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छोटी हलचल-बड़ी बर्बादी, हिमालय में ही छिपी हैं उसकी तबाही की वजहें

हिमालय सबसे नया पर्वत होने के साथ ही सबसे कमजोर पर्वत भी है. इस इलाके में निर्माण को लेकर हमें न सिर्फ़ संवेदनशीलता बल्कि नया नज़रिया भी चाहिए. यहां की नदियों पर बनने वाले प्रोजेक्ट और सड़कों को बनाने में काफी सावधानी की अपेक्षा है.

चमोली में ग्लेशियर टूटने के बाद बड़ा हादसा चमोली में ग्लेशियर टूटने के बाद बड़ा हादसा
भारत सिंह
  • देहरादून ,
  • 07 फरवरी 2021,
  • अपडेटेड 6:09 PM IST
  • हिमालयी क्षेत्रों में चमोली जैसा हादसा नया नहीं है
  • हिमालय सबसे कमजोर पर्वत है
  • मानवीय या प्राकृतिक हलचल बड़ी तबाही को न्योता

उत्तराखंड के चमोली जिले में रविवार को ग्लेशियर के टूटने से भारी तबाही हुई है. चमोली में रैणी गांव के पास टूटा हुआ ग्लेशियर गंगा की सहायक नदी धौलीगंगा नदी में बह रहा है. इस हादसे से ऋषि गंगा पावर प्रोजेक्ट पर काम करने वाले कई लोगों के बहने की आशंका है और स्थानीय लोगों के घरों को भी नुक़सान पहुंचा है.

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हिमालयी क्षेत्रों में ऐसा हादसा नया नहीं है. प्राकृतिक और मानव-निर्मित आपदाओं को लेकर इस क्षेत्र की स्थिति शुरुआत से ही संवेदनशील रही है. इसके बाद यहां पर बड़े स्तर पर होते विभिन्न तरह के निर्माणों ने भी यहां की पारिस्थितिकी और पहाड़ों को लगातार कमजोर किया है. 

‘सबसे कमजोर पर्वत श्रंखलाओं पर सबसे ज़्यादा दबाव’

भूगर्भशास्त्री और फिजिकल रिसर्च लैब अहमदाबाद से रिटायर्ड वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. नवीन जुयाल कहते हैं कि हिमालय सबसे नया पर्वत होने के साथ ही सबसे कमजोर पर्वत भी है. इस इलाके में निर्माण को लेकर हमें न सिर्फ़ संवेदनशीलता बल्कि नया नज़रिया भी चाहिए. यहां की नदियों पर बनने वाले प्रोजेक्ट और सड़कों को बनाने में काफी सावधानी की अपेक्षा है. जबकि देखने को यह मिलता है कि सबसे कमजोर पर्वत श्रृंखला पर इस समय निर्माण का सबसे ज्यादा दबाव है. और यह निर्माण भी यहां की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर नहीं किया जा रहा है.

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ऐसे में हमें यहां पर किसी भी तरह की मानवीय या प्राकृतिक हलचल बड़ी तबाही को न्योता दे सकती है. हमें अपनी रणनीति बदलनी होगी. वरना मौजूदा परिस्थितियों में हमें ऐसी अनचाही चुनौतियों के लिए तैयार रहना होगा. 

कई रिपोर्ट दे चुकी हैं ऐसे हादसों की झलक

हिमालयी क्षेत्र को लेकर होने वाले अध्ययनों में अक्सर इस क्षेत्र की संवेदनशीलता की ओर इशारा किया जाता रहा है. क़रीब एक साल पहले ही काठमांडू स्थित इंटरनेशनल सेंटर फ़ॉर इंट्रीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (ICIMOD) ने हिमालयी क्षेत्र को लेकर अपनी एक रिपोर्ट जारी की थी. इस रिपोर्ट में क़रीब 800 किमी लंबी पर्वत श्रृंखला में हो रहे बदलावों का अध्ययन किया गया था.

भारत-पाकिस्तान-अफगानिस्तान और तजाकिस्तान में फैली इस पर्वत श्रृंखला को हिंदु कुश हिमालयी (HKH) क्षेत्र कहा जाता है. इस रिपोर्ट का सार यह था कि हिमालयी क्षेत्र को दुनिया भर में बढ़ रहे तापमान से काफ़ी ख़तरा है. इसमें कहा गया था कि 1970 से लेकर अभी तक यहां के क़रीब 15 फ़ीसदी ग्लेशियर पिघल चुके हैं. और जिस तरह से जलवायु परिवर्तन हो रहा है, सन 2100 तक हिमालय के 70 से 90 फ़ीसदी ग्लेशियर पिघल सकते हैं. 

असल चुनौती इसके बाद सामने आएगी…

असल तबाही इसके बाद आने की आशंका ज़ाहिर की गई है. पिघले हुए ग्लेशियर गंगा, ब्रह्मपुत्र के अलावा सिंधु नदी क्षेत्र जैसे इस इलाक़े के 10 प्रमुख नदी क्षेत्रों को अपनी जद में लेंगे. इन नदियों के किनारे बसी करोड़ों की आबादी इस बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित होगी. ग्लेशियर टूटने, बादल फटने या बाढ़ आने की घटनाएं इस क्षेत्र के कमजोर होने की वजह से और घातक हो जाती है.

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यह पेड़ों को उखाड़कर, पहाड़ को तोड़कर अपने साथ लाती है. यहां के तीखे पर्वतीय ढलान बहते हुए पानी की गति को बढ़ाने का काम करते हैं. ऐसे में इस क्षेत्र में बाढ़ काफ़ी ख़तरनाक हो जाती है. पर्वतीय विशेषज्ञों के मुताबिक़ ऐसा होने से न केवल जानमाल की भारी तबाही होगी बल्कि भारी मात्रा में पलायन, संघर्ष और जनसांख्यिकी बदलावों जैसी चुनौतियों से निपटने के लिए भी तैयार रहना होगा.

क्यों फट जाते हैं ग्लेशियर?

ग्लेशियर अपने आप में हजारों-लाखों क्यूबिक मीटर पानी समेटे होते हैं. जब ये इसे रोक पाने में असमर्थ होते हैं तो यही पानी, मलबे के साथ मिलकर तेज़ गति से बहता है और तबाही लाता है. कई बार यह कुछ घटों, दिनों या फिर हफ़्तों तक बहता रहता है. यह ज़रूरी नहीं है कि ग्लेशियर आपके घर में मौजूद बर्फ़ की तरह ही पिघले. ग्लेशियर कई बार फट भी जाते हैं. इसकी कई वजहें हो सकती हैं.

ग्लेशियर असल में कई साल, दशक और शताब्दियों तक बर्फ़ जमा होने से बनते हैं. यह आइस शीट की तरह होते हैं और गतिमान रहते हैं. ये अलग-अलग कारणों से फट जाते हैं. भूकंप, भारी बारिश, पानी या बर्फ का दबाव बढ़ना, ज़मीन के नीचे की गतिविधियों, हिमस्खलन, गलोबल वॉर्मिंग से भी ग्लेशियर फटने के मामले सामने आए हैं. जब ग्लेशियर अपने अंदर इन वजहों से पानी रोक पाने में नाकाम रहता है तो वह एकसाथ तेज़ गति से बहने लगता है. 

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‘आने वाली पीढ़ियों को भुगतना होगा’

टिहरी आंदोलन, चिपको आंदोलन जैसे कई पर्यावरण संबंधित आंदोलनों की कवरेज कर चुके वरिष्ठ पत्रकार राजीव लोचन साह कहते हैं कि नीतियां मौजूदा परिस्थितियों के अनुसार बनाना इसलिए ज़रूरी है ताकि आने वाली पीढ़ियां उसका फ़ायदा उठा सकें न कि उसके दुष्परिणाम भोगती रहें. टिहरी आंदोलन, बड़ी विद्युत परियोजनाओं और बड़े डैम को लेकर भी हमारा प्रमुख तर्क यही रहा कि यहां के पहाड़ इतने बड़े प्रोजेक्ट को झेलने लायक़ नहीं हैं.

यहां की परिस्थितियों के अनुसार छोटे-छोटे प्रोजेक्ट होने चाहिए. राजीव आगे कहते हैं कि भूगर्भशास्त्री और पर्यावरणविद अपनी रिपोर्टों में अक्सर इन बातों को लेकर चेताते रहते हैं, लेकिन उनकी बातों को सुनता कौन है? हिमालयी क्षेत्र में कोई भी निर्माण चाहे वह सड़क हो या किसी बड़े डैम का निर्माण या फिर कोई दूसरे क़िस्म का बदलाव, यहाँ की नदियों, पहाड़ों, मिट्टी आदि के अध्ययन के बाद उसके अनुसार होना चाहिए.  

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