
कुछ ही महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले देश की सियासत एक नए मुहाने पर खड़ी है. बिहार में जातिगत जनगणना के बाद आरक्षण की सीमा बढ़ाकर 75 फीसदी तक करने के प्रस्ताव को नीतीश कुमार की कैबिनेट ने हरी झंडी दे दी है. जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी को लेकर भी चर्चा छिड़ी हुई है. इसे कोई नए सियासी युग का आगाज बता रहा है तो कोई मंडल 2.0 कह रहा है.
विपक्ष को नीतीश सरकार के इस दांव में 2024 चुनाव के लिए विनिंग फॉर्मूला दिख रहा है तो बात भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की भी हो रही है. बीजेपी इस दांव की काट कैसे करेगी? फिर वही मंडल, वही कमंडल की बात हो रही है लेकिन तब के नायक यानी लालकृष्ण आडवाणी अब नेपथ्य में हैं.
लालकृष्ण आडवाणी का एक दिन पहले ही जन्मदिन भी था. ऐसे में ये सवाल और भी मौजूं हो जाता है कि क्या बीजेपी इस बार भी वही आडवाणी वाला फॉर्मूला आजमाएगी जिसके बूते पार्टी ने केंद्र की सत्ता तक का, लोकसभा में दो से 300 से अधिक सीटों तक का सफर तय कर लिया? या नरेंद्र मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा की 'त्रिमूर्ति' कोई नया दांव चलेगी? इसकी तह में जाने से पहले मंडल की राजनीति क्या है और क्या है इसकी काट में आडवाणी का फॉर्मूला? इसकी चर्चा भी जरूरी है.
दरअसल, जनता पार्टी की सरकार ने बीपी मंडल के नेतृत्व में ओबीसी जातियों की सामाजिक और आर्थिक, शैक्षणिक स्तर का आकलन करने के लिए बीपी मंडल के नेतृत्व में एक आयोग गठित किया था. इसे ही मंडल आयोग कहा जाता है. मंडल आयोग को इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार में दो बार कार्यकाल विस्तार भी मिला. मंडल आयोग की रिपोर्ट कांग्रेस की सरकारों ने ठंडे बस्ते में डाले रखा.
ये भी पढ़ें- जातिगत जनगणना के बाद अब 65% आरक्षण का दांव... नीतीश कुमार ने क्लियर ने कर दी 2024 की लाइन
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी से अनबन के बाद वीपी सिंह ने कांग्रेस छोड़कर जनता दल नाम से अलग पार्टी बना ली. तब विश्व हिंदू परिषद राम मंदिर आंदोलन की अगुवाई कर रहा था और बीजेपी भी हिंदुत्व को धार देकर अपना सियासी आधार मजबूत करने में जुटी थी. साल 1989 के चुनाव में बीजेपी को 85 सीटों पर जीत मिली लेकिन यह आंकड़ा उतना भी नहीं था कि पार्टी सरकार बना ले.
ये भी पढ़ें- बिहार में आरक्षण का नया दांव... क्या सर्वे की इन 5 खामियों को छिपाना चाहते हैं सीएम नीतीश?
तब लालकृष्ण आडवाणी बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हुआ करते थे. पार्टी ने जनता दल को समर्थन देने का फैसला लिया और वीपी सिंह के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ. शुरुआत में तो सब सामान्य चला लेकिन दिक्कतें शुरू हुई चंद्रशेखर और देवीलाल की मजबूत होती इमेज और पार्टी पर पकड़ से. तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह को इन दोनों नेताओं से खतरा महसूस होने लगा और वह अब ऐसी कोई तरकीब सोचने लगे जिससे कोई साथ रहे या न रहे, एक ऐसा वोट बैंक खड़ा किया जा सके जो उनके प्रति लॉयल हो.
साल 1990 में वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिश के मुताबिक ओबीसी आरक्षण का ऐलान कर दिया. सरकार के इस कदम के बाद देशभर में विरोध प्रदर्शन होने लगे, एक आंदोलन खड़ा हो गया. हिंदू राजनीति को धार देकर जातीय अस्मिता से ऊपर अपना वोट बैंक खड़ा करने की कोशिशों में जुटी बीजेपी के लिए यह एक झटके की तरह थी. हिंदुत्व के भाव पर जातीय अस्मिता हावी होने लगी.
ये भी पढ़ें- नीतीश का एक दांव और बदल जाएगा बिहार में आरक्षण का सिस्टम... जानें क्या कुछ बदलेगा
वीपी सिंह को इस फैसले के बाद ओबीसी वोट बैंक के अपने साथ खड़े रहने की उम्मीद थी तो वहीं बीजेपी के लिए हिंदुत्व पर जातीय भावना का भारी पड़ना किसी कुठाराघात से कम नहीं था. बीजेपी अभी इसकी काट कर अपनी राजनीति बचाने के उपायों पर मंथन कर ही रही थी कि वीपी सिंह सरकार ने पैगंबर मोहम्मद के जन्मदिन पर राष्ट्रीय अवकाश का ऐलान कर दिया. इस ऐलान के करीब एक महीने बाद बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष और हिंदुत्व के पोस्टर बॉय लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा शुरू कर दी.
मंडल की काट का 'आडवाणी फॉर्मूला'
बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा बिहार में लालू यादव के नेतृत्व वाली जनता दल की ही सरकार ने रोक दी. आडवाणी की गिरफ्तारी हुई तो अटल बिहारी वाजपेयी ने ये भी खुलासा किया था कि जनता दल ने रथयात्रा में बाधा नहीं डालने का वादा किया था. अंदर उभरे मतभेद गहरे हुए और वीपी सिंह सरकार एक साल का कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाई.
खैर, आडवाणी के फॉर्मूले में केवल हिंदुत्व ही नहीं था. इसमें जातीय भावना की धार भी थी. उन्होंने सियासत की नजाकत को भांपते हुए अलग-अलग राज्यों में ओबीसी लीडरशिप को आगे करना भी शुरू कर दिया. यूपी जैसे राज्य में कल्याण सिंह जैसे नेता का उभार आडवाणी की इसी रणनीति का हिस्सा बताई जाती है.
इस बार क्या है बीजेपी की रणनीति?
बिहार सरकार ने जिस तरह जातिगत जनगणना के बाद आरक्षण की सीमा बढ़ाने का दांव चला है, कहा तो यही जा रहा है कि बीजेपी फंस गई है. बिहार बीजेपी के अध्यक्ष सम्राट चौधरी ने कहा है कि हम बिहार सरकार के ऐसे प्रस्ताव का समर्थन करेंगे. अमित शाह भी कह चुके हैं कि हमने बिहार में जातिगत जनगणना का समर्थन किया था. लेकिन सवाल ये भी उठ रहे हैं कि क्या बीजेपी और उसके पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की हिंदुत्व वाली अवधारणा को कितना सूट करेगा?
बदली परिस्थितियों में बीजेपी की रणनीति भी देखें तो पिछले कुछ महीनों में पार्टी आडवाणी के फॉर्मूले पर ही बढ़ती दिख रही है. पीएम मोदी ने ये कहकर कि हिंदुओं की संख्या सबसे अधिक है. बहुसंख्यक हिंदू अपना हक ले लें न? ये कहकर साफ कर दिया कि पार्टी हिंदुत्व को धार देगी. दूसरी तरफ, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा से लेकर तमाम केंद्रीय मंत्री और नेता ओबीसी विधायक, मंत्री, प्रदेश अध्यक्ष आदि की संख्या गिनाने के साथ ही खुद पीएम मोदी के भी इसी समाज से आने का जिक्र कर ओबीसी अस्मिता को सभी साधे रखने की कवायद में जुटे नजर आ रहे हैं.
बीजेपी के पास है प्लान बी भी
जातिगत जनगणना और आरक्षण बढ़ाने के दांव की काट के लिए हिंदुत्व को धार देने का प्लान बी भी बीजेपी के पास है. लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जनवरी में ही राम मंदिर का लोकार्पण होना है. भव्य मंदिर में रामलला की मूर्ति स्थापना और प्राण प्रतिष्ठा को लेकर बीजेपी ने अभी से ही माहौल बनाना भी शुरू कर दिया है. हर घर अक्षत जैसे अभियानों के जरिए भी घर-घर पहुंचने की तैयारी है तो साथ ही पार्टी ने समान नागरिक संहिता का तीर भी अपने तरकश में अब तक बचाकर रखा है. कहा तो ये भी जा रहा है कि अगर चीजें विपरीत जाती नजर आईं तो पार्टी चुनाव से पहले संसद के अंतिम सत्र में यूसीसी बिल ला सकती है.