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कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव: दिग्विजय से 'डरे' गांधी परिवार के लिए मजबूरी का नाम मल्लिकार्जुन?

कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में अशोक गहलोत के बाहर होने और दिग्विजय सिंह के चुनाव लड़ने के ऐलान के बाद मल्लिकार्जुन खड़गे की एंट्री हुई है. कांग्रेस हाईकमान से हरी झंडी मिलने के बाद खड़गे चुनाव लड़ने लिए मैदान में उतरे हैं. जिसके बाद दिग्विजय सिंह ने अपने कदम पीछे खींच लिए हैं. इस तरह से कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव अब शशि थरूर बनाम मल्लिकार्जुन खड़गे के बीच होगा.

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कुबूल अहमद
  • नई दिल्ली ,
  • 30 सितंबर 2022,
  • अपडेटेड 12:55 PM IST

अशोक गहलोत का नाम हटने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष पद के दावेदारों में दिग्विजय सिंह और शशि थरूर ही मैदान में बचे थे. दिग्विजय ने केरल से दिल्ली आकर नामांकन पत्र भी ले लिया था और उनके प्रस्तावों की लिस्ट भी तैयार थी. ऐसे में कांग्रेस अध्यक्ष के लिए पूर्व मंत्री मल्लिकार्जुन खड़गे ने सोनिया गांधी से मिलने के बाद चुनावी मैदान में उतरने के लिए ताल ठोका, जिसके बाद दिग्विजय ने अपने कदम पीछे खींच लिए हैं. इस तरह से खड़गे भले ही छुपे रुस्तम साबित हुए, लेकिन सवाल उठता है कि क्या दिग्विजय के चुनाव लड़ने के ऐलान से गांधी परिवार 'डर' गया था.

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कांग्रेस अध्यक्ष पद के उम्मीदवार के तौर पर मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम पार्टी के विचार-मंथन सत्र के दौरान सामने आया, जब अशोक गहलोत दौड़ से बाहर हो गए. सीएम गहलोत ने सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद गुरुवार को नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए घोषणा की है कि वह कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव नहीं लड़ेंगे. वहीं, कांग्रेस अध्यक्ष के लिए कई नाम सामने आए, जिनमें दिग्विजय सिंह से लेकर मुकुल वासनिक और कुमारी शैलजा तक शामिल थे. 

दिग्विजय सिंह कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने के लिए भारत जोड़ो यात्रा छोड़कर दिल्ली आ गए थे. चुनाव लड़ने के लिए बकायदा नामांकन पत्र भी ले लिया था और चुनाव लड़ने का दम भर रहे थे. मध्य प्रदेश में उनके करीबी नेताओं की लिस्ट भी सामने आ गई थी, जो नामांकन के लिए उनके प्रस्तावक बनने को तैयार थे. ऐसे में आखिर क्या वजह रही कि दिग्विजय सिंह खड़गे के खिलाफ चुनाव लड़ने से पीछे हट गए. 

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दिग्विजय सिंह ने कहा कि खड़गे हमारे पुराने साथी और वरिष्ठ सहयोगी हैं. ऐसे में हमने फैसला किया है कि हम उनके खिलाफ चुनाव नहीं लड़ेंगे. दिग्विजय भले ही ये बात कह रहे हैं लेकिन सियासी तौर पर यह बात किसी को भी पच नहीं रही है. दिग्विजय एक जनाधार वाले नेता हैं और संगठन का लंबा अनुभव है. इतना ही नहीं वो अपने स्टैंड पर कायम रहने वाले नेताओं में शुमार होते हैं लेकिन उनकी छवि मुस्लिम परस्त और हिंदू विरोधी नेता के तौर बन गई है. ऐसे में गांधी परिवार के लिए अध्यक्ष पद पर दिग्विजय को स्वीकार करना आसान नहीं था.

राजस्थान के सियासी घटनाक्रम और गहलोत से कांग्रेस हाईकमान का विश्वास टूटने के बाद खड़गे पार्टी अध्यक्ष पद के लिए पहली पसंद बनकर उभरे. गहलोत के मैदान छोड़ते ही मल्लिकार्जुन खड़गे ने ताल ठोक दी है. खड़गे कर्नाटक से आते हैं और दलित समुदाय से हैं. वो जमीनी नेता रहे हैं और लंबा सियासी अनुभव है. छात्र राजनीति से आए खड़गे ने मजदूरों के हक लंबी लड़ाई लड़ी और 8 बार विधायक और तीन बार सांसद बने. 

खड़गे राज्य से लेकर केंद्र तक में मंत्री रहे और नेता प्रतिपक्ष के तौर पर संसद में भूमिका निभाई है. कांग्रेस के लिए सियासी और क्षेत्रीय समीकरण के लिहाज से भी खड़गे फिट बैठते हैं. माना जा रहा है कि कांग्रेस उनके जरिए दलित कार्ड खेलने की कवायद में हैं. दलित समाज से आने वाले खड़गे को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर देश भर में सियासी संदेश देने की रणनीति है तो दक्षिण से लेकर उत्तर तक को साधने का दांव. 

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मुकुल वासनिक दलित समुदाय से आते हैं और पार्टी के दिग्गज नेता है. वो कांग्रेस के उस जी-23 के नेताओं में शामिल रहे हैं, जिन्होंने 2020 में कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी को पत्र लिखा था. पत्र में जी-23 नेताओं ने पार्टी में आमूल-चूल बदलाव लाने की वकालत की गई थी. मुकुल वासनिक भी उस खत पर हस्ताक्षर करने वालों में शामिल थे. इसके अलावा गहलोत के साथ भी उनके रिश्ते हैं. माना जा रहा है कि इसीलिए मुकुल वासनिक का नाम बाहर हो गया है जबकि कुमारी शैलजा हरियाणा के प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर सफल नहीं रही. 

वहीं, दिग्विजय सिंह ने खुद ही अपने कदम पीछे खींच लिए हैं. दिग्विजय के पीछे हटने का बड़ा कारण हिंदुत्व और आरएसएस को लेकर का उनका स्टैंड को भी माना जा रहा है. दिग्विजय के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद बीजेपी कांग्रेस पार्टी को घेरने का एक और बड़ा मौका मिल जाता और बहुसंख्यक समुदाय के वोटों के खिसकने का भी खतरा था. मौजूदा समय में कांग्रेस सियासी तौर पर जोखिम भरा कदम उठाने की स्थिति में नहीं है. इन्हीं सभी कारणों को देखते हुए मल्लिकार्जुन खड़गे के नाम पर सहमति बनी है. 

बता दें कि मल्लिकार्जुन खड़गे का जन्म कर्नाटक के बीदर जिले में एक दलित परिवार में हुआ था. छात्र राजनीति से अपनी सियासी पारी शुरू करने आए खड़गे ने 1969 में कांग्रेस में कदम रखा और मजदूरों की हक की लड़ाई को धार दिया. हिंदी पट्टी से दूर कर्नाटक में आठ बार विधायक, दो बार लोकसभा और फिलहाल राज्यसभा सदस्य हैं. कर्नाटक की सियासत में उन्हें 2013 में मुख्यमंत्री का चेहरा माना जा रहा था, लेकिन सिद्धारमैया के चलते नहीं बन सके. हालांकि, यूपीए सरकार के दौरान केंद्र में रेलमंत्री और श्रम विभाग के मंत्री रहे. 

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2014 में बीजेपी की सत्ता में वापसी के बाद कांग्रेस 47 सीटों पर सिमट गई थी. कांग्रेस के सामने लोकसभा में नेता सदन बनाने की चुनौती खड़ी हो गई थी. ऐसे में मल्लिकार्जुन खड़गे गांधी परिवार के विश्वास पात्र बनकर उभरे. वो लोकसभा में कांग्रेस की ओर से नेता प्रतिपक्ष बने और उस जिम्मेदारी को उन्होंने बखूबी निभाया. 2019 में खड़गे लोकसभा चुनाव हार गए, पर कांग्रेस राज्यसभा के जरिए सदन में ले आई. लोकसभा में उनके परफॉर्मेंस को देखते हुए राज्यसभा में गुलाम नबीं के बाद खड़गे ही नेता सदन बने. 

गहलोत के सियासी उत्तराधिकारी चुनने के लिए कांग्रेस हाईकमान ने मल्लिकार्जुन खड़गे को अजय माकन के साथ जयपुर पर्यवेक्षक बनाकर भेजा था. जयपुर में हुए सियासी घटनाक्रम में गहलोत खेमे के विधायकों ने अजय माकन को जिम्मेदारा ठहराया, लेकिन खड़गे की तारीफ करते नजर आए. शांति धारीवाल से लेकर महेश जोशी तक ने कहा कि माकन सडयंत्र कर रहे थे पर खड़गे ने हमारी बातें गंभारती से सुनी. गहलोत के चुनावी मैदान में बाहर निकलने के बाद खड़गे की इंट्री हुई और दिग्विजय ने मैदान छोड़ दिया. 

खड़गे के जरिए दलितों को संदेश 

कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में मल्लिकार्जुन खड़के के उतरने से दलितों को साधने का बड़ा दांव माना जा रहा है. देश में दलित समुदाय सियासी तौर पर काफी निर्णायक भूमिका में है. कांग्रेस के एक समय परंपरागत वोटर माना जाता था. कांग्रेस एक बार फिर से अपने पुराने कोर वोटबैंक को दोबारा से हासिल करने के लिए खड़गे का दांव चला है. हालांकि, कांग्रेस का यह कार्ड कितना सफल होगा यह तो 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद ही पता चलेगा? 

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SC-ST  संसदीय सीटों का समीकरण

देश की कुल जनसंख्या में 20.14 करोड़ दलित हैं. कुल 543 लोकसभा सीट हैं, जिनमें से 131 सीटें रिजर्व है. 84 लोकसभा सीटें अनुसूचित जाति और 47 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. दलित और आदिवासी बहुल इन सीटों पर कभी कांग्रेस अपना एकाधिकार समझती थी, लेकिन यह वर्चस्व टूट गया है. बीजेपी का सियासी ग्राफ बढ़ा है और 2014-2019 के लोकसभा में चुनाव नतीजे से साफ जाहिर होता है. अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित 131 लोकसभा सीटों में से 77 सीटें बीजेपी के पास हैं जबकि 2014 में 67 सीटें उसे मिली थी. 
 

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