
कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक...
संसद के विशेष सत्र में पेश किए गए महिला आरक्षण विधेयक 2023 को गेम-चेंजर के बजाय एक तरह की लापरवाही के तौर पर देखा जा रहा है. जटिल जनगणना और परिसीमन प्रैक्टिस जैसे पहलुओं में फंसा यह महिला आरक्षण विधेयक 2029 के संसदीय चुनाव से पहले लागू नहीं हो पाएगा.
महिला आरक्षण विधेयक में 'कोटे के भीतर कोटा' को स्वीकार करना भी एक रिग्रेसिव स्टेप है और इसे राजनीतिक निहित साधने के रूप में देखा जा सकता है. 'कोटा के भीतर कोटा' में अन्य पिछड़े वर्गों को बाहर करने से विधेयक का एक नया विरोध शुरू होने वाला है, जो अंततः पार्टी और वैचारिक जुड़ाव से परे होगा.
'तो 1990 में ही पास हो जाता महिला आरक्षण बिल?'
इसके अलावा, अगर बीजेपी, कांग्रेस और वाम दलों ने महिला आरक्षण विधेयक में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग कोटे की मांग स्वीकार कर ली होती तो महिलाओं के लिए लोकसभा और विधानसभा की एक तिहाई सीटें रिजर्व करने का रास्ता 1990 के दशक में ही साफ हो गया होता. 2010 में गठबंधन का नेतृत्व कर रही कांग्रेस ने राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक को मंजूरी दे दी थी, लेकिन मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव के कड़े विरोध के कारण मनमोहन सिंह सरकार इसे आगे नहीं बढ़ा सकी. यहां तक कि तृणमूल कांग्रेस भी अनुपस्थित रही.
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'सहयोगियों के कदम से हैरान हो गईं थीं सोनिया गांधी'
सहयोगियों के इस कदम से यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी भी आश्चर्यचकित और चिंतित देखी गई थीं. तब सपा, राजद, जद (यू) ने अंतर्विरोध को लेकर विधेयक का विरोध किया था, इस आधार पर कि इस तरह के पूर्ण आरक्षण से ऊंची जाति के उम्मीदवारों को फायदा होगा. अपने तेज दिमाग के लिए जाने जाते लालू प्रसाद यादव ने 2010 में इस बिल को 'एक प्याज जैसा' बताया था. यानी एक बार जब सांसद इसे छील लेंगे तो उनकी आंखों में आंसू आ जाएंगे.
'अब तक मुश्किल से 20 मुस्लिम महिलाएं चुनकर लोकसभा पहुंचीं'
भारतीय संसद में निर्वाचित प्रतिनिधियों पर एक सरसरी नजर डालने से एक चौंकाने वाली बात सामने आती है, लेकिन काफी हद तक इसे छुपाया गया है. 1951 के बाद से लगभग 7500 सांसदों में से अब तक मुश्किल से 20 मुस्लिम महिलाएं लोकसभा में पहुंची हैं. मई 2019 में गठित 17वीं लोकसभा तक पांच बार संसद के निचले सदन में कोई मुस्लिम महिला सदस्य नहीं थी. उतना ही चौंकाने वाला फैक्ट यह है कि संसद (543 सीटें) के लिए चुनी गईं मुस्लिम महिलाओं की संख्या निचले सदन में कभी भी चार के आंकड़े को पार नहीं कर पाई.
महिला लोकसभा सांसदों की सूची में सजदा अहमद, ममताज संघमिता, नुसरत जहां, मासूम नूर, नूर बेगम, कैसर जहां, तब्बसुम बेगम, बेगम आबिदा अहमद, बेगम अकबर जहां, महबूबा मुफ्ती, रुबाब सैयदा, मोफिदा अहमद, मैमुना सुल्तान, चावड़ा जोहराबेन अकरबाई, मोहसिना किदवई और रानी नाराह का नाम शामिल है. सिर्फ मोहसिना किदवई ना केवल निर्वाचित प्रतिनिधि के रूप में कार्यकाल के मामले में बल्कि इंदिरा और राजीव गांधी कैबिनेट में उच्च पदों पर रहने के मामले में अद्वितीय स्थान रखती हैं. वर्तमान में निवर्तमान लोकसभा के 543 सदस्यों में से सिर्फ चार यानी 0.7% सदस्य मुस्लिम महिलाएं हैं, जो एक अनुमान के अनुसार, सामान्य आबादी का 6.9% हैं.
'एनडीए में राजनीतिक स्वीकार्यता भी आसान काम नहीं'
बताते चलें कि भारत, नेशनल पार्लियामेंट में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के प्रतिशत के आधार पर 193 देशों की सूची में 148वें स्थान पर है. ऐसे में यह कहना कि महिला आरक्षण 2023 जेंडर के आधार पर वोटर्स को आकर्षित करता है, इसके लिए गहन एनालिसिस की जरूरत है. यह मानते हुए कि 2029 में नई या अतिरिक्त 180 लोकसभा सीटें जोड़ी जाएंगी, जातिगत फैक्टर्स पर जोर के संबंध में एनडीए के भीतर राजनीतिक स्वीकार्यता एक आसान काम नहीं होगा. यह याद किया जा सकता है कि 1951-52 और 1957 के चुनावों के दौरान अनुसूचित जाति और जनजाति के सांसद भी चुने गए थे. यह 2024 में मोदी सरकार के लिए अतिरिक्त सीटों के एक पहलू के तौर पर देखा जा रहा है. हालांकि इसमें कई कानूनी बाधाएं और चुनौतियां भी आ सकती हैं.
'महिला के नाम पर पति संभाल रहे काम?'
दूसरे स्तर पर देखा जाए तो जेंडर आधार पर 2029 में एनडीए के पक्ष में भी मतदान हो सकता है और नहीं भी... क्योंकि ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, एमके स्टालिन, नवीन पटनायक और अरविंद केजरीवाल जैसे कई विपक्षी नेता हैं जो महिला मतदाताओं के बीच जबरदस्त पैठ बनाने के लिए जाने जाते हैं. पंचायती राज के अनुभव को देखा जाए तो पिछले तीन दशक से ज्यादा समय से महिला निर्वाचित प्रतिनिधि जमीनी स्तर पर एक्टिव हैं. लेकिन भ्रष्टाचार, हिंसा या अपराध की संस्कृति में जरा-भी कम नहीं आई है. पंचायतों में महिला कोटा लागू करने वाले पहले कुछ राज्यों में से एक नाम मध्य प्रदेश का है. ये राज्य महिलाओं के खिलाफ अपराधों में शीर्ष पर बना हुआ है. कई महिला सरपंच अपने पतियों के लिए प्रॉक्सी के रूप में कार्य करती हैं जबकि पुरुष पति या पत्नी को 'सरपंच पति' कहा जाता है.
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कुछ महिला कार्यकर्ता कोटा प्रणाली को 'उन महिलाओं' के लिए अपमानजनक मानती हैं जो एंट्री लेवल पर समान अवसर की मांग किए बिना शिक्षा, मीडिया, चिकित्सा, सूचना प्रौद्योगिकी और अन्य कई क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर आगे आई हैं. लेकिन फिर, यह एक व्यापक बहस का विषय है.