
कल्पना करिये कि ये सब घटनाएं 2014 के पहले हुई होतीं- व्यापक रूप से फैली महामारी जिसके रिकॉर्ड 50 लाख केस हो चुके हैं और जिसमें करीब 83,000 लोगों की जान चली गई है, एक आर्थिक सुस्ती जिसमें जीडीपी में 23.9 फीसदी की भारी गिरावट आई है, करोड़ों लोगों की नौकरी चली गई, 8 करोड़ से ज्यादा भूखे बेघर प्रवासी कामगार असहाय हो गये, एक ऐसा लॉकडाउन जिसने महामारी पर अंकुश से ज्यादा अर्थव्यवस्था को पंगु बनाया हो और चीनी सेना एक ड्रैगन की तरह नियंत्रण रेखा का उल्लंघन कर रही तथा युद्धोन्माद को बढ़ावा दे रही हो.
इनमें से कोई भी संकट अपने आप में इतना विशाल है कि भारत के अच्छे से अच्छे प्रधानमंत्री की छवि को धूमिल कर सके या उसे गहरी चोट पहुंचा सके.
फिलहाल जब अर्थव्यवस्था गहराई में गोते लगा रही है, सरकार इसे रोकने का कोई उपाय करने या इस अनर्थकारी बवंडर को खत्म करने में विफल हो रही है. सरकार इस आरोपों को भी खारिज कर रही है कि चीनी घुसपैठ की वजह से 21वीं सदी में पहली बार पड़ोसी देश के हाथ हमने अपना कुछ भौगोलिक क्षेत्र गंवा दिया है.
लोग अब भी बेरोजगारी से जूझ रहे हैं, लोन चुकाने, लोगों को वेतन देने के लिए मशक्कत कर रहे हैं और यहां तक कि अपनी दैनिक जरूरतें भी नहीं पूरी कर पा रहे. इसकी वजह से सरकार असंतोष को रोकने में सक्षम नहीं हो पा रही.
कमजोर पड़ा नारा
'मोदी है तो मुमकिन है' का नारा कमजोर पड़ा है. वोट देने वाली जनता अभी यह नारा नहीं लगा रही कि 'मोदी है, मगर अब नामुमकिन है', लेकिन एक बदलाव आया है जो अभी बहुत तीव्र और दृश्य नहीं है. उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री के 71वें जन्मदिन की पूर्व संध्या पर जब ट्विटर पर हैशटैग #modibirthday ट्रेंड कर रहा था, तो 17 सितंबर को 'राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस' के रूप में मनाने का आह्वान भी चल रहा था.
इस बात से अब कोई इंकार नहीं कर सकता कि सितंबर 2020 में ब्रैंड मोदी में थोड़ी खरोंच आ चुकी है और इसकी चमक कम हुई है. हालांकि इसे कोई गंभीर क्षति होती नहीं दिख रही. 70 साल की उम्र में कद्दावर मोदी, सबसे उतार-चढ़ाव भरे छह महीने बिताने के बाद जिसमें किसी सरकार और प्रधानमंत्री को चुनौती दी जा सकती थी, अब भी ज्यादातर मतदाताओं की नजर में बाकियों के मुकाबले कई इंच बड़े कद में बने हुए हैं. और पूरी जनता न सही भारत की धार्मिक जनता का बहुसंख्यक हिस्सा अब भी यह मानती है कि यह देश और इसकी तकदीर इस नेता से ही गहराई से जुड़ी हुई है.
हर वादे को पूरा किया
अपने पिछले दो जन्मदिनों में उन्होंने उन सभी वादों को पूरा किया, जिसका हर आरएसएस और बीजेपी नेता ने अतीत में ऐलान किया था. 5 अगस्त 2019 को उन्होंने अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी कर दिया. 5 अगस्त 2020 को उन्होंने अयोध्या में शुभ मुहूर्त में राम मंदिर का शिलान्यास किया.
इस तरह अपने 71वें जन्मदिन तक उनका कद अब तक के बीजेपी और आरएसएस के लिए सबसे पूज्य और महान कहे जाने वाले वाजपेयी और आडवाणी जैसे नेताओं से बड़ा हो गया है, बल्कि वह आश्चर्यनजक रूप से मजबूत छवि और लोकप्रियता के मामले में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के करीब पहुंच गये हैं.
जन्मदिन के इस नायक की अलग-अलग अवसरों पर पहने जाने वाली खास पगड़ियों, Movado की घड़ियों, Bvlgari के चश्मों, खास आधी बाहों वाले कुर्तों और नए तरीके के जैकेट वाली स्टाइल जिसे अब 'मोदी जैकेट' कहा जाने लगा है, ने उसी तरह की पहचान बनाई है जैसी जैकेट से नेहरू की थी और साड़ियों से इंदिरा गांधी की.
यह सब उन्होंने सिर्फ 7 साल के दौरान हासिल किया है. अगर हम साल 2013 के पहले की बात करें तो मोदी एक क्षेत्रीय नेता ही थे जिनकी राष्ट्रीय आकांक्षा जरूर थी, लेकिन गुजरात से बाहर उनकी लोकप्रियता कम थी.
क्षेत्रीय नेता की बड़ी सफलता
भारत के इतिहास में क्षेत्रीय राजनीति का कोई भी पुरोधा इस तरह से अपने दम पर शीर्ष तक नहीं पहुंचा था, जैसे मोदी पहुंचे हैं. इसके पहले नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और वाजपेयी जैसे प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राजनीति से उभरे नेता थे. वीपी सिंह, पीवी नरसिंह राव और एचडी देवगौड़ा जरूर ऐसे क्षेत्रीय नेता थे जो बाद में राष्ट्रीय राजनीति के शीर्ष पर पहुंचे, लेकिन वह कोई दीर्घकालिक और गहरा असर नहीं डाल सके.
साल 2013 से ही जिस तरह की चुनौतियां आती गईं, नरेंद्र मोदी ने बहुत सहजता से अपने को कभी चायवाला, कभी विकास पुरुष, चौकीदार और कभी फकीर के रूप में पेश किया. उनके तमाम अभियानों में ऐसी छवियों का इस्तेमाल किया गया, जैसे किस तरह से उन्होंने अपने मां-बाप का घर छोड़ा, वैवाहिक जीवन का त्याग किया और देश सेवा के लिए आरएसएस में शामिल हो गये. उनके संदेश सुस्पष्ट और गहरी छाप छोड़ने वाले होते थे. यह इसी बात से समझा जा सकता है कि किस चालाकी से नरेंद्र मोदी के लिए शॉर्ट फॉर्म 'नमो' का इस्तेमाल किया गया. हर हिंदू के लिए नमो शब्द संस्कृत भाषा के नम: का ही एक रूप है जिसका इस्तेमाल मंत्रोच्चार में किया जाता है और जिसका मतलब ही होता है ईश्वर को नमन.
उन्होंने जनता से निर्बाध संपर्क बनाये रखने का भी एक फॉर्मूला निकाल लिया. उन्होंने लोगों से सीधा संपर्क बनाया और ऐसी नीतियां बनाईं जिसमें वह खुद ज्यादा दिखने की जगह जनता की भावना को ज्यादा प्रकट कर पायें.
यदि किसी ब्रैंड को लोगों के दिमाग में छाए रहने के लिए जरूरी मार्केटिंग के लिए वास्तविक जागरूकता और दृश्यता को मुख्य आधार माना जाए तो यह कहा जा सकता है कि पिछले 6 साल में ब्रैंड मोदी कभी भी नजरों से ओझल नहीं हुआ है.
इसकी सबसे अच्छी बानगी दिखी 3 जुलाई को लद्दाख इलाके की उनकी अचानक यात्रा में, जिसने चीन और घरेलू जनता को एक बड़ा संकेत दिया. जंगी ओलिव ग्रीन रंग के कपड़ों में जब वह लेह के कुशक बकुला रिनपोछे एयरपोर्ट पर उतरे, तो सेना के शीर्ष अधिकारियों के साथ बातचीत के अलावा उन्होंने दुर्गम क्षेत्र में तैनात सैनिकों से भी सीधा संवाद कायम किया.
तमाम नेताओं के लिए एक सबक
ट्विटर पर 6.23 करोड़, फेसबुक पर 4.5 करोड़ और इंस्टाग्राम पर 4.91 करोड़ सहित कई वेबसाइट और मोबाइल एप्लीकेशन पर जबरदस्त फॉलोवर रखने वाले पीएम मोदी असल में राहुल गांधी जैसे युवा नेताओं और कांग्रेस जैसी बीजेपी से पुरानी पार्टियों के लिए भी एक सबक हैं.
सोशल मीडिया पर उनकी मौजूदगी अधीर रहने वाले उन युवाओं तक पहुंच बनाती है जिनके पास स्मार्टफोन है. मन की बात के माध्यम से वह एक पूरी एक पीढ़ी और वर्ग को अपने साथ जोड़ रहे हैं जिसके पास साधारण रेडियो सेट है और वह लोगों को अपने आइडिया भी भेजने को कहते हैं, जिससे यह संकेत जाता है कि पीएम उनकी चिंताओं के प्रति कितने जागरूक हैं और उन तक कोई भी पहुंच सकता है. इसके पीछे सोच यह है कि आम जनता में भरोसा कायम किया जाये और संपर्क सीधा होता है, इसलिए उनकी बात को किसी भी तरह से तोड़-मरोड़कर न पहुंचाया जा सके.
इस बार स्वतंत्रता दिवस पर जब वह लाल किले से बोल रहे थे तो उन्होंने परंपरागत साफा पहन रखा था. उन्होंने शौचालयों की बात की, लड़कियों के प्रति परंपरागत भेदभाव की बात की, वह भी ऐसे शब्दों में जो बहुत सरल और तेजी से दिल तक पहुंचने वाले थे. उन्होंने पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद और चीन के सीमा क्षेत्र उल्लंघन की कोशिशों पर सख्त भाषा में बात की. लेकिन फैसले लेने में सक्षम इस नेता की एक अलग ही छवि देखी गई, जब चंद्रयान मिशन के विफल रहने पर उन्होंने इसरो के प्रमुख को सांत्वना दिया.
भावनाओं की कमी नहीं
मां के साथ, मोर के साथ और संसद भवन की सीढ़ियों पर घुटने के बल झुक जाने की उनकी तस्वीरोंं को विरोधी लोग दिखावा कह सकते हैं, लेकिन भारत में भावनाएं बिकती हैं और उनके पास इसकी कमी नहीं है.
उनके अभियान हर वर्ग और हर आयु के लोगों को लक्षित करते हैं. तो वह टीचर्स डे पर या बोर्ड एग्जाम से पहले विद्यार्थियों से बात करते हैं. उन्होंने अपने आधिकारिक निवास पर बॉलीवुड स्टार अक्षय कुमार को इंटरव्यू दिया, योग करते हुए अपना वीडियो पोस्ट किया और डिस्कवरी चैनल के मैन वर्सेज वाइल्ड सर्वाइवल एक्सपर्ट बियर ग्रिल्स के साथ जंगली घास और नदियों होकर गुजरे.
जमीन पर कान लगाये रहने और आम जनता की धड़कन को सुनने की पीएम मोदी का कौशल हाल के इतिहास में किसी भी नेता से बेहतर रहा है. लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद एक दिन भी छुट्टी नहीं लेने वाले नरेंद्र मोदी को अपने 71वें जन्मदिन पर छुट्टी लेना चाहिए था और इस बात पर विचार करना चाहिये था कि क्या पिछले छह महीने में हालात कुछ बदले हैं.
जनता ने फिर दिया साथ
साल 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने यह संकेत दिया है कि विपक्ष की इस आलोचना को जनता तवज्जो नहीं दे रही है कि मोदी पब्लिसिटी के भूखे हैं, अमीर समर्थक, तानाशाह हैं और हमेशा चुनाव प्रचार वाले मोड में रहते हैं. राहुल गांधी ने तो 'पीएम चोर है' का नारा उछाल दिया था, लेकिन यह नारा और उसके नेता दोनों फेल हो गये और मोदी ने विपक्ष के हथियार को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर लिया.
मई 2019 में मोदी और उनकी सरकार और बेहतर आंकड़ों के साथ वापस आई, क्योंकि पुलवामा आतंकी हमले के बाद बालाकोट में हमारी सेना के स्ट्राइक ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में उनकी छवि को और मजबूत किया.
वह लोगों को यह भरोसा दिलाने में कामयाब रहे कि साल 2016 की नोटबंदी असल में भ्रष्टाचार पर एक प्रहार थी. लोग नकदी के लिए लगी लंबी लाइन और मुश्किलों को भूल गये और 2019 में मोदी में फिर से भरोसा जताया.
लेकिन भारतीय राजनीति में एक साल का समय भी काफी लंबा होता है. महीनों तक कोविड-19 के असर, लॉकडाउन और आर्थिक सुस्ती ने पूरे देश से 'फील गुड फैक्टर' को धूमिल कर दिया है. इस धारणा को गंभीर चुनौती मिल रही है कि मोदी अर्थव्यवस्था को समृद्धि की ओर ले जाने में सक्षम हैं.
लद्दाख में भारत-चीन सेना का टकराव एक राजनीतिक दु:स्वप्न साबित हो रहा है. पाकिस्तान के खिलाफ तो भारतीय सेना बेहतर साबित हो सकती है और बीजेपी आक्रामक पोस्टर लहराते हुए जनता में पाक विरोधी माहौल बना सकती है, लेकिन चीन के खिलाफ सरकार और बीजेपी दोनों संयत हो गये हैं. तलवार भांजने या सीना ठोकने का कोई माहौल नहीं दिख रहा, जिसकी वजह से 'चीन को कड़ा जवाब' देने का जनता में भी कोई उन्माद नहीं है. बीजेपी जानती है कि ऐसे किसी भावना के भड़कने से लोगों की उम्मीदें काफी बढ़ जाएंगी और उनके पूरे न होने पर लोगों में निराशा होगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जानते हैं कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर मिली किसी तरह की हार घातक हो सकती है. इसलिए विपक्ष इसे एक अवसर के रूप में देख रहा है. राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस उनकी कठोर फैसले लेने की छवि पर ही आघात करने की कोशिश करते हुए यह दावा कर रही है कि मोदी चीन से डर गये हैं.
विपक्ष के लिए अवसर
ऐसी तमाम मुश्किलों के बावजूद पीएम मोदी कई मोर्चों पर जोखिम लेने की अपनी विशेषता का प्रदर्शन कर रहे हैं. विपक्ष यह कहकर आलोचना कर रहा है कि पीएम मोदी को अर्थव्यवस्था की समझ नहीं है, लेकिन तमाम शोरगुल के बावजूद कारोबारियों के लिए राहत पैकेज या गरीबों को बड़ी रकम सीधे ट्रांसफर करने के लिए खजाना नहीं खोला है. वह इस संकट का इस्तेमाल अपने 'आत्मनिर्भर भारत' के दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने के लिए कर रहे हैं, जो इस अवधारणा पर आधारित है कि 'सब लोग साथ मिलकर संकट का मुकाबले करें, न कि चम्मच से किसी को खिलाया जाए.' लेकिन नोटबंदी के विपरीत इस योजना को सफल होना ही होगा.
चीन बाज नहीं आ रहा. विवाद के समाधान के लिए कूटनीतिक खिड़की बंद नहीं हुई है, लेकिन सीमा पर भारी मात्रा में सैन्य बल और साजो-सामान की तैनाती, चीनी ऐप्स को बैन करने और भारत में चीन के कारोबारी हितों को चोट पहुंचाते हुए उन्होंने यह संकेत दिया है कि चीन को अपने दरवाजे पर इतनी आसानी से चहलकदमी नहीं करने देंगे.
इन चुनौतियों ने विपक्ष के सामने एक अवसर पैदा किया है कि वह तमाम मसलों पर सरकार से लड़ें. सीएए विरोधी प्रदर्शनों का असर, दिल्ली दंगे, दिल्ली चुनाव में हार, महाराष्ट्र में बीजेपी की पूर्व सहयोगी शिवसेना का झटका, राजस्थान में गहलोत सरकार गिराने की कोशिश में विफलता, राजनीतिक कोलाहल के दौर में केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल, ये सभी फायदा उठाने लायक मसले हैं.
लेकिन यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि विपक्ष असंतोष को किस तरह से हथियार बनाती है और इसका मोदी के खिलाफ इस्तेमाल कर पाती है. इसमें असल बिंदु यह होगा कि सही मसले का चुनाव किया जाए और उनके खिलाफ आरोप तैयार किये जाएं, क्योंकि वह अब भी गरीब समर्थक, ईमानदार और लोगों से असाधारण संपर्क बनाने वाले नेता के रूप में देखे जा रहे हैं.
संकट में प्रमुख विपक्षी दल
कांग्रेस मई 2019 से ही गहरे संकट में है. जवाहरलाल नेहरू से इंदिरा गांधी तक सत्ता हस्तांतरण के बाद पहली बार कांग्रेस नेताओं का एक वर्ग गांधी परिवार की विरासत से जुड़े राहुल गांधी का रास्ता रोकने की कोशिश कर रहा है. वे उन नेताओं से मोर्चा ले रहे हैं जो राहुल को फिर से अध्यक्ष बनाना चाहते हैं और इस घमासान की वजह से ही मोदी के खिलाफ कांग्रेस का हमला सुस्त पड़ रहा है. यदि मई 2019 में विपक्ष की विफलता की मुख्य वजह यह थी कि उसके पास प्रधानमंत्री का कोई चेहरा नहीं था और वह विभाजित दिख रहा था तो अब भी हालात बहुत नहीं बदले हैं.
ऐसे हालात में जब 2019 में विपक्ष की बातों से अप्रभावित रहे मतदाता मुश्किलों का सामना कर रहे हैं और लंबे समय तक शायद वह पुनर्विचार के लिए न रुक पायें, मोदी की महाछवि के मुकाबले एक साफ नेतृत्व का अभाव बीजेपी के फायदों को बनाये रखे हुए हैं. लेकिन विपक्ष एकजुट होकर काम करना शुरू कर दे इसके लिए पहले सरकार को इस संकट से काफी हद तक पार पाना होगा.
जब अच्छे दिन होते हैं तो एक अच्छी मार्केटिंग करने वाले की तरह नरेंद्र मोदी कुछ लक्षित लाभार्थी वर्गों की पहचान कर और अनूठी नई कल्याणकारी योजनाओं तथा पुरानी योजनाओं की रीपैकेजिंग से खास ब्रैंड को उजागर करने में सफल रहते हैं. राहुल गांधी ने जब उनकी सरकार को 'सूट-बूट की सरकार' की तरह पेश किया तो उन्होंने आदेश दिया कि हर योजना में गरीब समर्थक बात होनी चाहिए. लेकिन अब जब लोगों की परेशानियां काफी बढ़ गई हैं और गहरी हो गई हैं, ऐसे वर्ग आधारित विशिष्ट समाधान और तीक्ष्ण अभियान का नतीजा अलग और अनाकर्षक हो सकता है.
नए इलाकों तक पहुंचने की जरूरत
अगर देश के क्षेत्रों और सामाजिक वर्गों की बात करें तो पीएम मोदी को अब नए राजनीतिक क्षेत्र बनाने की जरूरत है. दक्षिण भारत ने उनके नेतृत्व को उतनी मजबूती से स्वीकार नहीं किया है, जितना कि अन्य इलाकों ने और इसी तरह की बात समुदायों के मामले में भी है. गैर हिंदुओं, खासकर मुसलमानों में उनकी लोकप्रियता अभी बहुत कम है.
दूसरी पार्टियों के मुकाबले, जहां उच्च नेतृत्व अनिर्णय की स्थिति में रहता है, मोदी-शाह के नेतृत्व में बीजेपी ने एक कुशल वार मशीन की तरह काम किया है. लेकिन जानकारों को लगता है कि 'मोदीराज' के 6 साल बाद प्रधानमंत्री की लोकप्रियता अब इस पार्टी की बढ़त की कहानी से आगे जा चुकी है. मोदी ब्रैंड की पहचान अब ऐसी हो गई है जो बीजेपी से काफी आगे और काफी गहरी लगती है. एक राजनीति प्रेक्षक कहते हैं, 'साल 2014 में वह मंच के केंद्र में थे. साल 2020 में वही मंच बन गये हैं. इसका पार्टी के लिए नफा और नुकसान दोनों हो सकता है.'
गुरुवार की सुबह 'हैप्पी बर्थडे पीएम मोदी' के संदेश के साथ 10 लाख सेल्फी और शेयर करने का अभियान चलाने वाले एक बीजेपी नेता कहते हैं, 'अपने पिछले जन्मदिन के कई महीने पहले ही उन्हें दूसरा कार्यकाल मिल गया था. इस जन्मदिन पर वह यदि बड़ी चुनौतियों पर काम शुरू करते हैं और सफल रहते हैं तो 17 सितंबर, 2024 को भी वह इसी कुर्सी पर रहेंगे.'