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जातिगत जनगणना के 150 साल... सत्ता में रहते कांग्रेस-बीजेपी ने बनाई दूरी, विपक्ष में रहते खेला दांव, समझें पूरा गेमप्लान

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जातिगत जनगणना और आरक्षण की 50 फीसदी लिमिट को खत्म करने की मांग उठाकर सियासी माहौल गर्म कर दिया है. हालांकि, कांग्रेस जब सत्ता में थी तो इसका विरोध करती रही है. ऐसे ही बीजेपी का भी रुख रहा है. जनगणना के 150 साल के इतिहास में जानें क्या-क्या हुआ.

राहुल गांधी और पीएम मोदी (फाइल फोटो) राहुल गांधी और पीएम मोदी (फाइल फोटो)
कुबूल अहमद
  • नई दिल्ली ,
  • 20 अप्रैल 2023,
  • अपडेटेड 4:48 PM IST

देश की सियासत में एक बार फिर से जातिगत जनगणना का मुद्दा गर्मा गया है. कांग्रेस 2024 लोकसभा चुनाव से पहले जातिगत जनगणना के मुद्दे पर सियासी तानाबाना बुनकर मोदी सरकार और बीजेपी को घेर रही है. कांग्रेस आज भले ही इस मुद्दे को लेकर आक्रमक है, लेकिन यूपीए-2 से पहले तक सत्ता में रहते हुए विरोध करती रही है. इसी तरह बीजेपी सत्ता में रहते हुए आज जातीय जनगणना के लिए रजामंद नहीं है, लेकिन विपक्ष में रहते हुए इसके पक्षधर रही है. अब कांग्रेस और बीजेपी के बीच जाति आधरित जनगणना के मुद्दे पर तलवारें खिंच गई हैं. 

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जनगणना और जातिगत जनगणना क्या है?

देश या किसी क्षेत्र में रहने वाले लोगों की गणना और उनके बारे में विधिवत रूप से सूचना प्राप्त करना जनगणना कहलाती है. भारत में हर 10 साल में एक बार जनगणना की जाती है. भारत में जनगणना की शुरुआत ब्रिटिश शासन के दौरान साल 1872 हुई थी. आजादी के बाद 1951 से 2011 तक सात बार और भारत में कुल 15 बार जनगणना की जा चुकी है. 

जनगणना में अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की गणना की जाती है, लेकिन अन्य दूसरी जातियों की गिनती नहीं होती है. जातिगत जनगणना का अर्थ है भारत की जनसंख्या का जातिवार गणना यानी जनगणना के दौरान जाति आधार पर सभी लोगों की गिनती की जाए. इससे देश में कौन सी जाति के कितने लोग रहते हैं, इसकी जानकारी का आंकड़ा पता चल सकेगा.

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क्या देश में कभी जातीय जनगणना हुई?

हां, देश में जातिगत जनणना हुई है. आजादी से पहले तक जनगणना जाति आधारित ही होती थी. 1872 से लेकर 19931 तक भारत में जितनी भी जनगणना हुई है, उसमें लोगों के साथ सभी जातियों की गणना की जाती रही. साल 1941 में जनगणना के समय जाति आधारित डेटा जुटाया जरूर गया था, लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के चलते उसे प्रकाशित नहीं किया गया. इसके बाद अगली जनगणना से पहले देश आजाद हो चुका था. इस तरह देश में अंतिम जातिगत जनगणना के आंकड़े 1931 के ही मिलते हैं.

देश में क्यों रुकी जाति जनगणना?

आजादी के साथ ही देश दो हिस्सो में धार्मिक आधार पर बंट चुका था. ऐसे में सामाजिक तौर देश में किसी का बंटवारा न हो सके, इसके लिए अंग्रेजों की जनगणना नीति में बदलाव कर दिया और 1950 में संविधान लागू होने के बाद पहली बार 1951 में हुई जनगणना में सिर्फ अल्पसंख्यक, एससी-एसटी के लोगों की गिनती की गई. जातियों की गिनती की मांग को कांग्रेस ने उस समय ब्रिटिश सरकार का समाज तोड़ने का षडयंत्र करार देते हुए ठुकरा दिया था.

नेहरू और इंदिरा का स्टैंड 

जाति जनगणना पर संसद में पहली अनौपचारिक चर्चा 1951 में हुई. इस चर्चा में पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, डॉ. भीमराव आंबेडकर, डॉ. अबुल कलाम आजाद ने विरोध किया था. ऐसे में 1951 की जनगणना में जातियों की गिनती नहीं हो सकी. इसके बाद पिछड़े वर्ग के आरक्षण की मांग उठी तो नेहरू ने 1953 में काका कालेलकर आयोग बनाया. कालेलकर आयोग ने 1931 की जनगणना को आधार मानकर पिछड़े वर्ग का हिसाब लगाया. जनगणना पर नेहरू के बाद इंदिरा गांधी ने भी पुराना रुख अपनाया.

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मंडल कमीशन का गठन

हालांकि, 1978 में मोरारजी देसाई की अगुवाई वाली जनता पार्टी सरकार ने बीपी मंडल की अध्यक्षता में एक पिछड़ा आयोग बनाया. साल 1980 के दिसंबर तक जब मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी, तब तक जनता पार्टी सत्ता से जा चुकी थी. इंदिरा गांधी ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया. इंदिरा सरकार के दौरान 1981 में बीपी मंडल की जातिगत जनगणना की मांग को तत्कालीन गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने खारिज कर दी थी. 

राजीव गांधी के कार्यकाल में जनगणना हो ही नहीं सकी. साल 1991 और 2001 और 2011 में जनगणना हुई है, लेकिन यह जातीय जनगणना नहीं थी. हालांकि, 2011 की जनगणना के साथ सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण जरूर किया गया, लेकिन उसे पेश नहीं किया गया. इस तरह से जनगणना में जुटाए आंकड़े जस के तस पड़े हैं, जिसे कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी अब प्रधानमंत्री मोदी से रिपोर्ट के सार्वजनिक करने की मांग कर रहे हैं. 

मंडल कमीशन से बदली सियासत

हालांकि, साल 1990 में केंद्र की तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसे आमतौर पर मंडल आयोग के रूप में जाना जाता है, उसकी सिफरिशों को लागू किया था. इसके चलते अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को शिक्षण संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में सभी स्तर पर 27 फीसदी आरक्षण मिलने लगा. 

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वीपी सिंह के इस फैसले के बाद बवाल हुआ, मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया. इसके बाद बारी थी साल 1992 में दिए गए इंद्रा साहनी के ऐतिहासिक फैसले की, जिसमें ओबीसी के आरक्षण को सही माना गया, लेकिन अधिकतम लिमिट 50 फीसदी तय कर दी गई. मंडल कमीशन के लागू होने से भारत, खासकर उत्तर भारत की राजनीति को बदल कर रख दिया.

वहीं, साल 2006 में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अंर्जुन सिंह ने मंडल आयोग की एक दूसरी सिफारिश को लागू कर दिया था, जिसमें सरकारी नौकरियों की तरह सरकारी शिक्षण संस्थानों, जैसे यूनिवर्सिटी, आईआईटी, आईआईएम, मेडिकल कॉलेज में भी पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिए जाने पर मुहर लग गई. भारत में ओबीसी आबादी कितनी प्रतिशत है, इसका कोई ठोस प्रमाण फिलहाल नहीं है. ओबीसी अपने आरक्षण के दायरे को बढ़ाने की मांग कर रहा है. इसीलिए जातिगत जनगणना की मांग पिछड़ा वर्ग समुदाय से ही उठ रही है और ओबीसी के बीच आधार रखने वाले दल मांग कर रहे हैं.

कांग्रेस क्यों तुरुप का पत्ता मान रही?

मंडल कमीशन के बाद सियासी तौर पर सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस को हुआ है. कांग्रेस का राजनीतिक ग्राफ इसके बाद से डाउन होना शुरू हुआ और पार्टी अभी तक उबर नहीं सकी. कांग्रेस की सियासी जमीन पर पहले जाति आधरित क्षेत्रीय दलों ने कब्जा जमाया तो उसके बाद जो बचा खुचा सियासी आधार था, उसे बीजेपी ने अपने नाम कर लिया. ऐसे में कांग्रेस जातिगत जनगणना की मांग कर अपनी खोई भी सियासी जमीन को दोबारा से हासिल करने की कवायद में है. 

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कांग्रेस का वोटबैंक खिसक चुका

कांग्रेस का परंपरागत वोटबैंक सवर्ण-दलित-मुस्लिम माने जाते थे. सवर्ण मतदाता कांग्रेस से छिटकर बीजेपी के साथ चले गए हैं तो मुस्लिम मतदाता भी अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पार्टियों के साथ खड़े हैं. दलित-ओबीसी मतदाता भी खिसकर क्षेत्रीय दलों और बीजेपी खेमे हैं. इस तरह से कांग्रेस के पास अपना कोई समर्पित वोटबैंक नहीं रह गया. इसी कारण कांग्रेस आज अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. ऐसे में अब कांग्रेस खुद को बदलने की दिशा में कदम बढ़ा चुकी है ताकि ओबीसी के बीच अपनी जड़ें जमा सके. 

हालांकि, कांग्रेस के तीन मुख्यमंत्रियों में से दो ओबीसी समुदाय से हैं. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और छत्तीसगढ़ के भूपेश बघेल ओबीसी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, लेकिन सवर्ण वोटों के छिटक जाने के नुकसान के डर से पार्टी उनके ओबीसी कार्ड का राजनीतिक इस्तेमाल नहीं कर पा रही है. लेकिन, अब पार्टी खुलकर ओबीसी की सियासत करने के लिए पूरे मूड में नजर आ रही है.

उदयपुर-रायपुर से निकला मंत्र

कांग्रेस ने पिछ्ले साल उदयपुर चिंतन शिविर में ही जातिगत जनगणना का समर्थन करने का प्रस्ताव पास किया था. कांग्रेस ने 2011 के जनगणना की सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों को सार्वजनिक करने प्रस्ताव रखा. वहीं, कांग्रेस ने रायपुर अधिवेशन में पार्टी संविधान को बदला. कांग्रेस ने पार्टी संगठन के सभी पदों पर अनूसूचित जाति, आदिवासी, अल्पसंख्यकों और पिछड़ों के लिए 50 फीसदी आरक्षण लागू किया. कांग्रेस ने पहले संगठन में ओबीसी और दलितों को भागेदारी देने का फैसला किया और अब राहुल गांधी ने कर्नाटक की रैली में जातीय जनगणना की मांग को उठाते हुए आरक्षण की अधिकतम 50 फीसदी लिमिट को खत्म करने की मांग की है. 'जितनी आबादी, उतना हक' का नारा दिया है. 

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कांग्रेस क्यों जातिगत जनगणना पर लौटी?

कांग्रेस जातिगत जनगणना की मांग यूं ही नहीं लौटी है बल्कि पार्टी की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है. देश में सर्वाधिक आबादी ओबीसी समुदाय की है. मंडल कमीशन के बाद देश की सियासत ओबीसी के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है, जिसमें कांग्रेस कहीं नहीं है. है. वहीं, पीएम मोदी खुद ओबीसी से हैं और ओबीसी वोटरों का रुझान बीजेपी की तरफ दिखा है. ऐसे में कांग्रेस जातिगत जनगणना की मांग कर ओबीसी वोटों में सेंधमारी की कोशिश मानी जा रही. इतना ही नहीं, जातिगत जनगणना की मांग करने वाले ज्यादातर विपक्षी दल है, जिनके साथ सुर में सुर मिलाकर विपक्षी एकता भी मजबूत करने की रणनीति मानी जा रही है. 

दलितों को साधेंगे मल्लिकार्जुन खड़गे 

कांग्रेस के कोर वोटबैंक रहे दलित समुदाय को साधे रखने के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे को पार्टी की कमान सौंपी गई. ढाई दशक के बाद कांग्रेस अध्यक्ष गांधी परिवार के बाहर का कोई व्यक्ति है. खड़गे दलित समुदाय से आते हैं और वो सामाजिक न्याय के पक्षधर रहे हैं. देश में 15 फीसदी दलित मतदाता है तो 7 फीसदी आदिवासी समुदाय हैं. इस तरह से खड़गे के जरिए पार्टी की 22 फीसदी वोटों पर नजर है. इतना ही नहीं, राहुल गांधी के द्वारा मांग उठाने के दूसरे दिन ही खड़गे ने पीएम मोदी को पत्र लिखकर जातिगत जनगणना करवाने की मांग कर डाली. 

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मोदी सरकार का क्या रहा स्टैंड?

केंद्र की सरकार जातिगत जनगणना कराने के पक्ष में नहीं है. केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने लोकसभा में 20 जुलाई 2021 को जवाब देते हुए कहा था कि फिलहाल केंद्र सरकार की अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा किसी और जाति की गिनती कराने की कोई मंशा नहीं है. पिछली बार की तरह ही इस बार भी एससी और एसटी को ही जनगणना में शामिल किया जाएगा. 

बीजेपी ने क्या कभी मांग उठाई?

जी हैं, बीजेपी विपक्ष में रहते हुए जातिगत जनगणना की मांग करती रही है. बीजेपी के नेता आज भले ही जातिगत जनगणना पर अपनी राय कुछ और रख रहे हो, लेकिन जब बीजेपी विपक्ष में थी, तब उसके नेता खुद इसकी मांग करते रहे हैं. बीजेपी  नेता गोपीनाथ मुंडे ने संसद में 2011 की जनगणना से ठीक पहले 2010 में संसद में कहा था, 'अगर इस बार की जनगणना में भी ओबीसी की जनगणना नहीं करेंगे, तो ओबीसी को सामाजिक न्याय देने के लिए और 10 साल लग जाएंगे. हम उन पर अन्याय करेंगे.'

मोदी सरकार में जब राजनाथ सिंह केंद्रीय गृह मंत्री थे, उस वक्त 2021 की जनगणना की तैयारियों जायजा लेते समय 2018 में एक प्रेस विज्ञप्ति में सरकार ने माना था कि ओबीसी समुदाय का डेटा नई जनगणना में एकत्रित किया जाएगा. इस तरह से बीजेपी विपक्ष में रहते हुए जातिगत जनगणना की मांग करती रही है, लेकिन सत्ता में आने के बाद उसके सुर बदल गए हैं.

बीजेपी क्यों जातिगत जनगणना पर असहज?

जनगणना मुद्दे पर विरोध और समर्थन के पीछे सारा खेल सियासत से जुड़ा है. जातिगत जनगणना के समर्थन के पीछे पिछड़ी जातियों के वोट बैंक का है, जिनकी आबादी 52 फीसदी से ज्यादा बताई जाती है. जातीय जनगणना के विरोध के पीछे सवर्ण जातियों का दबाव है, जो बीजेपी का परंपरागत वोटर माने जाते हैं. बीजेपी इन वोटों को नाराज नहीं करना चाहती है. जातीय जनगणना के होने से अगर ओबीसी जातियों की संख्या अगर 52 फीसदी या उससे ज्यादा बढ़ती है तो 27 फीसदी आरक्षण को बढ़ाने की मांग उठा सकते हैं. ऐसे में आरक्षण का दायरा बढ़ने पर सवर्ण जातियां विरोध करेंगी और सरकार की परेशानी बढ़ेगी. इसीलिए बीजेपी इससे बच रही है और असहज स्थिति में है.  

बीजेपी की नई सोशल इंजीनियरिंग

बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव से देश में एक मजबूत वोटबैंक तैयार किया है. नरेंद्र मोदी की अगुवाई में सवर्ण जातियों के साथ-साथ दलित और ओबीसी समुदाय के बीच बीजेपी ने अपनी गहरी पैठ बनाई है. यह बीजेपी की नई सोशल इंजीनियरिंग कही जा रही है. ऐसे में जातीय आधिरित जनगणना कराकर बीजेपी किसी तरह का कोई जोखिम भरा कदम नहीं उठाना चाह रही है, क्योंकि उसे पता है कि ओबीसी के एक बार आंकड़े सामने आने के बाद सियासत तेज हो सकती है. वहीं, आरएसएस अलग-अलग जातियों में बंटे हिंदुओं को एकजुट करने में लगा है. जातीय जनगणना उसके मिशन में बाधा बन सकती है. 

कमंडल बनाम मंडल 

बीजेपी हिंदुत्व की पॉलिटिक्स को धार दे रही है. 2024 के चुनाव में राम मंदिर को बीजेपी बड़ी उपलब्धि के तौर पर लोगों के सामने रख सकती है. ऐसे में मंडल बनाम कमंडल का पॉलिटिकल एजेंडा सेट किया जा रहा है. कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों को लगता है कि जाति आधारित जनगणना के जरिए बीजेपी के धार्मिक ध्रुवीकरण के राजनीतिक चक्रव्यूह को तोड़ा जा सकता है. बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश तक में विपक्षी दल जातिगत पॉलिटिक्स का एजेंडा सेट कर रही हैं. विपक्षी दल भी एक बात बखूबी जानते हैं कि बीजेपी को सिर्फ जाति के पिच पर ही घेरा जा सकता है और सियासी मात दी सकती है. 

मंडल की सियासत से फायदा

नब्बे के दशक में मंडल कमीशन के लागू होने का सियासी फायदा भले ही वीपी सिंह को न मिल पाया हो, लेकिन जनता दल के निकले हुए राजनीतिक दलों को जरूर मिला है. यूपी में सपा को सियासी ताकत मिली तो बिहार में आरजेडी और जेडीयू जैसे जातीय आधार वाले दलों का उभार हुआ. बीजेपी को भी जबरदस्त तरीके से राजनीतिक फायदा मिला. हालांकि, उसके सियासी फायदे में राम मंदिर आंदोलन का भी अहम रोल रहा है, क्योंकि पार्टी ने ओबीसी के साथ-साथ हिंदुत्व के मुद्दे को धार दिया. इस पूरे खेल में सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को उठाना पड़ा था. 

जातिगत जनगणना से 2024 की सियासत

जातिगत जनगणना की मांग क्षेत्रीय पार्टियां पार्टियां करती रही हैं. सपा, बसपा, जेएमएम, जेडीयू, आरजेडी, एनसीपी, बीजेडी, डीएमके सहित करीब एक दर्जन पार्टियां है, जो जातिगत जनगणना के पक्ष में हैं. कांग्रेस भी अब जातिगत जनगणना के पक्ष में खड़े होकर इन तमाम पार्टियों के साथ कदमताल करना चाहती है. ऐसे में विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश में जुटी कांग्रेस ने मोदी सरकार और बीजेपी को घेरने के लिए अब जाति जनगणना को मुद्दा बनाया है. बीजेपी ने 2024 के चुनाव में राम मंदिर को अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने की योजना बनाई है, जिसकी काट में बीजेपी जातिगत जनगणना को सियासी हथियार बना रही है. ऐसे में देखना है कि इस शह-मात के खेल में कौन सियासी बाजी मारता है?

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