
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को आज लगभग 24 साल बाद एक ऐसा अध्यक्ष मिलने जा रहा है जो गांधी परिवार से नहीं हैं. लगभग 50 सालों तक सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहने वाले कर्नाटक की दलित राजनीति के पोस्टर ब्वॉय मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस के नए बॉस बनने वाले हैं.
खड़गे होने का क्या मतलब होता है ये जानने के लिए मात्र ये समझिए कि 1972 में उन्होंने जिस सीट से विधायिकी जीतकर अपने राजनीतिक सफर का औपचारिक आगाज किया था उसी सीट से वे लगातार 2004 तक जीते. यानी कि उन्होंने 32 साल तक लगातार एक ही सीट से जीत हासिल की. जब राजनीतिक महात्वाकांक्षा और पार्टी के प्रति वफादारी का सवाल आता है तो खड़गे ऐसी लकीर खींच गए हैं जिसे क्रॉस कर पाना आसान नहीं है.
तीन बार सीएम बनते बनते रहे
कर्नाटक की राजनीति में तीन बार ऐसा मौका आया जब खड़गे सीएम बनने वाले थे. लेकिन हर बार राजनीतिक समीकरणों ने ये मौका उनके हाथ से छीन लिया. मगर खड़गे न रुठे और न ही बागी हुए. उन्होंने व्यक्तिगत चाहत को दरकिनार किया और निष्ठा के साथ पार्टी की नीतियों और सिद्धांतों के प्रति समर्पित रहे.
लेकिन खड़गे के करियर के शुरुआती दिनों में एक ऐसा मौका आया था जब वे इंदिरा के खिलाफ बागी हो गए थे और अपने राजनीतिक गुरु कर्नाटक के पूर्व सीएम देवराज उर्स के साथ हो लिए और कांग्रेस छोड़ दी थी. लेकिन कांग्रेस की जड़ों से दूर खड़गे को ये राजनीति रास नहीं आई और वे कुछ ही दिनों में कांग्रेस में वापस हो गए.
देवराज उर्स बने राजनीतिक गुरु
1942 में कर्नाटक के बीदर में जन्में मल्लिकार्जुन खड़गे युवा होकर वकालत की डिग्री ली. उन्होंने शुरुआती दिनों में लेबर यूनियन का केस लड़ा और लोकप्रियता हासिल की. छात्र जीवन से ही खड़गे का रुझान राजनीति की ओर था. 1969 में वह कांग्रेस में शामिल हो गए. तब देवराज उर्स कर्नाटक में कांग्रेस के कद्दावर नेता थे. खड़गे ने देवराज उर्स को अपना मेंटर बना लिया. जब 1972 का विधानसभा चुनाव आया तो देवराज उर्स ने उन्हें गुरमितकल सीट से लड़ने की सलाह दी. इस सीट पर अगड़ी जातियों का बोलबाला था और खड़गे की छवि दलित नेता की थी. लेकिन देवराज उर्स की सलाह पर वे इस सीट से अपना पहला विधानसभा चुनाव लड़ने उतर गए.
देवराज उर्स की सलाह काम आई खड़गे मात्र 30 साल की उम्र में इस सीट से जीतकर विधायक बन गए. इसके बाद उन्होंने देवराज उर्स को अपना राजनीतिक गुरु मान लिया. इसके बाद खड़गे लगातार इस सीट से 9 बार यानी की 2008 तक जीतते रहे.
इंदिरा से अलगाव फिर जुड़ाव
इसी दौरान 1970 के दशक के आखिरी दिनों में वो समय आया जब खड़गे कांग्रेस से कुछ दिनों के लिए अलग हो गए. हालांकि 1969 में जब कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गई तो खड़गे इंदिरा के साथ ही थे. 1972 के विधानसभा चुनाव में देवराज उर्स की अगुवाई में इंदिरा गुट वाली कांग्रेस (R) ने विधानसभा चुनाव में शानदार बहुमत प्राप्त किया. इसी चुनाव में खड़गे भी जीते थे. इस दौरान देवराज उर्स भी इंदिरा के साथ ही गए थे. लेकिन 1979 में देवराज उर्स का इंदिरा के साथ विवाद हो गया और उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी.
अपने राजनीतिक गुरु के नक्शे कदम पर चलते हुए खड़गे ने भी इंदिरा का साथ छोड़ दिया और देवराज उर्स के साथ आ गए. लेकिन काग्रेस की खड़गे से दूरी मात्र कुछ महीनों की रही. कांग्रेस से अलग होकर देवराज उर्स ने अलग पार्टी कांग्रेस उर्स बना ली थी. लेकिन 1980 के लोकसभा चुनाव में इस पार्टी को कामयाबी नहीं मिली और इसे कर्नाटक में मात्र 1 सीट मिली, अबतक देवराज उर्स के साथ जुड़े नेताओं का मोहभंग होने लगा था. मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी देवराज उर्स का साथ छोड़ दिया और फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए. इसके बाद कांग्रेस और मल्लिकार्जुन खड़गे एक दूसरे के लिए हो गए.
2014 में कांग्रेस को हिन्दी पट्टी की जनता ने जाना
2014 का लोकसभा चुनाव भले ही कांग्रेस के लिए अच्छी खबर नहीं लेकर आया हो लेकिन इस चुनाव के बाद खड़गे को कांग्रेस ने बड़ी जिम्मेदारी दी. 44 सीटों पर सिमटी कांग्रेस ने गुलबर्गा सीट से जीत कर आए खड़गे को नेता प्रतिपक्ष नियुक्त किया. खड़गे ने महाभारत को याद करते हुए एक बार कहा था, "लोकसभा में भले ही हमारी संख्या 44 हो लेकिन ये पांडव सौ कौरव से कभी नहीं डरने वाले हैं." इसके बाद अगले 5 साल तक उन्होंने लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का रोल निभाया. दक्षिण भारत से आने के बावजूद खड़गे अच्छी हिन्दी बोलते हैं और लोकसभा में धारा प्रवाह बोलते हैं.
80वें जन्मदिन पर खड़गे की एनर्जी
21 जुलाई 2022 को पार्लियामेंट स्ट्रीट पर जबरदस्त हंगामा हुआ. ED ने सोनिया गांधी को पूछताछ के लिए तलब किया हुआ था. कांग्रेस ने बड़ा विरोध प्रदर्शन आयोजित किया हुआ था. 21 जुलाई ही खड़गे का जन्मदिन होता है. खड़गे ने अपने बर्थ डे जुड़े सभी जश्न रद्द कर दिए और पार्टी नेताओं की दिग्गज टीम लेकर सरकार के खिलाफ सड़क पर उतर गए. माना जाता है कि खड़गे का कमिटमेंट कांग्रेस आलाकमान को प्रभावित कर गया.
सोनिया जी से क्यों न सलाह लूं
कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव से पहले के अपने इंटरव्यू में खड़गे बड़ी साफगोई से कहते हैं कि वे अगर अध्यक्ष बन भी जाते हैं तो अपने रोजाना के फैसलों में सोनिया गांधी और गांधी परिवार के दूसरे सदस्यों की राय लेने में नहीं हिचकेंगे. इसके पीछे का तर्क देते हुए खड़गे कहते हैं कि उनके पास कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर 20 सालों का अनुभव है, उन्होंने पार्टी और सरकार के हित में अच्छे फैसले लिए हैं, आखिर मुझे उनकी सलाह क्यों नहीं लेनी चाहिए.
खड़गे की जिंदगी का X फैक्टर
मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस अध्यक्ष बनने वाले दूसरे दलित नेता हैं. इसस पहले जगजीवन राम (1970-71) में कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे. खड़गे के अध्यक्ष बनने के साथ ही कांग्रेस के संगठन में कर्नाटक के दो बड़े नेता शामिल हो गए हैं. कर्नाटक के बीवी श्रीनिवास पहले से ही यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष हैं.
खड़गे से पहले एस निजलिंगप्पा (1968-69) भी कर्नाटक से ऐसे कांग्रेस नेता हैं जो पार्टी के अध्यक्ष रह चुके हैं.
खड़गे ने अपने राजनीतिक जीवन में 12 चुनाव लड़ा है. इनमें से मात्र 2019 में ही वे हारे हैं.
2009 में डॉ मनमोहन सिंह ने खड़गे को पहले श्रम मंत्री फिर रेलवे और सामाजिक कल्याण मंत्री का पोर्टफोलिया दिया.
कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के साथ ही मल्लिकार्जुन खड़गे ने 80 साल की उम्र में उस चुनौती को हाथ में लिया है जिसे लेकर कई लोगों के मन में कई आशंकाएं हैं. लेकिन खड़गे चुनौतियां लेने के लिए ही जाने जाते हैं.