
अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर देशभर में राजनीति गर्म हो गई है. बीजेपी को घेरने के लिए विपक्ष एकजुट हो रहा है. विपक्षी दल के नेता मुलाकात कर रहे हैं. बीजेपी को हराने के लिए रणनीति बना रहे हैं. 23 जून को पटना में एकजुट विपक्ष की तस्वीर पेशकर शक्ति प्रदर्शन की भी तैयारी है, तो वहीं बीजेपी ने भी विपक्ष की किलेबंदी शुरू कर दी है. उसने भी दूसरे दलों को साथ लाने की कवायद शुरू कर दी है. इनमें वे दल भी शामिल हैं, जो अलग-अलग राज्यों में विरोधी दलों के साथ गठबंधन में रहे हैं और पूर्व में बीजेपी के साथ भी गठबंधन में थे. आइए जानते हैं कि बीजेपी की किन क्षेत्रीय दलों पर नजर है? लोकसभा चुनाव में उसे इन दलों से क्या फायदा हो सकता है?
बिहार में 23 जून को विपक्षी दलों की एकजुटता बैठक है लेकिन उससे पहले ही नीतीश कुमार को उसके सहयोगी दल हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा सेक्युलर (HAM) ने झटका दे दिया. इस दल के संस्थापक बिहार के पूर्व सीएम और नीतीश के मित्र जीतन राम मांझी हैं. मांझी के बेटे संतोष समुन बिहार की महागठबंधन सरकार में अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री थे लेकिन 13 जून को उन्होंने नीतीश कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया. बताया जा रहा है कि विपक्षी दलों की बैठक में शामिल होने के लिए नीतीश ने मांझी को न्योता नहीं दिया था, जिससे वह नाराज चल रहे थे.
अमित शाह से मिले थे मांझी
अब वह महागठबंधन के बाहर विकल्प तलाश रहे हैं. उनके बीजेपी के साथ जाने की अटकलें तेज हो गई हैं. इससे पहले 13 अप्रैल को मांझी ने दिल्ली जाकर अमित शाह से मुलाकात की थी, जिसके बाद यह चर्चा शुरू हो गई कि वह 2024 से पहले एनडीए में वापसी कर सकते हैं. हालांकि तब उन्होंने कहा था कि वह हमेशा नीतीश कुमार के साथ ही रहेंगे. इसके बाद उन्होंने नीतीश कुमार से मिलकर 5 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की मांग रख दी. फिर 13 जून को उनके बेटे ने नीतीश कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया. ऐसे में पूरी संभावना है कि बीजेपी महागठबंधन से छिटके मांझी को एनडीए में शामिल करने का मौका हाथ से नहीं जाने देगी.
दलित वोट बैंक पर अच्छी पकड़
जीतन राम मांझी दलित समाज की राजनीति करते हैं और बिहार में करीब 16 फीसदी दलित मतदाता हैं. बिहार में छह लोकसभा और 36 विधानसभा सीटें दलित समुदाय के लिए सुरक्षित हैं. बिहार के दलित नेताओं में जीतन राम मांझी एक प्रमुख नाम है.
यह है HAM की मौजूदा स्थिति
अब बात करते हैं कि जीतन राम मांझी की राजनीतिक ताकत क्या है? अगर 2020 के विधानसभा चुनाव की बात की जाए तो HAM ने सात सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिनमें से 4 सीट पर उसने कब्जा कर लिया था. इन सीटों पर उसे 32.28 फीसदी वोट मिले थे. वहीं 2015 के चुनाव में मांझी ने 21 सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन वह एक सीट की जीत पाए थे. तब उन्हें 26.90 फीसदी वोट मिले थे. हालांकि लोकसभा में उनका कोई नेता नहीं है.
बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) के चीफ चिराग पासवान एक प्रमुख युवा चेहरा हैं. पिता रामविलास पासवान के निधन के बाद लोक जनशक्ति पार्टी में दो फाड़ हो गया था. इसके बाद उन्होंने एनडीए से नाता तोड़ लिया. अप्रैल में हुई राज्य कार्यकारिणी की बैठक में उन्होंने बिहार की सभी लोकसभा और विधानसभा सीटों पर अकेले ही चुनाव लड़ने का फैसला किया है.
2020 के विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने ऐसा ही प्रयोग किया था. बीजेपी को छोड़कर उन्होंने सभी पार्टियों के प्रत्याशियों के सामने अपने उम्मीदवार उतार दिए थे. भले ही वह कोई भी सीट न जीत पाए हों लेकिन उनके इस प्रयोग से जेडीयू को काफी नुकसान हुआ था. तब नीतीश कुमार ने यह आरोप भी लगाया था कि बीजेपी चिराग पासवान के जरिए जेडीयू को कमजोर करना चाहती है.
चिराग को मदद की जरूरत
अभी लोकसभा में लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) से वही एकमात्र सांसद हैं. हालांकि बिहार में उनका कोई विधायक नहीं है लेकिन वह लगातार अपनी पार्टी का कद बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. नगालैंड के विधानसभा चुनाव में उन्होंने 15 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें से दो पर उन्हें जीत हासिल हुई है और बाकी 8 सीटों पर उनकी पार्टी दूसरे स्थान पर रही. उनकी पार्टी को कुल वोटों के लगभग 8.65% के साथ नगालैंड में 'राज्य पार्टी' का दर्जा भी मिल गया है.
मौजूदा हालात में वह केंद्र और राज्य में भी अलग-थलग पड़े हुए हैं. उन्हें खुद को मजबूत करने के लिए एक सहारे की जरूरत है. ऐसे में माना जा रह है कि वह फिर से एनडीए में वापसी कर सकते हैं. बीजेपी भी ऐसे ही मौके की तलाश में हैं, ताकि वह बिहार में नीतीश द्वारा की गई दलितों की किलेबंदी को तोड़ सके.
6 फीसदी वोट पर पकड़
पिछले साल जनवरी 2022 में भारतीय सबलॉग पार्टी ने उनकी पार्टी में अपना विलय भी कर लिया है. ऐसा माना जाता है कि बिहार में 16 फीसदी दलित वोट बैंक में से 6 फीसदी वोट बैंक पर चिराग पासवान की पार्टी का एकाधिकार है. दरअसल यह पासवान समाज का वोट बैंक है.
यूपी में पिछले दिनों सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने बेटे अरुण की शादी में नई सियासी तस्वीर उभरकर सामने आई. इसी के बाद चर्चा का बाजार गर्म हो गया कि लोकसभा चुनाव से पहले राजभर बीजेपी के साथ भविष्य की संभावनाएं तलाश रहे हैं.
दरअसल उनके बेटे को शादी में शुभकामनाएं देने बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी के अलावा डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य, कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही, जल संसाधन मंत्री स्वतंत्र देव सिंह, खेलमंत्री गिरीश चंद्र यादव, बलिया सांसद वीरेंद्र सिंह मस्त समेत कई अन्य बीजेपी विधायक पहुंचे थे. पीएम नरेंद्र मोदी ने भी उन्हें बधाई संदेश भेजा है.
पिछले महीने जब डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक अमेठी दौरे पर गए थे तब उनसे मीडिया ने पूछा था कि क्या बीजेपी लोकसभा चुनाव से पहले सुभासपा के साथ गठबंधन करेगी तो इस पर उन्होंने कहा था, "यह तो समय ही बताएगा लेकिन ओम प्रकाश राजभर हमारे मित्र हैं. वह कहीं भी रहें, लेकिन लंबे समय से हमारे साथ हैं, हमारी मित्र मंडली में हैं."
2017 में बीजेपी के साथ गठबंधन में थे राजभर
2017 के विधानसभा चुनाव में सुभासपा ने बीजेपी से गठबंधन में चुनाव लड़ा था. तब उन्होंने चार सीटों पर कब्जा कर लिया था. उन्हें योगी कैबिनेट में मंत्री भी बनाया गया था. हालांकि बाद में उनका गठबंधन तोड़ दिया था. इसके बाद 2022 में उन्होंने सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा, 4 सीटें जीतीं फिर सपा से भी रिश्ता तोड़ दिया. मौजूदा हालात को देखने से लग रहा है कि बीजेपी उनके साथ लोकसभा चुनाव से पहले गठबंधन कर सकती है.
सुभासपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में 8 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें वह चार सीटें जीतने में कामयाब रही थी. इन सीटों पर 34.14 फीसदी वोट मिले थे. इसके बाद 2022 के चुनाव में राजभर ने 19 सीटों पर चुनाव लड़ा था. इसमें इन्होंने 6 सीटों पर कब्जा कर लिया. इन सीटों पर इन्हें 29.77 फीसदी वोट मिले.
हालांकि लोकसभा में सुभासपा का कोई सांसद नहीं है. हालांकि 2014 में पार्टी ने लोकसभा चुनाव में अपनी किस्मत आजमायी थी. राजभर ने 13 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था लेकिन सभी की जमानत जब्त हो गई थी. उन्हें कुल 1,18,947 वोट मिले थे.
पूर्वांचल में अति पिछड़ी जातियों पर पकड़
ओपी राजभर अति पिछड़ों की राजनीति करते हैं. वह खुद को पूर्वांचल की राजनीति की धुरी मानते हैं. यूपी में 17 अति पिछड़ी जातियां मानी जाती हैं. इनकी आबादी करीब 13.38 फीसदी से ज्यादा है. वहीं राजभर समाज की आबादी करीब 1.32 फीसदी है. यूपी में पूर्वांचल के 10 जिलों से 13 सांसद चुने जाते हैं. वहीं विधानसभा की 164 सीटें भी पूर्वांचल में आती हैं.
बीजेपी के हाथ से उसका दक्षिण का एकमात्र दुर्ग कर्नाटक छिन गया है. लोकसभा चुनाव से पहले इसे बीजेपी के लिए एक बड़ा झटका माना जा रहा है. ऐसे में बीजेपी ने दक्षिण में अपने नए दोस्तों की तलाश शुरू कर दी है. बीजेपी की इस कवायद में वे दल पहली प्राथमिकता में हैं, जो पहले कभी एनडीए के साथ थे. इन दलों में जेडीएस का नाम शामिल है. ऐसा माना जा रहा है कि बीजेपी लोकसभा चुनाव से पहले इस दल से गठबंधन कर सकती है.
जेडीएस ने की 4 सीटों की मांग
पिछले महीने सूत्रों के हवाले से खबर आई थी कि कर्नाटक में ही बीजेपी और जेडीएस के बीच गठबंधन को लेकर बातचीत शुरू हो गई थी. जेडीएस ने बीजेपी से लोकसभा चुनाव के लिए चार सीटों की मांग की है.
देवगौड़ा दे चुके हैं गठबधंन के संकेत
बीजेपी के साथ गठबंधन के सवाल पर देवगौड़ा ने कहा था कि देश में कोई ऐसी पार्टी है, जो बीजेपी के साथ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से न जुड़ी रही हो. हालांकि एचडी कुमारस्वामी ने बीजेपी के साथ गठबंधन की खबरों से इनकार कर दिया था. हालांकि जेडीएस का अभी केवल एक ही सांसद है.
वोक्कालिगा समुदाय में मजबूत पकड़
एचडी देवगौड़ा वोक्कालिगा समुदाय से आते हैं, इसलिए यह समुदाय उनका कोर वोटबैंक माना जाता है. प्रदेश में इस समुदाय के लोगों की आबादी करीब 12 फीसदी है.
यह है जेडीएस की मौजूदा स्थिति
इस बार हुए विधानसभा चुनाव में उनकी 19 प्रत्याशी ही चुनाव जीतने में सफल रहे. जबकि इससे पहले वाले चुनाव में जेडीएस ने 37 सीटें जीती थीं. वहीं बीजेपी की सीटों भी 104 से घटकर 66 हो गई हैं. ऐसे में कहा जा सकता है कि कर्नाटक में लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने के लिए दोनों की पार्टियों को एक-दूसरे के साथ की जरूरत पड़ेगी.
दक्षिण में बीजेपी की नजर अपने पुरानी साथ चंद्रबाबू नायडू पर भी है. लोकसभा चुनाव से पहले दोनों दलों के बीच गठबंधन की पूरी संभावना है. वैसे इसकी नींव इस साल हुए पोर्ट ब्लेयर के नगर परिषद के चुनाव में पड़ चुकी है. यहां दोनों दलों ने गठबंधन में चुनाव लड़ा था और चुनाव जीत भी लिया था. इसके बाद मई में पीएम मोदी ने भी 'मन की बात' कार्यक्रम में एन टी रामाराव की जयंती पर उन्हें याद कर टीडीपी के साथ दोस्ती का संकेत दिया था. इसके बाद उनके साथ आने की अटकलें और बढ़ गईं. अब इस महीने के शुरुआत में टीडीपी अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू ने दिल्ली में गृहमंत्री अमित शाह और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा से मुलाकात की थी. ऐसा कहा गया कि लोकसभा चुनाव में गठबंधन को लेकर तीनों नेताओं के बीच बातचीत हुई है.
तेलंगाना चुनाव से पहले गठबंधन की उम्मीद
तेलंगाना विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी और टीडीपी के गठबंधन पर मुहर लग जाएगी. बीजेपी और टीडीपी ना सिर्फ आंध्र प्रदेश में बल्कि तेलंगाना विधानसभा चुनाव और 2024 का लोकसभा चुनाव भी गठबंधन के तहत लड़ेंगे. यह मुलाकात इसलिए भी अहम थी क्योंकि तेलंगाना में इस साल तो अगले साल लोकसभा व आंध्रप्रदेश में विधानसभा चुनाव हैं.
2014 में एनडीए के साथ ही टीडीपी
दोनों का साथ आना कोई नई बात नहीं होगी. दरअसल टीडीपी 2014 में एनडीए का ही हिस्सा था लेकिन आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने के मुद्दे पर टकराव के बाद टीडीपी 2018 में एनडीए से नाता तोड़ दिया था. इसका नतीजा यह हुआ था कि आंध्र प्रदेश के विधानसभा चुनाव में टीडीपी को 23 तो लोकसभा में तीन सीटें मिली थीं जबकि बीजेपी के खाते में एक भी सीट नहीं आई थी. वहीं तेलंगाना में टीडीपी के दो तो बीजेपी के एक विधायक ही अपनी जीत दर्ज करा पाए थे.
यह है टीडीपी की मौजूदा स्थिति
2019 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने टीडीपी से अलग दूसरी पार्टी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था, लेकिन वह केवल एक सीट ही जीत पाई थी. उसने 5.53 प्रतिशत वोट मिले थे. वहीं टीडीपी ने 23 सीटों पर जीत दर्ज कराई थी और उसे 39.17 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे. इसी तरह पिछले लोकसभा चुनाव में टीडीपी के खाते में तीन सीटें आई थीं और उसे 39.59 प्रतिशत वोटों मिले थे, जबकि बीजेपी को एक प्रतिशत से भी कम वोट मिला था. ऐसे में साफ है कि टीडीपी को अपनी राजनीतिक ताकत वापस पाने के लिए जिनती बीजेपी की जरूरत है, उससे कहीं ज्यादा बीजेपी को टीडीपी की जरूरत है. वैसे 2019 में सत्ता खोने के बाद से ही नायडू खोई जमीन वापस पाने के लिए लगातार जनसंपर्क कर रहे हैं.