
विशेष पीएमएलए कोर्ट ने शिवसेना नेता और राज्यसभा सांसद संजय राउत को 4 अगस्त तक ईडी की हिरासत में भेज दिया है. राउत को एक हजार करोड़ से अधिक के पात्रा चॉल घोटाले से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में गिरफ्तार किया गया है.
61 वर्षीय राउत न सिर्फ अपनी पार्टी शिवसेना में बल्कि महाराष्ट्र की सियासत में भी अहम शख्सियत माने जाते हैं. शिवसेना के प्रवक्ता राउत हमेशा पार्टी के मुखपत्र सामना में अपने उग्र संपादकीय लेखों के लिए सुर्खियों में रहे हैं.
उनके शायरीभरे ट्वीट्स और हर सुबह मीडियाकर्मियों के सामने उनके एनिमेटेड साउंड बाइट्स भी अलग अंदाज में नजर आते हैं. मीडिया में उनकी दिलचस्प मौजूदगी की तरह ही एक क्राइम रिपोर्टर से राजनीति में एक अहम शख्सियत बनने तक का उनका सफर भी उतना ही दिलचस्प रहा है.
क्राइम रिपोर्टर के रूप में पहचान
संजय राउत मुंबई उपनगर के भांडुप गांव के निवासी हैं. राउत ने एक क्राइम रिपोर्टर के रूप में अपना करियर 'लोकपरभा' नामक साप्ताहिक के साथ शुरू किया था. ये वो दिन थे जब मायानगरी में गैंगवार और अंडरवर्ल्ड की गतिविधियां चरम पर थीं. दाऊद तब तक देश छोड़कर भागा नहीं था. कुछ साल पहले पुणे में एक समारोह के दौरान राउत ने दावा किया था कि एक क्राइम रिपोर्टर के तौर पर वह दाऊद से कई बार न्यूज स्टोरी के स्रोत के तौर पर मिले थे.
शिवसेना के मुखपत्र सामना में एंट्री
राउत के काम ने शिवसेना संस्थापक स्वर्गीय बालासाहेब ठाकरे का ध्यान अपनी तरफ खींचा था. वो 80 का दशक था, जब राउत ने शुरुआती दिनों में बालासाहेब द्वारा स्थापित कार्टून पत्रिका मार्मिक के लिए काम करना शुरू किया था. पार्टी का मुखपत्र सामना शुरू करने के कुछ वर्षों के भीतर, ठाकरे ने संपादकीय जिम्मेदारी संभालने के लिए राउत को चुना था.
अखबार के लिए दैनिक संपादकीय लिखने वाले राउत वरिष्ठ ठाकरे के करीबी हो गए. राउत ने बालासाहेब के अंदाज को बड़ी चतुराई से अपनाया था. बालासाहेब द्वारा अपनी विशाल रैलियों में इस्तेमाल की जाने वाली तीक्ष्ण और मजाकिया भाषा, बिल्कुल प्रिंट में परिलक्षित होती है, जिससे पाठक हैरान होते थे कि वे वास्तव में खुद शिव सेना प्रमुख द्वारा लिखे गए थे. जब शिवसेना सत्ता में थी और मनोहर जोशी मुख्यमंत्री थे, तब राउत के संपादकीय ने सीएम को भी नहीं बख्शा था.
राज ठाकरे के साथ निकटता
राउत के केवल बालासाहेब के ही करीबी नहीं थे, बल्कि वह राज ठाकरे के भी करीबी थे, जो उस समय पार्टी की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी सेना के प्रमुख थे. दरअसल, जब राज और उद्धव के बीच चीजें मुश्किल हो गईं तो राउत ने दोनों के बीच मध्यस्थता करने की कोशिश की थी. नाराज राज समर्थकों ने उस समय राज के शिवाजी पार्क निवास के बाहर राउत की कार में तोड़फोड़ की थी. लेकिन राज से निकटता के बावजूद राउत ने उद्धव के साथ रहना पसंद किया. उनके विश्वास के साथ-साथ उन्होंने उप नेता का पद भी जीता.
संसद में एंट्री
शिवसेना सुप्रीमो को संसद में सबसे अधिक पत्रकारों को भेजने के लिए जाना जाता है. जिनमें विद्याधर गोखले, संजय निरुपम से लेकर प्रीतीश नंदी और भरतकुमार राउत तक के नाम शामिल हैं. राउत को 2004 में राज्यसभा सीट से भी नवाजा गया था. नारायण राणे के बाहर निकलने और राज ठाकरे के विद्रोह के बाद उनके संपादकीय ने उन्हें 2010 में प्रतिष्ठित शिवसेना नेता का पद दिलाया था. यह वो समय था, जब उद्धव अपने कठिन समय के पहले चरण का सामना कर रहे थे. बालासाहेब बूढ़े हो रहे थे और मनसे ने शिवसेना के वोट बैंक में भारी सेंध लगा दी थी. शिवसेना प्रमुख को कांग्रेस (यूपीए) के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार का समर्थन करने के लिए राजी करने में राउत की सक्रिय भूमिका थी. जिसने राष्ट्रीय टेलीविजन पर उन्हें एक जाना पहचाना चेहरा बना दिया था.
महा विकास अघाड़ी के वास्तुकार
लोकसभा चुनाव के बाद 2014 में शिवसेना और बीजेपी कुछ समय के लिए अलग हो गए थे. भगवा सहयोगियों ने 2014 का विधानसभा चुनाव अलग होकर लड़ा था. नवंबर 2012 में बाल ठाकरे के निधन के बाद यह पहला चुनाव था जब शिवसेना मोदी लहर पर सवार भाजपा की ताकत के खिलाफ भी लड़ रही थी. राउत के उग्र संपादकीय और बालासाहेब की शैली वाले उनके अंदाज ने पार्टी को जीवित रखा. शिवसेना के अंततः राज्य और केंद्र दोनों में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार में शामिल होने के बाद भी राउत मोदी सरकार पर भारी पड़ते रहे. नोटबंदी और जीएसटी के बाद के उनके संपादकीय ने भाजपा को काफी नाराज किया था.
राउत के इस स्टैंड ने उन्हें भाजपा कैडर के बीच अलोकप्रिय बना दिया. 2019 के विधानसभा चुनावों के बाद राउत ने एनसीपी और कांग्रेस के साथ शिवसेना का असंभव गठबंधन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. चुनाव परिणामों के तुरंत बाद राउत के 'मुख्यमंत्री तो शिवसेना का ही होगा' वाला बयान बहुत चर्चा में रहा था. शुरुआत में ऐसी भी अटकलें थीं कि उद्धव राउत को मुख्यमंत्री के रूप में चुन सकते हैं, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ.
सभी के दोस्त माने जाते हैं संजय राउत
90 के दशक के आखिर में समाजवादी पार्टी के अमर सिंह को राष्ट्रीय राजनीति में सभी का दोस्त होने के लिए जाना जाता था. राउत का कद राष्ट्रीय राजनीति में समान रूप से बढ़ रहा था. राकांपा प्रमुख शरद पवार के साथ उनकी निकटता की वजह से अक्सर उनकी पार्टी के नेताओं के साथ-साथ उनके राजनीतिक विरोधी भी उनकी आलोचना करते थे. एकनाथ शिंदे के साथ गए बागी विधायकों ने राउत पर शरद पवार के इशारे पर पार्टी की विचारधारा का त्याग करने का आरोप लगाया था. राउत ने कई बार पीएम पद के लिए पवार का नाम भी लिया. यहां तक कि वो, राहुल गांधी के भी करीब आ गए थे और उद्धव के मुख्यमंत्री रहते राउत ने उन्हें मातोश्री में आमंत्रित किया था.
फिल्म निर्माता भी हैं संजय राउत
संजय राउत अपनी बेटियों को प्रसिद्ध मराठी कवियों की कविताएं सुनाते हैं और खाली समय में हारमोनियम बजाना पसंद करते हैं. दिल से कला प्रेमी राउत ने बतौर निर्माता दो फिल्मों का निर्माण किया, जो उनके गुरु बालासाहेब ठाकरे पर आधारित थीं.
उन्होंने 'बालकाडु' नामक एक फिल्म का निर्माण किया, जो एक काल्पनिक कहानी है कि कैसे एक मराठी युवा बालासाहेब की आवाज सुनकर सामाजिक बुराई के खिलाफ खड़ा होता है. राउत ने चर्चित बॉलीवुड फिल्म बालसाहेब की बायोपिक 'ठाकरे' के साथ बड़ा काम किया, जिसमें नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने शीर्षक भूमिका निभाई थी. राउत ने न केवल ठाकरे फिल्म के सीक्वल की घोषणा की, बल्कि जॉर्ज फर्नांडीस की बायोपिक बनाने की इच्छा भी जाहिर की.
राउत को राज्य की राजनीति में कई पहलुओं वाले शख्स के तौर पर जाना जाता है. एक क्राइम रिपोर्टर से शिवसेना के वास्तविक नंबर दो बनने तक उनका सफर भी उतना ही खास रहा है. अब राउत अपने जीवन के सबसे बड़े विवाद में उलझे हुए हैं. उन्हें प्रवर्तन निदेशालय ने एक हजार करोड़ के मनी लॉन्ड्रिंग मामले में गिरफ्तार किया है. राउत पर स्वप्ना पाटकर नाम की एक महिला ने गाली-गलौज और धमकी देने का भी आरोप लगाया है. पिछले तीन दशकों में राजनीति में राउत का उदय कमाल का रहा है, लेकिन क्या ईडी का केस उनके पतन की वजह बनेगा, अब यही देखना बाकी है.