
आशीष, अनुज, सलमान, शिव्यांक....ऐसे हजारों लाखों नाम जो आज यशिका, अनुजा, सलमा या सोनल हैं. ये फिमेल नाम उन्हें मम्मी-पापा ने पुचकार कर नहीं दिया. इसके उलट उनके भीतर छुपी इस लड़की, औरत, नारी ने उनसे बहुत कुछ छीना है. अपनों का प्यार और अपनापन से लेकर एक सम्मानपूर्ण जिंदगी तक बहुत कुछ दांव पर लगा है. ये नाम उन्हें अपने भीतर और बाहर बरसों चली जंग के बाद मिले हैं. आज महिला दिवस पर ट्रांस वीमेन की दुनिया का ऐसा ही पहलू आपके सामने रख रहे हैं जिसे आपको जरूर समझना चाहिए. ताकि इन औरतों को भी समझा जा सके. आइए उनकी कहानी उन्हीं की जुबानी जानते हैं...
...और मैं सलमान से सलमा बन गई!
मैं लड़के के रूप में वाराणसी में पैदा हुई लेकिन मेरे हावभाव, शरीर की लोच, सोचने का ढंग सब लड़कियों जैसा था. बचपन से आसपास के लोगों से 'छक्का' शब्द सुनकर मन ने मान लिया था कि मेरा नाम ही छक्का है. वैसे मेरा नाम सलमान था. घर में सौतेली मां थी जिसके कोई बच्चे नहीं थे, लेकिन वो लड़के के शरीर में लड़की होना बर्दाश्त नहीं करती थी. ठीक ऐसी ही हालत अब्बू की हो गई थी. 13 साल का होते होते वो मुझे नानी के दरवाजे पर इलाहाबाद में छोड़कर चले आए. वहां नानी के यहां खाना-पानी मिलने लगा लेकिन आसपास के लोग मुझे 'मेहरा'बोलने लगे. मेहरा शब्द जनाना शब्द का स्थानीय शब्द है. उम्र बढ़ रही थी पर दिल कमजोर हो रहा था. अब दिल में ताने बहुत तेज चुभते थे. एक दिन वहां से वापस वाराणसी आई तो ये सोचकर ही आई कि अब गंगा में डूबकर जान दे दूंगी. लेकिन उस दिन मेरी एक दोस्त मिल गई, वो मुझे समझती थी. उसने कहा कि तुम परेशान न हो, मेरे साथ चलो. उसने खाना-पीना खिलवाया और फिर मेरी एक घर में झाड़ू पोछे की नौकरी लगा दी. जीवन बहुत कठिन था, उस पर मेरे भीतर की पहचान मुझे परेशान किए रहती थी. वहां कुछ महीने काम किया और फिर लगा कि शायद मैं किन्नर समुदाय में जाऊं तो वहां फिट हो जाऊंगी, लेकिन वहां भी मुझे नाचना गाना नहीं आता था तो बहुत मुश्किलें हुईं. लेकिन वो पहली बार था जब मैंने पुरुष का चोला उतार फेंका और औरत बनकर रहना शुरू कर दिया. धीरे-धीरे मैंने खुद को समझा और एक एलजीबीटीक्यू के लिए काम करने वाले एनजीओ से जुड़ गई. फिर कमाकर औरत के तौर पर खुद की पहचान बनाई. आज मैं अपनी पहचान पर गर्व करती हूं, जिसे पाने के लिए मैंने सालों साल ताने और फिकरे सुने. भविष्य में मैं राजनीति में हाथ आजमाना चाहती हूं.
मैंने अपना नाम नहीं बदला, लेकिन मैं औरत हूं
अनुज पांडेय, कानपुर
मेरी कहानी दर्द की एक अंतहीन दास्तां से कम नहीं है. शहर से सटे एक गांव के ब्राह्मण परिवार में इकलौते बेटा बनकर मेरा जन्म हुआ. मेरी मां मुझ पर जान लुटाती थीं. पिता शराब के आदी थे तो पूरा घर मां की मेहनत से ही चलता था. वो पशु पालन करती थीं और दूध बेचकर मुझे बहुत अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाया था. लेकिन 12 साल की उम्र से ही मुझे अपनी बॉडी को लेकर असहजता महसूस होने लगी थी. मुझे इस कदर जेंडर डिस्फोरिया था कि कई कई रातें मेरी इस सोच में निकलने लगीं कि मैं आखिर हूं कौन, मैं लडका हूं तो फिर मैं लड़कियों की तरह हरकतें क्यों करती हूं. अगर लड़की हूं तो मेरा शरीर लड़कों जैसा क्यों है. आखिर ये मेरे साथ हुआ क्या है. अब तो मेरे चलने फिरने के अंदाज पर गांव में सभी लोग टोकते थे कि ये ऐसे मटककर क्यों चलता है. इसके हाथ-पांव चलाने का ढंग और इसकी आवाज लड़कियों की तरह है. वो इतने खराब अंदाज में ये सब बातें करते थे कि मेरा कलेजा चिर जाता था. फिर 13-14 साल की उम्र में एक दिन मैं अपनी मां और उनकी चार बहनों (मौसी) के साथ बाराबंकी जा रही थी. वहां रास्ते में एक दुघर्टना में मेरी मां समेत चारों मौसियों की मौत हो गई. गाड़ी मेरे पेट से होकर गुजरी थी, लेकिन मैं जिंदा बच गई. मेरा एक साल इलाज चला और मैं वापस अपने घर आ गई. यहां आकर मां का काम संभाला और फिर एक काउंसलर के पास गई जिसकी फीस 2000 रुपये थी. उस काउंसलर ने मुझे समझने के बजाय ऐसी बातें कहीं कि मैं अंदर तक टूट गई. उसने मुझे मेल हार्मोन लेने का कहा. लेकिन उसी दौरान मैंने एक फोन खरीदा था. मैंने फोन में अपने बारे में सर्च करना शुरू किया तो पता चला कि मैं एक ट्रांस पर्सन हूं. मैं पुरुष शरीर में जकड़ी औरत हूं. बस यहीं से मेरी जर्नी शुरू हुई. मैं गांव से शहर आई और अपनी पहचान के लिए काम करना शुरू किया. इस पूरी यात्रा में कई बार मेरे साथ हिंसा और शारीरिक-मानसिक उत्पीड़न हुआ. आज भी मैं छोटे शहर में रह रही हूं, लेकिन औरतों की तरह गेटअप नहीं ले पाती. समाज का डर मेरे अंदर इस कदर बैठा है कि अभी भी उससे पूरी तरह नहीं निकल पाई हूं. बस अब यह है कि मेरे क्लोज सर्कल और आसपास के लोगों को इस बारे में पता है कि मैं एक ट्रांस वुमन हूं. मैंने कानपुर क्वीर नाम से एक संस्था बनाई है जिसमें अबतक करीब 3000 लोग जुड़ चुके हैं.
अब मुझे जेएनयू में पढ़कर लेडी प्रोफेसर बनना है
साड़ी में लिपटे मेरे शरीर को देखकर कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकता कि मैं ट्रांस वुमन हूं. आज मेरी पहचान आशीष से बदलकर यशिका हो चुकी है. गांव में जब पहली बार साड़ी पहनकर पहुंची तो लोगों ने अफवाह उड़ा दी कि मेरे भीतर कोई चुड़ैल है. आज भी मेरे भीतर की लड़की को वो न पहचानते हैं न जानना चाहते हैं. मेरा जन्म वेस्ट यूपी के एक गांव में हुआ. मैं तीन बहनों के बाद बड़ी मन्नतों के बाद लड़का बनकर पैदा हुई थी. सोचिए मां-बाप के लिए ये कितनी दुखद बात होगी कि एक लड़का पैदा हुआ और वो भी लड़की है. लड़की की पहचान के लिए मुझे छोटी उम्र में ही अपना घर परिवार छोड़ना पड़ा, लेकिन जो चीज मैंने कभी नहीं छोडी, वो है पढ़ाई. 14 साल की उम्र में मां-बाप ने मुझे घर से भगाया तो मैं अपने जैसे लोगों के बीच नोएडा में आ गई. यहां आकर छोटे मोटे काम करने लगी. फिर धीरे-धीरे मुझे अपनी पहचान को एक्सेप्ट करना आ गया. जब पहली बार साड़ी पहनी तो ऐसा लगा कि मुझसे खूबसूरत औरत कौन होगी भला. मैं खुद को कंपलीट महसूस कर रही थी. ऐसा लग रहा था कि दुनिया भर को बता दूं कि मैं लड़की हूं. मेरे भीतर की लड़की को एक पहचान और संपूर्ण बनाने के लिए सर्जरी की जरूरत थी तो मैंने उसके लिए बहुत मेहनत की. अभी आगे भी मेरी कई सर्जरीज बाकी हैं. मेरे भीतर की औरत ही है जो मुझे मेरी मां से प्यार करना सिखाती है. मैं औरत होकर अब औरतों के दर्द ज्यादा समझ पाती हूं. सामान्य औरतों को तो समाज में संघर्ष करना ही पड़ता है, लेकिन ट्रांस औरतों के लिए ये संघर्ष और बढ़ जाते हैं.
आज मैं एक पत्नी हूं, बेटी हूं और अब मां बनने की ख्वाहिश जारी है
मैं हूं सोनाली शर्मा, जिसने अपने भीतर कुछ दिन रही आत्मा का पिंडदान कर दिया है. मैं जिस रूप में जन्मी आज उसके बारे में बात भी नहीं करना चाहती. यहां तक कि मैं वो सब भूल जाना चाहती हूं. मैं आज एक औरत हूं, एक पत्नी हूं और अब भविष्य में मैं और मेरा पति बच्चा गोद लेकर पेरेंट्स बनना चाहते हैं. मैं महाराष्ट्र के नागपुर के एक घर में बेटे के रूप में पैदा हुई थी. मेरी ऊपरी पहचान का नाम शिव्यांक रखा गया था. मुझे छह-सात साल की उम्र में पता लगने लगा था कि मैं लड़की हूं. छोटी उम्र में ये भावनना मुझ में बहुत बेचैनी पैदा कर रही थी.मां जब प्यार करतीं तो लगता कि काश ये मुझे बेटी मानें. लड़कियों की ड्रेसेज पहनाएं. मुझसे कोई पूछता कि बड़ी होकर तुम क्या बनोगी. तो मैं झट से जवाब देती कि 'मैं मां बनूंगी'. नौवीं क्लास तक पहुंचते पहुंचते लड़कों के साथ बैठना मुश्किल हो गया था. मेरे साथ वहां बहुत बुलिंग होती थी. मुझे गंदी तरह छेड़ना, बाथरूम में धक्का देना, बुलिंग करना ये सब हम सभी ट्रांस जेंडर के लोग सहते हैं. मैंने अपना शहर और घर छोड़ दिया और दिल्ली आ गई. यहां होटल इंडस्ट्री में काम किया.फिर ब्यूटी इंडस्ट्री में आई और अभी तीन साल पहले मैं सर्जरी कराकर पूरी तरह औरत बन गई हूं. वजाइनल ट्रांसप्लांट के बाद मैं पूरी तरह स्ट्रेट औरत हूं. एक साल पहले मुझे सोशल मीडिया में मिले एक लड़के ने शादी के लिए प्रपोज किया था. अब हमने परिवार के मान जाने के बाद शादी कर ली है. आज सर्जरी में हुए असहनीय दर्द, समाज से मिली मानसिक पीड़ा सब मुझे औरत की पहचान और प्रेम मिलने के बाद जैसे छूमंतर हो गए हैं.