
बिहार के सियासी गलियारे में चर्चाओं का बाजार एक बार फिर गर्म है. दरअसल, ललन सिंह के इस्तीफे की बात के बाद एक बार फिर कयास लगने लगे हैं कि नीतीश कुमार NDA के साथ जा सकते हैं. राजनीति के माहिर खिलाड़ी रहे नीतीश के लिए इस बार की परिस्थितियों का अंदाजा लगाना शायद मुश्किल होगा.
इस बीच नीतीश कुमार के लिए अभी की चुनौती यह है कि पार्टी में मचे बवंडर को कैसे शांत करें. एक तरफ 29 दिसंबर को उन्होंने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठक बुला ली है. वहीं, दूसरी तरफ जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह को बदलने की चर्चा है. लोकसभा चुनाव से चंद महीने पहले अगर नीतिश कुमार को पार्टी अध्यक्ष को बदलने की जरूरत महसूस हुई है, तो इसके पीछे गंभीर बात ही हो सकती है.
पार्टी को मजबूत करने की भी चुनौती
दूसरी चुनौती ये है कि अपनी पार्टी की स्थिति को मजबूत करने के साथ साथ उन्हें एकजुट कैसे रखें. नीतीश कुमार किसी समय सबसे भरोसेमंद रहे आरसीपी सिंह को इसलिए पार्टी से निकाला गया क्योंकि उनकी नजदीकियां बीजेपी से बढ़ गई थीं. बात इतनी बढ़ी की बिहार में गठबंधन बदल गया. अब चर्चा ये है कि जेडीयू के वर्तमान अध्यक्ष ललन सिंह आरजेडी के करीब हो गए हैं.
चर्चा तो यहां तक है कि जेडीयू के 10-12 विधायको को तोड़कर बिहार में तेजस्वी को सरकार बनाने का अवसर दिया जाए. मगर, समय रहते ये बात पता चल गई. यही वजह है कि नीतीश कुमार ने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठक दिल्ली में बुलाई है. नीतीश कुमार बिहार में बीजेपी का साथ छोड़कर इंडिया गठबंधन में इसलिए गए क्योंकि उन्हें बिहार के बाद देश की राजनीति करनी थी.
अब कम हो गई है बारगेनिंग पावर
उन्होंने विपक्षी दलों को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. लेकिन इंडिया गठबंधन की 4 बैठकों के बाद भी उन्हें कुछ नही मिला. अब 19 दिसंबर की बैठक से काफी उम्मीदें थी, लेकिन ममता बनर्जी ने ऐसी चाल चली कि नीतीश कुमार संयोजक बनने की उम्मीदों पर पानी फिर गया. चुनौतियां तो बहुत हैं, लेकिन सवाल है कि उनके पास ऑप्शन क्या है? नीतीश कुमार की पार्टी अब पहले जैसी मजबूत नहीं रही, लेकिन आज भी दोनों महत्वपूर्ण गठबंधन I.N.D.I.A. हो या NDA उन्हें अपने साथ रखना चाहते हैं. मगर, अब ये भी बात है कि उनकी बारगेनिंग पवार जरूर कम हुई है.
नीतीश के पास पहले दो ऑप्शन ये हैं…
पहला ऑप्शन ये है कि नीतीश कुमार कांग्रेस से खुलकर बात करेंगे. 28 तारीख को उनकी मुलाकात कांग्रेस अध्यक्ष मलिकार्जुन खड़गे से हो सकती है. इंडिया गठबंधन उनकी शर्तों को मान लेती है, तो फिर ठीक है. जहां तक दूसरे ऑप्शन की बात है, तो वह फिर से बीजेपी के साथ जा सकते हैं. पटना में ये चर्चा जोरों पर है कि बीजेपी उनकी वापसी चाहती है, लेकिन अपने शर्तों पर.
चर्चा ये है कि बीजेपी अब अपना मुख्यमंत्री चाहती है और नीतीश कुमार के लिए प्रतिष्ठित एग्जिट. मगर, सवाल ये है कि यह होगा कैसे? पिछली बार उनके उपराष्ट्रपति बनने की चर्चा हुई थी, लेकिन ये हुआ नहीं और बिहार में सरकार बदल गई.
मगर, ये भी सच है कि बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व किसी भी कीमत पर उनकी वापसी चाहता है, ताकि वो 2019 के लोकसभा चुनाव परिणाम को फिर से दोहरा सके. बीजेपी का प्रदेश यूनिट किसी भी कीमत पर मुख्यमंत्री पद पर उनकी मौजूदगी नहीं चाहता है. ऐसे में बीजेपी नीतीश कुमार को NDA का कन्वेनर बना सकती है जैसे जार्ज फर्नांडिस हुआ करते थे, लेकिन उस समय के NDA में 17 पार्टियां थीं. इस समय गिने चुने ही दल हैं.
नीतीश के पास तीसरा ऑप्शन यह है…
तीसरा ऑप्शन ये है कि नीतीश कुमार लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव कराने के लिए बीजेपी को राजी कर लें. बीजेपी इसके लिए कहीं न कहीं तैयार हो सकती है. मगर, मुख्यमंत्री के तौर पर फिर नीतीश कुमार को स्वीकार करना बीजेपी के राज्य यूनिट को अच्छा न लगे. बीजेपी के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार मोदी कहते है उन्हें हम जीवनदान क्यों दे?
मगर, सोचने की बात है कि केंद्रीय नेतृत्व के लिए अभी सबसे बड़ी प्रमुखता लोकसभा का चुनाव है. वैसे भी बीजेपी 2029 में वन नेशन वन इलेक्शन लागू करना चाहती है, तो ये इस बार से ही बिहार में लागू हो जाए. नीतीश कुमार इसके पहले से ही हिमायती रहे हैं. हालांकि, उनके विधायक इसके लिए कितने तैयार होंगे ये देखना होगा.
नीतीश के लिए आरजेडी के साथ रहना भी मुश्किल
चर्चा ये भी है कि आरजेडी के साथ गठबंधन में रहना भी उनके लिए मुश्किल हो गया है. तभी तो कभी जेडीयू में रहे और अब राष्ट्रीय लोक जनता दल अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा कहते हैं कि आरजेडी में जाना आत्मघाती कदम था. उनके बीजेपी में आने को लेकर मैं पैरवी भी कर दूंगा. वर्तमान में जो स्थिति है, उसमें सबसे ज्यादा जो परेशानी है वो है तेजस्वी यादव को सत्ता सौपने का दबाव. और अब तो पार्टी में टूट की सुगबुगाहट ने तो उनकी परेशानी को और बढ़ा दिया होगा. ऐसे में पार्टी को इंटेक्ट रखना उनके लिए अभी की सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है.