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बगावत का 'बिहार मॉडल', जिसने उद्धव ठाकरे और शरद पवार की जमीन छीन ली

महाराष्ट्र में एनसीपी टूट के मुहाने पर खड़ी है. नाम और निशान की लड़ाई चुनाव आयोग की चौखट पर पहुंच चुकी है. बगावत के 'बिहार मॉडल' ने उद्धव ठाकरे की सियासी जमीन छी ली थी और अब अजित पवार भी इसी मॉडल का इस्तेमाल कर रहे हैं. बगावत का ये बिहार मॉडल क्या है?

पहले शिवसेना, अब एनसीपी में बगावत पहले शिवसेना, अब एनसीपी में बगावत
बिकेश तिवारी
  • नई दिल्ली,
  • 07 जुलाई 2023,
  • अपडेटेड 8:25 AM IST

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में घमासान मचा है. अजित पवार के नेतृत्व में एनसीपी के कुल नौ विधायकों ने एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली सरकार में मंत्री पद की शपथ ले ली. अजित पवार ने शपथग्रहण के बाद ये साफ कहा, ''हम एनसीपी के रूप में ही सरकार में शामिल हुए हैं, किसी गुट के रूप में नहीं. हम आने वाला हर चुनाव एनसीपी के नाम और निशान पर ही लड़ेंगे.'' अजित के बाद एनसीपी के संस्थापक शरद पवार मीडिया के सामने आए और विधायकों के सरकार में शामिल होने के कदम को पार्टी लाइन के खिलाफ बताया. उन्होंने कहा कि ये बगावत है और ऐसा करने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी.

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एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ने सरकार में शामिल होने के कदम को बगावत बताया तो वहीं अजित ने इसे पार्टी का स्टैंड. रिश्ते में चाचा-भतीजा दोनों नेताओं के बयान से ही संकेत मिल गए थे कि एनसीपी भी अब उसी तरह के सियासी बवंडर में फंस गई है जिस तरह पिछले साल शिवसेना. 2 से 6 जुलाई तक, पिछले पांच दिन का घटनाक्रम भी यही बता रहा है. एनसीपी पर कब्जे की जंग अब चुनाव आयोग की चौखट पर पहुंच चुकी है. अजित पवार ने चाचा पवार को राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटाकर एनसीपी की कमान खुद ले ली है.

सियासत का हर चक्रव्यूह भेदने में माहिर माने जाने वाले शरद पवार भतीजे अजित के सियासी व्यूह में फंस गए हैं. सियासी बिसात पर अपनी चाल से माहिर नेताओं को भी चौंका देने वाले पवार अपनों की चाल को कैसे बेअसर करें? रास्ता निकालने के लिए बैठक पर बैठक कर रहे हैं. उन्होंने अब खुद भी ये स्वीकार कर लिया है कि एनसीपी में वैसी ही परिस्थितियां बन गई हैं, जैसी पिछले साल शिवसेना में. शिवसेना में पिछले साल उद्धव ठाकरे के खिलाफ एकनाथ शिंदे ने बगावत कर दी थी. शिंदे की बगावत के बाद उद्धव को पहले सत्ता और फिर पार्टी के नाम-निशान से भी हाथ धोना पड़ा था.

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अजित पवार और शरद पवार (फाइल फोटो)

शरद पवार के सामने अब अपनी ही बनाई पार्टी का नाम और निशान बचाए रखने की चुनौती आ खड़ी हुई है. सियासत और बगावत का इतिहास पुराना है लेकिन बगावत का ये कैसा स्वरूप है, जिसमें बगावत करने वाले ही पार्टी पर भी कब्जा जमा ले रहे? बगावत के साथ ही लड़ाई पार्टी के नाम और निशान पर आ जा रही? पहले शिवसेना में ऐसा ही हुआ और अब एनसीपी में भी वैसी ही परिस्थितियां बन गई हैं. 2022 और 2023 में बगावत की इन दो घटनाओं की पृष्ठभूमि जानने के लिए एक साल और पीछे जाना होगा.

बिहार से आया बगावत का नया मॉडल

सियासत में बगावत के बाद पार्टी पर दावा करने की परंपरा बिहार से शुरू हुई थी. लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के अध्यक्ष रामविलास पासवान ने 2019 में अपनी राजनीतिक विरासत बेटे चिराग पासवान के हाथों में सौंप दी थी. साल 2019 के नवंबर महीने में एलजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई और इसमें चिराग पासवान को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव पारित हुआ. रामविलास ने पार्टी की कमान अपने बेटे जमुई से सांसद चिराग पासवान को सौंप दी. चिराग पासवान ही एलजेपी संसदीय दल के नेता भी थे.

रामविलास के निधन के बाद कुछ समय तक पार्टी में सबकुछ ठीक था. साल 2021 के जून महीने में चाचा पशुपति पारस ने भतीजे चिराग के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक दिया. पशुपति पारस ने चिराग को पहले संसदीय दल के नेता पद से हटाया. पशुपति संसदीय दल में बहुमत के आधार पर एलजेपी संसदीय दल के नेता बन गए और इसके बाद राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाकर चिराग की जगह खुद को राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित कर दिया. पशुपति पारस अपने भाई रामविलास के आदर्शों में आस्था जताते रहे और चिराग के खिलाफ मोर्चा खोले रखा.

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पशुपति पारस और चिराग पासवान (फाइल फोटो)

चाचा के साथ सुलह के लिए चिराग की हर कोशिश नाकाम रही. मामला चुनाव आयोग तक पहुंचा. चिराग पासवान और पशुपति पारस, दोनों ने ही पार्टी के नाम और निशान पर दावा किया. चुनाव आयोग ने पहले पार्टी के नाम और निशान का किसी भी खेमे की ओर से उपयोग किए जाने पर रोक लगा दी. जब चुनाव आयोग का फैसला आया, रामविलास की बनाई लोक जनशक्ति पार्टी का नाम और बंगला निशान पशुपति पारस के पास जा चुके थे. चिराग अपने ही पिता की बनाई पार्टी पर अधिकार की जंग हार चुके थे. चिराग ने बाद में लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) नाम से अलग दल बनाया.

शिंदे ने इसी मॉडल का किया उपयोग

शिवसेना से बगावत के समय एकनाथ शिंदे ने भी बिहार के इसी मॉडल का उपयोग किया. एकनाथ शिंदे ने 20 जून 2022 को महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री और शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक दिया. एकनाथ शिंदे करीब दो दर्जन विधायकों के साथ गुजरात के सूरत पहुंच गए जिसमें शिवसेना के साथ ही अन्य विधायक भी थे. जब शिंदे की नाराजगी की खबर आई, उद्धव कैंप एक्टिव हो गया. शिंदे की गिनती उद्धव के सबसे करीबी नेताओं में होती थी ऐसे में शिवसेना समर्थकों को उम्मीद थी कि उनकी नाराजगी जल्द ही दूर हो जाएगी, वे मान जाएंगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

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एकनाथ शिंदे के साथ विधायकों का कुनबा बढ़ता चला गया. शिंदे समर्थक विधायकों के साथ सूरत से गुवाहाटी पहुंच गए. शिंदे ने मौन साधे रखा और विधायकों की बैठक की तस्वीरें जारी करते रहे. शिंदे कैंप की ओर से बाल ठाकरे के आदर्शों को बचाने की बात की जाती रही. ठीक उसी तरह, जिस तरह से पशुपति पारस करते रहे. बाद में उद्धव को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. इसके बाद शिंदे ने बीजेपी के साथ मिलकर महाराष्ट्र में सरकार बना ली. शिंदे और उनके समर्थक, बगावत की शुरुआत से ही ये कहते रहे कि हम असली शिवसेना हैं.

एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे (फाइल फोटो)

महाराष्ट्र में बीजेपी के साथ सरकार बनाने के बाद भी शिंदे ने कहा कि हम कोई गुट नहीं, शिवसेना हैं. उद्धव को इस बात का मतलब बहुत देर से समझ आया. 20 जून से बगावत शुरू हुई थी और उद्धव गुट ने चुनाव आयोग में कैविएट दाखिल की 11 जुलाई को. शिवसेना के नाम और निशान की जंग में भी एकनाथ शिंदे भारी पड़े. चुनाव आयोग ने बहुमत के आधार पर शिंदे खेमे के पक्ष में फैसला सुनाया. शिवसेना नाम और तीर-धनुष का निशान, दोनों ही एकनाथ शिंदे के पास आ गए. उद्धव अपने पिता की बनाई पार्टी से हाथ धो बैठे. उद्धव ने भी चिराग के ही नक्शेकदम पर चलते हुए नई पार्टी बनाई- शिवसेना (यूबीटी).

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एनसीपी की बगावत का पैटर्न भी यही

साल 2021 में एलजेपी के पशुपति पारस, 2022 में एकनाथ शिंदे के बाद अब साल 2023 में भी एक बगावत हुई है. महीना जून नहीं, जुलाई का है लेकिन इसे हटा दें तो लगभग पूरी स्क्रिप्ट वैसी ही. अजित पवार ने भी विधायक दल की बैठक बुलाई जो वे विपक्ष के नेता के रूप में करते भी रहे हैं. अजित ने विधायक दल की बैठक के बाद सीधा राजभवन कूच कर दिया और डिप्टी सीएम के रूप में शपथ लेने के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस कर पार्टी के नाम और निशान पर भी दावा ठोक दिया. अजित ने चुनाव आयोग में खुद को राष्ट्रीय अध्यक्ष बताने और पार्टी के नाम-निशान पर विधिक तरीके से दावा करने के पहले तक, शरद पवार को ही राष्ट्रीय अध्यक्ष बताया.

प्रफुल्ल पटेल और अजित पवार (फाइल फोटो)

शरद पवार ने जब प्रफुल्ल पटेल को निष्कासित कर दिया. प्रफुल्ल पटेल ने जयंत पटेल को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाने का ऐलान किया. उसके बाद भी प्रेस कॉन्फ्रेंस में अजित ने राष्ट्रीय अध्यक्ष के सवाल पर कहा कि आपको मालूम नहीं है क्या कि शरद पवार एनसीपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं? अजित के साथ शिंदे सरकार में मंत्री बने छगन भुजबल हों या प्रफुल्ल पटेल, शरद पवार पर सीधा हमला करने से हर नेता बचता रहा. अजित ने खुद भी मुंबई में बुलाई गई बैठक के दौरान अपने संबोधन में शरद पवार को अपना भगवान बताया था. उसी तरह, जैसे पशुपति पारस ने रामविलास, शिंदे ने बाल ठाकरे की बात की थी. बिहार के इस बगावत मॉडल ने उद्धव से उनकी सियासी जमीन छीन ली थी. अब एनसीपी के मामले में क्या होगा?

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नाम-निशान पर फैसले की क्या है प्रक्रिया?

किसी भी पार्टी में जब दो गुट बन जाते हैं और दोनों तरफ से पार्टी के नाम और निशान के लिए लड़ाई छिड़ती है तो इस पर फैसले का अधिकार चुनाव आयोग को है. चुनाव आयोग द इलेक्शन सिंबल्स (रिजर्वेशन एंड अलॉटमेंट) ऑर्डर, 1968 के पैरा 15 के तहत फैसला लेता है. चुनाव आयोग हर गुट के विधानमंडल और संसदीय दल के साथ ही संगठन में किसके पास कितना समर्थन है, इसका आकलन करता है. पार्टी की टॉप कमेटियों के साथ ही उस बॉडी में किस गुट के कितने पदाधिकारी और सदस्य हैं, जो निर्णय लेती है. विधानमंडल, संसदीय दल और निर्णय लेने वाली बॉडी में बहुमत के आधार पर चुनाव आयोग ये निर्णय लेता है कि पार्टी का नाम-निशान किसे दिया जाए.

 

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