
त्रिपुरा में विधानसभा चुनाव की सियासी जंग फतह करने को लेकर बीजेपी-आईपीएफटी और सीपीएम-कांग्रेस गठबंधन के बीच शह-मात का खेल शुरू हो गया है. दोनों ही गठबंधन के मंसूबे पर टिपरा मोथा पार्टी पानी फेर सकता है. टिपरा मेथा के प्रमुख प्रद्योत देबबर्मा अकेले चुनावी मैदान में उतरने का ऐलान कर रखे हैं, लेकिन बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही उन्हें अपने पाले में लाने का कवायद कर रही है. इसके पीछे प्रद्योत की अपनी सियासी पकड़ है, जो त्रिपुरा चुनाव में किसी भी दल का खेल बिगाड़ने और बनाने की ताकत रखते हैं?
बीजेपी नेता और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा और प्रद्योत देबबर्मा की मुलाकात दिल्ली में हुई है. दोनों नेताओं के बीच मुलाकात को त्रिपुरा विधानसभा चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है. हालांकि, प्रद्योत देबबर्मा ने कहा कि उन्होंने अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है कि वह अलग राज्य की अपनी मांग से पीछे नहीं हटेंगे. जब तक हमें लिखित में नहीं दिया जाता कि हमारी मांग मान ली जाएगी, हम किसी के साथ गठबंधन नहीं करेंगे. हम सिर्फ किसी पद या गठबंधन के लिए अपनी मूल मांग को लेकर किसी तरह की बातचीत नहीं करेंगे.
प्रद्योत देबबर्मा की सियासी ताकत
पूर्व शाही परिवार के वंशज प्रद्योत देबबर्मा की अगुवाई वाली टिपरा मोथा के रूप त्रिपुरा में बड़ी क्षेत्रीय राजनीतिक ताकत के तौर पर उभरी है. टिपरा मोथा ने अप्रैल 2021 में हुए त्रिपुरा आदिवासी क्षेत्र स्वशासी जिला परिषद के चुनाव में बीजेपी और आईपीएफटी गठबंधन को सीधे चुनौती देते हुए 28 में से 18 सीटों पर जीत दर्ज की थी. आदिवासी समुदाय के बीच प्रद्योत की गहरी पैठ है, क्योंकि आदिवासी समुदाय के अलग राज्य की मांग कर रहे हैं.
त्रिपुरा में 32 फीसदी आदिवासी समुदाय की आबादी है. राज्य की कुल 60 में से 20 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए रिजर्व है जबकि बाकी बचे 40 सीटों में से कई पर आदिवासियों की संख्या अच्छी खासी है. 2018 के चुनाव में आदिवासी समुदाय का समर्थन बीजेपी-IPFT गठबंधन को मिला था. इस गठबंधन को एसटी के लिए आरक्षित सभी 20 सीटों पर जीत मिली थी.
ग्रेटर टिपरालैंड के नाम से एक अलग राज्य की मांग उठाकर टिपरा मोथा के प्रमुख प्रद्योत देबबर्मा त्रिपुरा के आदिवासियों के बीच दो-तीन सालों में काफी लोकप्रिय हो गई है. आदिवासी समाज के बीच उनकी सियासी पकड़ को देखते हुए बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही गठबंधन उनके साथ हाथ मिलाने को तैयार है, लेकिन प्रद्योत ने अलग राज्य की शर्त रखकर दोनों को कशमकश में डाल दिया है.
त्रिपुरा की सत्ता को बीजेपी से छीनने के लिए सीपीएम-कांग्रेस ने आपस में हाथ मिला लिया है और अब आदिवासियों के बीच अपनी पैठ बढ़ाने के लिए टिपरा मोथा के साथ गठबंधन करना चाहती है, लेकिन बीजेपी भी उन्हें अपने खेमे में लेने के लिए जुट गई है. लेफ्ट और कांग्रेस 2018 में अलग-अलग चुनाव लड़कर सियासी हश्र देख चुकी हैं, लेकिन बीजेपी के मुकाबले में इन दोनों के वोट मिला देंते हैं तो काफी ज्यादा हो रहा है. इसीलिए कांग्रेस और लेफ्ट ने गठबंधन कर चुनाव लड़ रही हैं, पर बिना प्रद्योत को लिए हुए आदिवासी वोटों को जोड़ने की चुनौती है?
2018 के चुनाव से पहले के दशकों तक त्रिपुरा की सियासत लेफ्ट और कांग्रेस के बीच सिमटी रही, लेकिन पांच साल बीजेपी ने ने 25 साल से सत्ता पर काबिज वामपंथी सरकार को बेदखल कर दिया था. बीजेपी-IPFT मिलकर चुनाव लड़ी थी. बीजेपी को 36 और IPFT को 8 सीटों पर जीत मिली. बीजेपी गठबंधन के खाते में 60 में से 44 सीटें मिली थी. वहीं,दूसरी तरफ लेफ्ट 16 सीटों पर सिमट गई और कांग्रेस खाता भी नहीं खोल सकी थी. हालांकि, कांग्रेस-लेफ्ट को 50 फीसदी के करीब वोट मिले थे, जिनके साथ आने से बीजेपी के लिए चिंता बढ़ गई है.
कांग्रेस के लिए अस्तित्व बचाने का संकट है तो लेफ्ट को सत्ता में वापसी की चिंता. इसीलिए दोनों साथ आए और अब टिपरा मोथा के साथ हाथ मिलाने के लिए बेताब हैं तो बीजेपी हर हाल में अपनी सत्ता को बचाए रखना चाहती है. ऐसे में पांच साल पहले मिले आदिवासी समुदाय के समर्थन के लिए IPFT के भरोस रहना उसे महंगा पड़ सकते हैं, क्योंकि आदिवासी बेल्ट में जिला परिषद के चुनाव में अपना सियासी हश्र देख चुकी है. ऐसे में चुनावी ऐलान के साथ ही नॉर्थ-ईस्ट डिमोक्रेटिक अलायंस के चेयरमैन और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा किसी भी सूरत में प्रद्योत देबबर्मा के साथ गठबंधन करने की कोशिश तेज कर दी है.