
रोमियो, जूली, हनी और रैम्बो... ये चारों स्निफर डॉग्स हैं. और NDRF की उस टीम का हिस्सा हैं, जो रेस्क्यू ऑपरेशन के लिए तुर्की पहुंची है. ये चारों लेब्राडोर ब्रीड के डॉग हैं और इन्हें सर्च और रेस्क्यू ऑपरेशन की बेहतर ट्रेनिंग मिली है.
बारिश और कड़ाके की सर्दी की वजह से रेस्क्यू ऑपरेशन में आ रहीं दिक्कतों को इन स्निफर डॉग्स ने थोड़ा आसान कर दिया है. इन चारों डॉग्स की वजह से अब तक कई जिंदगियां बचाई जा चुकीं हैं. कुछ शव भी निकाले गए हैं.
सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के और भी देशों ने मलबे में फंसे लोगों को बचाने के लिए स्निफर डॉग्स भेजे हैं. इनका मकसद सिर्फ ज्यादा से ज्यादा जिंदगियां बचाना है. मेक्सिको, क्रोएशिया, चेक रिपब्लिक, जर्मनी, ग्रीस, लिबिया, पोलैंड, स्विट्जरलैंड, यूके और अमेरिका समेत कई देशों ने स्निफर डॉग्स भेजे हैं.
एक ओर जहां तुर्की में सेना मलबे को हटाने के लिए भारी मशीनरी और इक्विपमेंट्स का इस्तेमाल कर रही है तो दूसरी ओर भारत के ये स्निफर डॉग्स मलबे के ऊपर से जिंदगियां ढूंढने में मदद कर रहे हैं.
स्निफर डॉग्स कैसे बचा रहे हैं जिंदगियां?
ये चारों स्निफर डॉग्स NDRF की दो अलग-अलग टीम के साथ हैं. ये स्निफर डॉग्स मलबे के ऊपर से ही इंसानी गंध को सूंघते हैं और उसका सिग्नल दे रहे हैं.
भारतीय टीम के सेकंड इन-कमांड आदित्य प्रताप सिंह ने बताया कि इन कुत्तों को जिंदगी बचाने के लिए बहुट ट्रेन्ड किया गया है. जब भी इन्हें इंसानों की गंध आती है तो ये भौंकना शुरू कर देते हैं और इनके सिग्नल पर हम पीड़ितों की तलाश करते हैं.
उन्होंने बताया कि इन कुत्तों को रेस्क्यू ऑपरेशन के लिए सबसे बेहतर माना जाता है क्योंकि ये सीमेंट और मेटल के नीचे दबे इंसानों की गंध भी सूंघ सकते हैं.
कैसे होती है इनकी ट्रेनिंग?
आमतौर पर जर्मन शेफर्ड और लेब्राडोर को ही रेस्क्यू और सर्च ऑपरेशन में लगाया जाता है, क्योंकि इन्हें सबसे बेहतर माना जाता है.
इनकी ट्रेनिंग की एक बकायदा एसओपी होती है. हालांकि, इस जानकारी को बहुत ज्यादा सार्वजनिक नहीं किया जाता है. इन कुत्तों का एक हैंडलर होता है.
चूंकि, कुत्तों को बेहतर माना जाता है, इसलिए इन्हें सभी तरह के सुरक्षाबल भी रखते हैं. जब ये कुत्ते दो से तीन महीने के होते हैं, तभी से इनकी ट्रेनिंग शुरू हो जाती है. इन कुत्तों की 6 से 9 महीने की ट्रेनिंग होती है. हर महीने इनका टेस्ट भी लिया जाता है और जब ये टेस्ट में पास हो जाते हैं, उसके बाद ही इन्हें सर्विस में लगाया जाता है.
इन स्निफर डॉग्स को सबसे ज्यादा ट्रेनिंग इंसानी गंध पहचानने की दी जाती है. इन्हें इस तरह से ट्रेन्ड किया जाता है कि ये हर मौसम और हर तरह की स्थिति में इंसानी गंध को सूंघ सकें और उसका सिग्नल दे सकें.
गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि 5 एकड़ के एरिया में स्निफर डॉग्स की एक जोड़ी यानी दो कुत्ते मिलकर घंटेभर में छान लेंगे, लेकिन इतने ही बड़े इलाके की छानबीन करने में 20 लोगों को भी दो घंटे या उससे ज्यादा का समय लग जाएगा और उसके बाद भी उनके नाकाम होने की संभावना ज्यादा होगी.
गृह मंत्रालय के मुताबिक, सर्च और रेस्क्यू ऑपरेशन में लगे कुत्ते 6 से 8 फीट तक के मलबे और यहां तक कि 20 फीट मलबे में भी दबे पीड़ित और उसके सामान का सूंघकर पता लगा सकते हैं.
पिछले साल फरवरी में एनडीआरएफ ने बताया था कि वो स्निफर डॉग्स को इस तरह की ट्रेनिंग दे रहे हैं, ताकि वो पानी के अंदर मौजूद इंसानी गंध को भी पहचान सकें.
12 साल में NDRF का ये तीसरा इंटरनेशनल ऑपरेशन
तुर्की में 6 फरवरी को भूकंप आया था. पहले 7.8 तीव्रता का भूकंप आया था और उसके बाद 7.6 की तीव्रता का भूंकप आया था. इस भूकंप में अब तक 36 हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं.
तुर्की में आए इस भूकंप का असर पड़ोसी मुल्क सीरिया पर भी पड़ा. सीरिया में हजारों लोगों की मौत हो चुकी है. इस भूकंप के बाद 60 से ज्यादा देशों की रेस्क्यू टीम तुर्की पहुंची है. भूकंप के अगले ही दिन एनडीआरएफ की टीम तुर्की पहुंच गई थी, जिसमें चार स्निफर डॉग्स शामिल हैं.
इससे पहले अप्रैल 2015 में नेपाल में आए भूकंप के दौरान भी एनडीआरएफ की टीम पहुंची थी. तब 700 जवान और 18 डॉग्स पहुंचे थे. उस समय एनडीआरएफ की टीम ने बिहार और नेपाल में 193 लोगों की जान बचाई थी, जबकि 133 शव बरामद किए थे. इससे पहले 2011 में जापान में आई सुनामी में भी लोगों को बचाने के लिए एनडीआरएफ की एक टीम गई थी.
डॉग्स ही क्यों?
कुत्तों में सूंघने की क्षमता इंसानों से 10 गुना ज्यादा होती है. एक ट्रेन्ड डॉग 500 मीटर दूर से इंसान की गंध पहचान लेता है. कुत्तों की सूंघने की क्षमता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वो इंसानों के अलावा ड्रग्स और हथियार को भी सूंघ सकते हैं.
मई 2021 में एक रिपोर्ट आई थी कि कुत्तों को कोरोनावायरस की पहचान करने के लिए ट्रेन्ड किया जा रहा है. ऐसा इसलिए ताकि कुत्ते सूंघकर ही पता लगा सकें कि कोई व्यक्ति कोरोना से संक्रमित है या नहीं?
इससे पहले अक्टूबर 2018 में ब्रिटेन और गाम्बिया के वैज्ञानिकों ने दावा किया था कि उन्होंने एक ऐसा तरीका खोज निकाला है जिससे कुत्ते सूंघकर ही मलेरिया का पता लगा सकते हैं.
इतना ही नहीं, मार्च 2015 में अमेरिकी वैज्ञानिकों ने भी दावा किया था कि एक कुत्ता थायरॉयड कैंसर सूंघने में सफल रहा है. इस कुत्ते का नाम फ्रैंकी था, जो कैंसर का पता लगाने में 88 फीसदी तक कामयाब हुआ था.
रेस्क्यू ऑपरेशन में कब से हो रहा डॉग्स का इस्तेमाल?
किसी भी तरह की आपदा के बाद बचे हुए लोगों को खोजने के लिए सर्च एंड रेस्क्यू डॉग्स का इस्तेमाल होता है. इन कुत्तों को इस तरह से ट्रेन्ड किया जाता है कि ये मलबे के नीचे, पानी के नीचे या फिर बर्फ के नीचे दबे इंसानों की गंध को सूंघ सके.
माना जाता है कि इन डॉग्स का इस्तेमाल दूसरे विश्व युद्ध के समय से होता आ रहा है. ब्रिटेन की 'ब्यूटी' को दुनिया का पहला सर्च एंड रेस्क्यू डॉग माना जाता है. दूसरे विश्व युद्ध के समय ये उस टीम का हिस्सा थी, जिसका काम जानवरों को बचाना था. ब्रिटेन की एक सरकारी वेबसाइट के मुताबिक, उस दौरान ब्यूटी ने 63 जानवरों को जिंदा जलने से बचाया था. इसके लिए 1945 में उसे बहादुरी के सम्मान से नवाजा गया था.
अगस्त 1999 में तुर्की के इज्मित में भूकंप आया था, जिसमें 17 हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे. उस समय 'मैन्क्स' नाम के एक जर्मन शेफर्ड डॉग ने 3 साल की बच्ची की जान बचाई थी. ये बच्ची 82 घंटे से मलबे में दबी हुई थी. इस डॉग के ऊपर 2014 में एक फिल्म भी बनी थी.
इसी तरह 2017 में जब मेक्सिको में भूकंप आया था, तब 'फ्रीडा' नाम की डॉग चर्चा में आई थी. फ्रीडा ने उस भूकंप में 12 लोगों की जान बचाई थी, जबकि 40 शव बरामद करवाए थे.