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'जितनी आबादी, उतनी हिस्सेदारी...', जातिगत जनगणना के बाद आरक्षण में किन बदलावों की होने लगी है मांग

पिछले 3 साल से बिहार की नीतीश कुमार सरकार जिस जातिगत जनगणना को कराने की जिद पर अड़ी थी, उसके आंकड़े अब जारी कर दिए गए हैं. राज्य सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में 27% अन्य पिछड़ा वर्ग और 36% अत्यंत पिछड़ा वर्ग हैं. यानी, ओबीसी की कुल आबादी 63% है.

बिहार में जातिगत सर्वे के आंकड़े जारी बिहार में जातिगत सर्वे के आंकड़े जारी
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 03 अक्टूबर 2023,
  • अपडेटेड 7:38 PM IST

बिहार में किस जाति की कितनी आबादी है? इसके आंकड़े आ गए हैं. नीतीश कुमार की सरकार ने सोमवार को इसके आंकड़े जारी कर दिए.

आंकड़ों के मुताबिक, बिहार में कुल आबादी 13 करोड़ से ज्यादा है. इनमें 27% अन्य पिछड़ा वर्ग और 36% अत्यंत पिछड़ा वर्ग है. यानी, ओबीसी की कुल आबादी 63% है. अनुसूचित जाति की आबादी 19% और जनजाति 1.68% है. जबकि, सामान्य वर्ग 15.52% है.

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नीतीश सरकार साढ़े तीन साल से जातिगत जनगणना करवाने की जिद पर अड़ी थी. सरकार ने 18 फरवरी 2019 और फिर 27 फरवरी 2020 को जातिगत जनगणना का प्रस्ताव विधानसभा और विधान परिषद से पास करवा लिया था. लेकिन इस साल जनवरी में जातिगत जनगणना का काम शुरू हुआ. हालांकि, सरकार इसे जनगणना नहीं बल्कि 'सर्वे' बताती है.

'जितनी आबादी, उतना हक'

इस साल अप्रैल में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान कांग्रेस सांसद राहुल गांधी जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाया था. उन्होंने इस दौरान नारा दिया था- 'जितनी आबादी, उतना हक'.

इसके साथ ही राहुल गांधी ने मोदी सरकार पर आरोप लगाया था कि सबका साथ-सबका विकास की बात करने वाली सरकार सभी जातियों का सही विकास करने के लिए जाति आधारित जनगणना कराने के खिलाफ है.

इसी तरह का नारा दलितों के बड़े नेता कांशीराम ने भी दिया था. कांशीराम ने कहा था, 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी'.

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जाति के आंकड़े और आरक्षण की व्यवस्था?

अभी जनगणना में ये नहीं पता चल पाता है कि किस जाति के कितने लोग हैं. अभी सिर्फ अनुसूचित जाति और जनजाति के ही आंकड़े आते हैं. ओबीसी जातियों की गिनती नहीं होती. 

जातिगत जनगणना की मांग के पीछे का मकसद ये है कि जिस जाति की जितनी आबादी, उसको उतना आरक्षण मिले.

वहीं, इसके विरोध में तर्क दिया जाता है कि अगर जनगणना में ओबीसी की आबादी ज्यादा निकली तो ज्यादा आरक्षण की मांग उठेगी. अभी ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण मिलता है. ये आरक्षण 1931 में आखिरी बार हुई जाति जनगणना के आधार पर दिया जाता है. 1990 में मंडल आयोग ने 1931 के आधार पर ओबीसी की आबादी 52 फीसदी होने का अनुमान लगाया था.

जानकारों का मानना है कि एससी-एसटी को जो आरक्षण मिलता है, उसका आधार उनकी आबादी है. लेकिन ओबीसी के आरक्षण का कोई आधार नहीं है.

अब बिहार की जातिगत जनगणना में जो आंकड़े आए हैं, उनमें सामने आया है कि राज्य में ओबीसी की आबादी 63 फीसदी है. ऐसे में माना जा रहा है कि अब आरक्षण बढ़ाने की मांग शुरू हो जाए.

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इन आंकड़ों के सामने आने के बाद राहुल गांधी ने सोशल मीडिया पर लिखा कि बिहार की जातिगत जनगणना से पता चलता है कि वहां ओबीसी, एससी और एसटी 84 फीसदी हैं. इसलिए भारत के जातिगत आंकड़े जानना जरूरी है. जितनी आबादी-उतना हक, ये हमारा प्रण है.

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तो क्या बढ़ेगा आरक्षण?

संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है.

शुरुआत में आरक्षण की व्यवस्था सिर्फ 10 साल के लिए थी. उम्मीद थी कि 10 साल में पिछड़ा तबका इतना आगे बढ़ जाएगा कि उसे आरक्षण की जरूरत नहीं पड़ेगी. पर ऐसा हुआ नहीं. 

फिर 1959 में संविधान में आठवां संशोधन कर आरक्षण 10 साल के लिए बढ़ा दिया. 1969 में 23वां संशोधन कर आरक्षण बढ़ा दिया. तब से हर 10 साल में संविधान संशोधन होता है और आरक्षण 10 साल के लिए बढ़ जाता है.

साल 1992 में इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को लेकर बड़ा फैसला दिया था. तब सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय कर दी थी. कोर्ट ने कहा था कि सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकती.

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फिलहाल, देश में 49.5% आरक्षण है. ओबीसी को 27%, एससी को 15% और एसटी को 7.5% आरक्षण मिलता है. इसके अलावा आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्ग के लोगों को भी 10% आरक्षण मिलता है.

इस हिसाब से आरक्षण की सीमा 50 फीसदी के पार जा चुकी है. हालांकि, पिछले साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्ग के लोगों को आरक्षण देने को सही ठहराया था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ये कोटा संविधान के मूल ढांचे को नुकसान नहीं पहुंचाता.

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क्या ऐसा हो सकता है?

कई राज्य सरकारें पिछड़ी जातियों का दर्जा देकर आरक्षण की सीमा जब-जब पार करती हैं, तब-तब या तो हाईकोर्ट या फिर सुप्रीम कोर्ट इसे रद्द कर देता है. 

सुप्रीम कोर्ट कई बार अपने फैसलों में आरक्षण की 50 फीसदी सीमा की बात दोहरा चुका है. पिछले साल जब नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग के लोगों को 10% आरक्षण को सही ठहराया था, तब भी दो जजों ने इस पर असहमति जताई थी. सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने 3-2 से 10 फीसदी आरक्षण का समर्थन किया था.

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2014 में महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के बाद बनी फडणवीस सरकार ने मराठाओं को 16% का आरक्षण दे दिया था. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया था. 

हालांकि, सीमा होने के बावजूद कई राज्यों में 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण है. हाल ही में राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार ने ओबीसी आरक्षण 6 फीसदी बढ़ाया है. अब वहां कुल 64 फीसदी आरक्षण है. 

जातिगत जनगणना फिर हो क्यों नहीं जाती?

देश में आखिरी जातिगत जनगणना 1931 में हुई थी. फिर 1939 में दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया. इस कारण 1941 की जनगणना में देरी हुई. इस कारण अलग-अलग जातियों की गिनती नहीं हो सकी.

आजादी के बाद 1951 में पहली जनगणना हुई. तब केंद्र की जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने तय किया कि आजाद भारत में जाति आधारित भेदभाव को खत्म करना है, इसलिए जातिगत जनगणना की जरूरत नहीं है.

90 के दशक में एचडी देवेगौड़ा की सरकार ने जातिगत जनगणना कराने का वादा किया था. लेकिन ये सरकार कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी. 2001 की जनगणना फिर पुराने ढंग से हुई और जातियों की गिनती नहीं हुई.

2011 की जनगणना से पहले फिर जातिगत जनगणना की मांग उठी. आखिरकार 2011 में यूपीए सरकार ने सामाजिक-आर्थिक जनगणना करवाई. इसमें हर परिवार की जाति और सामाजिक आर्थिक स्थिति को दर्ज किया गया. लेकिन इसके आंकड़े कभी सार्वजनिक नहीं किए गए. केंद्र ने इसके लिए खामियों का हवाला दिया था.

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साल 2021 में केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में बताया था कि 1931 में जब आंकड़े जुटाए गए थे, तबत जातियों की संख्या 4,147 थी. लेकिन 2011 में जातियों की संख्या 46 लाख से भी ज्यादा हो गई थी. 

तब केंद्र ने महाराष्ट्र का उदाहरण देते हुए बताया था कि 1931 में यहां एससी, एसटी और ओबीसी की 494 जातियां थीं, जो 2011 में बढ़कर 4.28 लाख से ज्यादा हो गई.

जातिगत जनगणना से बचने की सबसे बड़ी वजह आरक्षण को माना जाता है. माना जाता है कि जातिगत जनगणना के आंकड़े आने के बाद नए सिरे से आरक्षण की मांग उठने लगेगी, क्योंकि बहुत सारी जातियां ऐसी हैं जिन तक आरक्षण का लाभ नहीं पहुंच पा रहा है.

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