
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह (kalyan singh) का शनिवार रात निधन हो गया. 89 साल के कल्याण सिंह लंबे वक्त से बीमार थे. कल्याण सिंह ने दुनिया तो छोड़ दी लेकिन राजनीति में उनके नाम को हमेशा याद रखा जाएगा. कल्याण सिंह का जन्म 5 जनवरी 1935 को अलीगढ़ जिले की अतरौली तहसील के मढ़ौली गांव में एक साधारण किसान परिवार में हुआ. वे बचपन में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गये थे. उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने अध्यापक की नौकरी शुरू कर दी.
हालांकि उन्होंने इसके साथ ही राजनीति भी जारी रखी. आगे चलकर 1991 में वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. कल्याण सिंह का जीवन बेहद उठा-पटक वाला रहा. राजनीतिक जानकार बताते हैं कि कल्याण सिंह अपनी कुछ राजनीतिक गलतियों की वजह से बीजेपी के कप्तान बनते-बनते रह गए. अन्यथा वे आज अटल, आडवाणी के श्रेणी के नेता होते.
पूर्व सीएम कल्याण सिंह पर जब भी बात होगी तो उनके जीवन के इन पांच अध्यायों की चर्चा जरूर होगी- बाबरी, वाजपेयी, कुसुम राय, यूपी सीएम और श्रीप्रकाश शुक्ल. सबसे पहले उनके राजनीतिक जीवन के शुरुआत और सीएम बनने की कहानी जानते हैं.
सीएम बनने तक का सफर
कल्याण सिंह साल 1967 में जनसंघ के टिकट पर अतरौली सीट से पहली बार विधानसभा पहुंचे और साल 1980 तक लगातार इसी सीट से जीतते रहे. आगे चलकर जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया और साल 1977 में उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार बनने पर उन्हें राज्य का स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया. हालांकि साल 1980 के विधानसभा चुनाव में कल्याण सिंह को हार का सामना करना पड़ा था.
भारतीय जनता पार्टी का साल 1980 में जब गठन हुआ तो कल्याण सिंह को पार्टी का प्रदेश महामंत्री बनाया गया. अयोध्या आंदोलन के दौरान उन्होंने गिरफ्तारी देने के साथ ही कार्यकर्ताओं में नया जोश भरने का काम किया था. इस आंदोलन के दौरान ही उनकी छवि राम-भक्त की हो गई. वे यूपी ही नहीं पूरे देश में लोकप्रिय हो गए. इसीलिए साल 1991 में जब यूपी में पहली बार बीजेपी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी तो मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को बनाया गया.
बाबरी विध्वंस की कहानी
पूरे देश में तब मण्डल आयोग के समर्थन और विरोध की लहर थी. वहीं दूसरी ओर अयोध्या में राम-जन्मभूमि के लिए आंदोलन चल रहा था. मुलायम सिंह यादव के यूपी के मुख्यमंत्री रहते हुए 30 अक्टूबर, 1990 को अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलाई गई. इस गोलीबारी में कई कारसेवकों की मौत हो गई. बीजेपी ने तब कल्याण सिंह को मुकाबला करने के लिए आगे किया. कल्याण सिंह ने इसे मुद्दा बना दिया. जातिगत समीकरणों से भी पार्टी को फायदा मिला. नतीजा यह हुआ कि कल्याण सिंह 1991 में पूर्ण बहुमत की सरकार बना ली.
कल्याण सिंह जैसे ही मुख्यमंत्री बने, वे अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों के साथ अयोध्या दौरे पर पहुंचे और वहीं पर राम मंदिर निर्माण की शपथ ली. कल्याण सिंह के कार्यकाल में ही वो दिन आया, जब 6 दिसंबर 1992 को कार सेवकों ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहा दी. मस्जिद गिरते ही कल्याण सिंह ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए सीएम पद से इस्तीफा दे दिया.
इस्तीफा देने के बाद मीडिया से बातचीत में कल्याण सिंह ने कहा, 'बाबरी मस्जिद विध्वंस भगवान की मर्जी थी. मुझे इसका कोई अफसोस नहीं है. कोई दुख नहीं है. कोई पछतावा नहीं है. ये सरकार राममंदिर के नाम पर बनी थी और उसका मकसद पूरा हुआ. ऐसे में सरकार राम मंदिर के नाम पर कुर्बान. राम मंदिर के लिए एक क्या सैकड़ों सत्ता को ठोकर मार सकता हूं. केंद्र सरकार कभी भी मुझे गिरफ्तार करवा सकती है, क्योंकि मैं ही हूं, जिसने अपनी पार्टी के बड़े उद्देश्य को पूरा किया है.'
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अटल बिहारी वाजपेयी के साथ तकरार
कल्याण सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी, दोनों ही नेताओं ने आरएसएस से निकलकर जनसंघ से होते हुए बीजेपी का गठन किया और पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में भूमिका अदा की. हालांकि, इसी के साथ कल्याण सिंह और वाजपेयी के बीच राजनीतिक खींचतान और मनमुटाव जैसी खबरें भी आती रहीं. अटल बिहारी वाजपेयी और कल्याण सिंह ने एक ही दौर में सियासत में कदम रखा और एक ही राजनीतिक विचाराधारा के साथ आगे बढ़े. कभी बनिया और ब्राह्मण पार्टी कही जाने वाली बीजेपी को पिछड़ों के बीच मजबूत करने में कल्याण सिंह ने अहम भूमिका अदा की. एक समय में उन्हें वाजपेयी के विकल्प के तौर पर भी देखा जाने लगा था, लेकिन कल्याण सिंह धैर्य से काम नहीं ले सके.
कल्याण सिंह कहा करते थे कि मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल थी, जब मैंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की बात को स्वीकार कर ली. अगर मैं इस्तीफा के लिए तैयार नहीं होता तो अटल बिहारी वाजपेयी मुझे हटा नहीं सकते थे. इसी दर्द में बाद में कल्याण सिंह ने बीजेपी को भी अलविदा कह दिया था. कल्याण सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी के बीच सियासी रस्साकशी की बुनियाद 1997 के समय पड़ी. 1996 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन प्रदेश में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था. इसके चलते यूपी में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया, लेकिन चार महीने के बाद 1997 में बसपा और बीजेपी के बीच सरकार बनाने के लिए 6-6 महीने के मुख्यमंत्री का फॉर्मूला तय हुआ.
अटल बिहारी वाजपेयी 1998 में प्रधानमंत्री बने, लेकिन कल्याण सिंह के साथ पहले जैसे रिश्ते नहीं रहे. 13 महीने बाद अटल की सरकार एक वोट से गिर गई थी. कांशीराम ने वाजपेयी से सदन में समर्थन देने का वादा किया था, लेकिन कल्याण सिंह के प्रकरण के चलते बसपा सदन से वॉकआउट कर गई. इसके बाद जब साल 1999 में मध्यावधि लोकसभा चुनाव हो रहे थे तब कुछ ऐसे बयान सामने आए जिससे दोनों नेताओं के बीच की दूरी का अंदाजा लगाया गया. साल 1999 के लोकसभा चुनाव के दौरान यूपी के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह थे और लखनऊ में प्रेस कॉफ्रेंस में उनसे एक सवाल हुआ था कि आपको पक्का भरोसा है कि अटल बिहारी वाजपेयी दोबारा प्रधानमंत्री बन जाएंगे? इस पर कल्याण सिंह ने कहा था कि मैं भी चाहता हूं कि वे प्रधानमंत्री बनें, लेकिन पीएम बनने के लिए पहले सांसद भी बनाने पड़ते हैं.
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कल्याण सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी को साजिशकर्ता और ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रस्त व्यक्ति तक बता दिया था. इतना ही नहीं, यह भी कहा कि, 'अटल बिहारी को एक पिछड़े वर्ग से आने वाला व्यक्ति मुख्यमंत्री के रूप में सहन नहीं हो रहा था. अटल जी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए राम मंदिर मुद्दे को तिलांजलि दे दी है. वह बीजेपी को खत्म करने को उतारू हैं.'
वाजपेयी के खिलाफ मोर्चा खोलने के चलते कल्याण सिंह को बीजेपी शीर्ष नेतृत्व ने पार्टी से निष्कासित कर कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया. इसके बाद भी कल्याण सिंह ने वाजपेयी के खिलाफ बयानबाजी बंद नहीं की. बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे ने कल्याण सिंह को छह साल के लिए बीजेपी से बाहर कर दिया. इसके बाद कल्याण सिंह ने अपने समर्थकों के साथ मिलकर राष्ट्रीय क्रांति पार्टी का गठन किया. साल 2002 के विधानसभा चुनाव चार सीटें आईं.
इसके बाद मुलायम सिंह की सरकार में शामिल हो गए, लेकिन 2004 में वाजपेयी उन्हें दोबारा से बीजेपी में ले आए. 2007 में बीजेपी ने उन्हें सीएम का चेहरा बनाया, लेकिन अब न तो पहले की तरह उनका सियासी असर रहा है और न ही तेवर. ऐसे में बीजेपी को करारी मात खानी पड़ी. इसके बाद कल्याण सिंह का बीजेपी से मोहभंग हो गया और 2009 में पार्टी छोड़ दी.
बीजेपी छोड़ने के बाद कल्याण सिंह ने सपा के साथ हाथ मिला लिया. मुलायम के समर्थन से कल्याण सिंह तो जीत गए, लेकिन सपा को करारी झेलनी पड़ी. इसके बाद कल्याण सिंह ने दोबारा से अपनी पार्टी को मजबूत किया और 2012 के चुनाव लड़े, लेकिन उन्हें करारी मात खानी पड़ी. इसके बाद 2014 में बीजेपी में वापसी की और कसम खाई कि जिंदगी की आखिरी सांस तक अब बीजेपी का रहूंगा. मोदी सरकार के बनने के बाद उन्हें राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया था.
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कुसुम राय, कल्याण सिंह के खिलाफ बीजेपी नेताओं को कर रही थीं एकजुट
बताया जाता है कि कल्याण सिंह के राजनीतिक ढलान की वजह उन्हीं की पार्टी की एक नेता कुसुम राय थीं जो समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय क्रांति पार्टी की मिलीजुली सरकार में कैबिनेट मंत्री थीं. दरअसल एनडीए के दम पर अटल बिहारी वाजपेयी 10 अक्टूबर 1999 को प्रधानमंत्री बनने में कामयाब रहे. इसी के बाद बीजेपी में कल्याण सिंह को हटाने के लिए मांग उठने लगी. यूपी में वाजपेयी के करीबी नेता खुलकर कल्याण सिंह के खिलाफ एकजुट हो गए. कल्याण सिंह और वाजपेयी के बीच कड़वाहट जगजाहिर हो गई थी. कल्याण सिंह को लग रहा था कि उन्हें पद से हटाने का मोर्चा जिन नेताओं ने खोल रखा है, उन्हें वाजपेयी शह दे रहे हैं.
कल्याण सिंह के खिलाफ बीजेपी नेताओं के एकजुट होने की वजह कुसुम राय भी थीं. लखनऊ से पार्षद रहते हुए कुसुम राय कल्याण सिंह की सरकार में काफी पावरफुल मानी जाती थीं और तमाम सियासी फैसले में दखल दिया करती थीं. इसके चलते पार्टी के तमाम नेता नाराज थे, लेकिन कल्याण सिंह ने किसी की भी परवाह नहीं की. हालात पार्टी में ऐसे हो गए कि कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री से हटाने के लिए बीजेपी के तमाम बड़े नेता एकजुट हो गए. ऐसे में कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री के बदले केंद्र में जाने का ऑफर भी दिया गया.
केंद्रीय नेतृत्व के दखल और दबाव के बाद कल्याण सिंह ने मुख्यमंत्री पद छोड़ने के लिए तैयार हो गए. 12 नवंबर 1999 को उन्होंने इस्तीफा दिया और उनकी जगह रामप्रकाश गुप्त को मुख्यमंत्री बनाया गया. कल्याण सिंह मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी को लेकर बहुत दिनों तक सहज नहीं रह पाए और सार्वजनिक रूप से बयानबाजी शुरू कर दी.
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श्रीप्रकाश शुक्ल ने हत्या की ली थी सुपारी
श्री प्रकाश शुक्ल उस जमाने में यूपी और बिहार में आतंक का पर्याय बन चुका था. कहा जाता है कि उसने तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को मारने की सुपारी ली थी. 25 साल के इस युवा बदमाश से निपटने के लिए एसटीएफ (स्पेशल टॉस्क फोर्स) गठन करना पड़ा था. सितंबर 1998 को एसटीएफ ने इस डॉन को मुठभेड़ में मार गिराया. श्रीप्रकाश के कुख्यात बनने की कहानी 1993 में शुरू हुई थी. पहली बार उसने एक शख्स को बीच बाजार गोली मारी थी. बताया जाता है कि मारे गए शख्स ने श्रीप्रकाश की बहन पर छिंटाकशी की थी. इस कांड के बाद वह बैंकॉक भाग गया. वापस लौटने के बाद वह बिहार के मोकामा पहुंच गया और सूरजभान गैंग को ज्वाइंन कर लिया. यहां से वह कुख्यात माफिया बन गया.
साल 1997 में उसने बाहुबली राजनेता वीरेंद्र शाही को लखनऊ में दिन दहाड़े मौत के घाट उतार दिया था. इसके बाद जून 1998 को पटना स्थित इंदिरा गांधी अस्पताल के बाहर बिहार सरकार के मंत्री बृज बिहारी प्रसाद को उनके सुरक्षाकर्मियों के सामने ही गोलियों से भून दिया था. बताया जाता है श्रीप्रकाश देश का पहला बदमाश था जिसने हत्या के लिए एके-47 राइफल का प्रयोग किया था.