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जातीय जनगणना के खिलाफ याचिका दायर करने वाले बीजेपी समर्थक? सुशील मोदी ने दिया ये जवाब

बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का कहना है कि जातीय जनगणना पर हाईकोर्ट ने जो प्रश्न उठाए हैं, उनका उत्तर देने के लिए सरकार को तुरंत सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिए और जरूरत पड़ने पर विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर कानून बनाना चाहिए.

सुशील कुमार मोदी सुशील कुमार मोदी
रोहित कुमार सिंह
  • नई दिल्ली,
  • 09 मई 2023,
  • अपडेटेड 1:46 AM IST

बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री और राज्यसभा सांसद सुशील कुमार मोदी का कहना है कि जातीय जनगणना के खिलाफ याचिका दायर करने वालों से बीजेपी के संबंध होने की बात बिल्कुल भ्रामक है. 

उन्होंने कहा कि बीजेपी ऐसी दोमुंही राजनीति नहीं करती कि वह जिस मुद्दे का विधानसभा में समर्थन करें, उसके विरोध में किसी को अदालत भेज दे. सुशील मोदी ने कहा कि जातीय जनगणना पर हाईकोर्ट में कमजोर पैरवी की वजह से इस पर रोक लगी और जदयू इसका ठीकरा भाजपा के सिर फोड़ना चाहता है.

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उन्होंने कहा कि जातीय जनगणना पर हाईकोर्ट ने जो प्रश्न उठाए हैं, उनका उत्तर देने के लिए सरकार को तुरंत सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिए और जरूरत पड़ने पर विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर कानून बनाना चाहिए.

सुशील कुमार मोदी ने कहा कि अगर जातीय जनगणना का फैसला होने के बाद मुख्यमंत्री ने अकेले श्रेय लेने का मोह छोड़कर सभी दलों को विश्वास में लिया होता और कोर्ट में कानूनी पक्ष रखने सहित तैयारी के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की होती, तो इस पर रोक की नौबत नहीं आती.

उन्होंने कहा कि जातीय जनगणना कराने का फैसला बीजेपी के सरकार में रहते हुआ था और इसके लिए विधानमंडल में दो बार प्रस्ताव पारित होने से लेकर प्रधानमंत्री से मिलने वाले प्रतिनिधिमंडल में सम्मिलित रहने तक, हर स्तर पर पार्टी समर्थन में खड़ी रही.

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उन्होंने कहा कि जातीय सर्वे करना जनगणना नहीं है. यह राज्यों का अधिकार है. बिहार से पहले कर्नाटक और तेलंगाना सरकार ऐसे सर्वे करा चुकी है. 

क्या है जनगणना का इतिहास?

- भारत में पहली बार 1881 में जनगणना हुई थी. उस समय भारत की आबादी 25.38 करोड़ थी. तब से ही हर 10 साल पर जनगणना हो रही है.

- 1881 से 1931 तक जातिगत जनगणना हुई. 1941 में जातियों के आंकड़े जुटाए गए, लेकिन इन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया.

- आजादी के बाद 1951 में जनगणना हुई थी. तब सरकार ने तय किया कि सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आंकड़े ही जुटाए जाएंगे. इसके बाद से ही एससी और एसटी के आंकड़े जारी होते हैं.

क्या अब जातीय जनगणना की जरूरत है?

- जातिगत जनगणना कराने के पक्ष में ये तर्क है कि 1951 से एससी और एसटी जातियों का डेटा जारी होता है, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों के आंकड़े नहीं आते. इस कारण ओबीसी की सही आबादी का अनुमान लगाना मुश्किल है.

- 1990 में केंद्र की तब की वीपी सिंह की सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिशों को लागू किया था. इसे मंडल आयोग के नाम से जानते हैं. इसने देश में ओबीसी की 52 फीसदी आबादी होने का अनुमान लगाया था.

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- हालांकि, मंडल आयोग ने ओबीसी आबादी का जो अनुमान लगाया था उसका आधार 1931 की जनगणना ही थी. मंडल आयोग की सिफारिश पर ही ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण दिया जाता है.

- जानकारों का कहना है कि एससी और एसटी को जो आरक्षण मिलता है, उसका आधार उनकी आबादी है. लेकिन ओबीसी के आरक्षण का कोई आधार नहीं है.

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