थे, और सेना के नियमों के अनुसार, 35 से ऊपर के किसी भी शख्स को पैरा-जंप करने की अनुमति नहीं थी. लेकिन इस फोर्स के लीडर के रूप में उन्होंने आगे रह कर मिसाल पेश की. 

1966 के मध्य में संगठन का नाम SFF था और इसका आकार शुरुआती 5,000 स्ट्रैंथ से बढ़कर 10,000 हो गया था. इस संगठन की निगरानी आईबी से प्रधानमंत्री कार्यालय के तहत महानिदेशक (सुरक्षा) को शिफ्ट कर दी गई. इसके बाद, जब 1968 में एक नई बाहरी खुफिया एजेंसी RAW बनाई गई, तो महानिदेशक (सुरक्षा) और SFF का नियंत्रण इसे ट्रांसफर कर दिया गया. 

जैसे-जैसे 1960 का दशक आगे बढ़ा, SFF के साथ CIA की हिस्सेदारी घटती गई, और जब रिचर्ड निक्सन ने अमेरिका के 37वें राष्ट्रपति के तौर पर शपथ ली, तब तक ये नगण्य हो गई. 

एविएशन रिसर्च सेंटर 

SFF गतिविधियों को लॉजिकल सपोर्ट के हिस्से के तौर पर सितंबर 1963 में CIA और IB के बीच एक समर्पित एयर विंग की स्थापना की गई. इस विंग को एयर रिसर्च सेंटर या ARC के रुप में जाना गया और इसका बेस चारबतिया में एक पुराने और इस्तेमाल न किए जाने वाले WW2 एयरफ़ील्ड में स्थित था. ये कटक (ओडिशा) से दस किलोमीटर दूरी पर स्थित है. 

अमेरिकी मदद से एयरफ़ील्ड का नवीनीकरण किया गया. एआरसी के पहले डायरेक्टर रामेश्वर नाथ काव थे, जो रॉ के पहले प्रमुख भी बने. इस एयरफील्ड को चुने जाने की प्रक्रिया में बीजू पटनायक की अहम भूमिका रही. 

विमानन में पिछले अनुभव को देखते हुए पटनायक पहले व्यक्ति थे, जो भारत सरकार की ओर से सीआईए के साथ मिल कर काम करने वाले पाइंट पर्सन थे. ये भारत और सीआईए के नेतृत्व वाले तिब्बती गुरिल्ला ऑपरेशन्स के एविएशन पहलुओं को देख रहे थे. अतीत में पटनायक डच कब्जे के खिलाफ इंडोनेशियाई लड़ाकों को समर्थन के लिए गुप्त एयर सेवाओं के संचालन में शामिल रह चुके थे. 

ताइवान से बाहर काम कर रही सीआईए की गुप्त हवाई सेवाएं चारबतिया में हथियार, गोला-बारूद और अन्य उपकरण ड्रॉप करने के लिए उड़ान भरती थी. साथ ही ये तिब्बती गुरिल्लाओं को अमेरिका में ट्रेनिंग सेंटर्स तक ले जाती थीं और फिर तिब्बत में ड्रॉप करती थीं. हवाई संचालन के अलावा, चारबतिया तिब्बती एजेंटों के साथ रेडियो संचार का मुख्य केंद्र भी था. इन एजेंट्स को भारत-तिब्बत सीमा पर विभिन्न बिंदुओं से तिब्बत में दाखिल कराया गया था. 1960 के दशक की शुरुआत में, चारबतिया को U-2 टोही विमान के बेस के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता था. इस विमान ने फोटोग्राफिक इंटेलिजेंस इकट्ठा करने के लिए चीन के ऊपर से उड़ान भरी थी. 

चारबतिया के अलावा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सरसावा और असम के तिनसुकिया जिले में डूम डूमा को भी SFF और CIA के तिब्बती गुरिल्ला ऑपरेशन्स को सपोर्ट देने के लिए इस्तेमाल किया गया. 

कर्टिस C-46 कमांडो (सोर्स: विकिपीडिया)

CIA ने ARC को C-46, Helio Courier और Helio Twin Courier शॉर्ट टेक-ऑफ और लैंडिंग (STOL) विमानों और कुछ हेलिकॉप्टर्स भी सप्लाई किए. भारत के अनुरोध पर, CIA ने ELINT ऑपरेशन्स के लिए दो C-130 हरक्यूलिस विमानों की आवश्यकता का अनुमान लगाया. हालांकि, इस अनुरोध को मंजूरी नहीं दी गई, और CIA ने इस भूमिका के लिए C-46 को उपयुक्त माना. 

बाद में, भारत ने 1967 में सोवियत निर्मित An-12 को एआरसी में शामिल किया. सीआईए तकनीशियनों ने ELINT भूमिका के लिए एक An-12 को संशोधित किया और एसएफएफ सैनिकों के लिए पैराशूट प्रशिक्षण के लिए अन्य को भी संशोधित किया. 1969 तक, एआरसी के संबंध में सीआईए और रॉ के बीच तालमेल बंद हो गया. 

ऑपरेशन्स (1963-71) 

भारत-तिब्बत सीमा के साथ चीन के खिलाफ एसएफएफ का इस्तेमाल किए जाने की कुछ ही घटनाओं का रिकॉर्ड है. खुफिया जानकारी जुटाने और निगरानी के लिए विभिन्न एसएफएफ यूनिट्स को लद्दाख से अरुणाचल प्रदेश तक रखा गया था. 

प्रोजेक्ट जेमिनी के हिस्से के रूप में, एसएफएफ टीमों को 1960 के दशक के मध्य में तिब्बत में सीमा के पास चल रही चीनी टेलीफोन लाइनों को टैप करने के लिए भेजा गया था. इस ऑपरेशन को 1970 में दोहराया गया और उसी साल खत्म कर दिया गया. 

1971 में, SFF के सैनिक बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में शामिल हुए थे. मिजोरम के सीमावर्ती शहर डेमागिरी से पूर्वी पाकिस्तान में दाखिल होकर, SFF ने चटगांव हिल ट्रैक्ट (CHT) क्षेत्र में पाकिस्तानी सैनिकों के खिलाफ गुरिल्ला रेड्स कीं, जिन्हें 'ऑपरेशन ईगल' नाम दिया गया. 

बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के दौरान एसएफएफ के जवान। (Source: Claude Arpi Blogspot)

इस कार्रवाई ने पाकिस्तान सेना के चटगांव स्थित 97वीं (I) इन्फैंट्री ब्रिगेड के एस्केप रूट को ब्लॉक कर दिया. ऑपरेशन ईगल में लगभग 3,000 एसएफएफ सैनिकों ने हिस्सा लिया, इस कार्रवाई में 56 जवानों को खोना पड़ा और 190 घायल हुए. केंद्र ने 580 कर्मियों को नगद पुरस्कार देने का एलान किया था. 

हालिया एक ऑपरेशन में, SFF सैनिक उस सेना के नेतृत्व वाले माउंटेनियरिंग दल के हिस्सा थे जिनका टास्क नंदा देवी चोटी पर न्यूक्लियर पावर संचालित मॉनिटरिंग डिवाइस को स्थापित करना था. सीआईए की ओर से सप्लाई की गई इस डिवाइस से शिनजियांग में चीनी परमाणु और मिसाइल टेस्टिंग गतिविधियों पर नजर रखे जाना अपेक्षित था. 

 

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