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नई शिक्षा नीति को क्यों कहा जा रहा है आरक्षण पर चोट, क्या हैं शंकाएं?

देश को 34 साल बाद मिली नई शिक्षा नीति को सरकार आने वाले समय में शिक्षा क्षेत्र में क्रांति का संकेत बता रही है तो कुछ लोगों की अपनी आशंकाएं भी हैं. इसी कड़ी में सीपीआई महासचिव सीताराम येचुरी ने हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर पूछा था कि क्या नई शिक्षा नीति से शिक्षण संस्थानों में आरक्षण नीति समाप्त करने का विचार है. इस पर केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि नई शिक्षा नीति में आरक्षण बरकरार रहेगा.

नई शिक्षा नीति से आरक्षण क्यों खतरा नई शिक्षा नीति से आरक्षण क्यों खतरा
कुबूल अहमद
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  • 03 दिसंबर 2020,
  • अपडेटेड 2:00 PM IST
  • नई शिक्षा नीति में आरक्षण शब्द का जिक्र नहीं है
  • ST-ST और OBC समाज को आरक्षण का खतरा
  • सरकार दिला रही भरोसा कि नहीं खत्म होगा आरक्षण

केंद्र की मोदी सरकार नई शिक्षा नीति लेकर आई है. ये देश के भविष्य की शिक्षा व्यवस्था का एक रोड मैप है. 34 साल बाद देश को मिली इस नीति को सरकार शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति का आगाज बता रही है तो कुछ लोगों की इसे लेकर शंकाएं भी हैं. सबसे ज्यादा चिंताएं आरक्षण को लेकर है क्योंकि शिक्षा नीति में इस शब्द का एक बार भी उल्लेख नहीं हुआ है. सीपीआई महासचिव सीताराम येचुरी ने भी हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर इस बारे में सवाल किया था. हालांकि उनका जवाब शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने ये कहकर दिया है कि आरक्षण महज शब्द नहीं भाव है जो पूरी नीति में निहित है.

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शिक्षा नीति में आरक्षण शब्द का जिक्र नहीं

दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक लक्ष्मण यादव कहते हैं कि नई शिक्षा नीति में आरक्षण के सवाल को दो तरह से देखने की जरूरत है. आरक्षण शब्द का जिक्र न करके इसे बहस से ही गायब कर दिया गया है. संवैधानिक रूप से लागू आरक्षण के आधार पर भी केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों में भर्तियां नहीं होती हैं, और अब तो आरक्षण को ही नीतिगत रूप से गायब कर देना सामाजिक न्याय की राह को और कठिन बनाना है. दूसरी बात ये शिक्षा नीति दलित, पिछड़े, आदिवासियों से शिक्षा के अवसर को छीन रही है. प्राइवेट शिक्षण संस्थान आज भी एक बड़े समुदाय की पहुंच से बाहर हैं. स्कूलों को मेटा स्कूल बनाना और ग्रेडेड आटोनॉमी बनाना, यह सब निजीकरण करने की दिशा में है और प्राइवेट शिक्षण संस्थानों में किसी तरह का कोई आरक्षण लागू नहीं है. 

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लक्ष्मण यादव कहते हैं कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की साल 2017-18 की वार्षिक रिपोर्ट के आधार पर देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों, राज्य विश्वविद्यालयों और डीम्ड विश्वविद्यालयों में मिलाकर अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के अध्यापक 19 फीसदी हैं, अनुसूचित जाति के 12 फीसदी और अनुसूचित जनजाति के 4 फीसदी अध्यापक हैं. केंद्रीय विश्वविद्यालयों के आंकड़ा देखें तो प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर नब्बे फीसदी से अधिक सवर्ण जाति के अध्यापक काबिज हैं और असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर तकरीबन पैंसठ फीसदी से अधिक है.

शिक्षा नीति से माजिक न्याय पर गहरी चोट 

जेएनयू में समाजशास्त्र के प्रोफेसर विवेक कुमार ने बताया कि नई शिक्षा नीति सामाजिक न्याय पर एक गहरी चोट है. शिक्षा नीति के 477 पेज की रिपोर्ट में एससी-एसटी, ओबीसी को महज 66 लाइनों में निपटा दिया गया है, जो 148-150 पेज के बीच है. ऐसे ही 70 लाइन अल्पसंख्यक पर है, जो 150 से151 पेज बीच है. इन्हें जोड़ दिया जाय तो एक तकरीबन 100 करोड़ की जनता के लिए केवल 136 लाइनों में शिक्षा की व्यवस्था की बात कही गई है. 

विवेक कुमार ने बताया कि नई शिक्षा नीति के 14वें अध्याय से साफ है कि सरकार की दलित और पिछड़ों के लिए क्या मंशा है. इसमें 'उच्च शिक्षा में समता और समावेश' में अनुसूचित जाति-जनजाति, ओबीसी और अल्पसंख्यक जैसी अस्मिताओं को हटा दिया गया है. ये सब अस्मिताएं प्राइमरी और सेकेंडरी शिक्षा वाले अध्याय में रखी गयी हैं. इन संवैधानिक समूहों की अस्मिताओं को खत्म करके उनकी जगह 'सामाजिक-आर्थिक वंचित' अस्मिता का प्रयोग क्यों किया गया है? संविधान में परिभाषित समूहों को सरकार अपने नीतिगत दस्तावेज से कैसे हटा सकती है. साथ ही पूरे ड्राफ्ट में कहीं भी आरक्षण शब्द का प्रयोग नहीं है. सामाजिक न्याय के तहत मिलने वाले आरक्षण अधिकार कैसे तय होंगे. ये साफ जाहिर करता है कि कैसे आरक्षण को शिक्षा व्यवस्था से खत्म करने की सोची समझी रणनीति बनाई गई है. 

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उच्च शिक्षा में SC-ST का प्रतिनिधित्व घटेगा

दिल्ली विश्विद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर जितेंद्र मीणा कहते हैं कि देश की 80 फीसदी आबादी दलित, मुस्लिम, ओबीसी, आदिवासी और अति पिछड़ा वर्ग की है. उनमें से ज्यादातर छात्र जो कक्षा एक में दाखिला लेते हैं वो 12वीं तक की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते. सबसे ज्यादा खराब हालत आदिवासी समुदाय की है, जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं और आरक्षण के जरिए ही उनके बच्चे उच्च शिक्षा हासिल कर पाते हैं. आरक्षण के होने के बावजूद केंद्रीय विश्वविधालयो में आदिवासी प्रोफेसर मात्र 0.7 फीसदी और दलित 3.47 फीसदी है आने वाले दिनों में नई शिक्षा नीति में आरक्षण के नाम नहीं होने इसका असर इन दोनों समुदाय के प्रतिनिधित्व पर भी पड़ेगा. 

जितेंद्र मीणा कहते हैं कि नेशनल सेंपल सर्वेक्षण 2014 की (एसएफआई की बुकलेट) मानें तो 100 आदिवासी विद्यार्थियों में से मात्र 12 अपनी हायर सेकेंडरी शिक्षा पूरी कर पाते हैं और 100 में से सिर्फ तीन आदिवासी विद्यार्थी ग्रेजुएशन या इससे अधिक की शिक्षा पूरी कर पाते हैं, दलितों में यह संख्या 15 की है जो कि हायर सेकेंडरी तथा 100 में से 3.4 दलित ही हैं जो स्नातक या अधिक की शिक्षा पूरी कर पाते हैं. इस तरह से कुल मिलाकर पूरी आबादी का 7.1 फीसदी ही स्नातक की डिग्री प्राप्त कर पाता है. नेशनल सैंपल सर्वेक्षण की यही रिपोर्ट बताती है कि स्कूल से ड्रॉप आउट होने का बहुत बड़ा कारण आर्थिक तंगी का होना है. ऐसे में नई शिक्षा नीति जिस तरह से निजीकरण को बढ़ावा दे रही है, उससे यह पूरा तबका ही शिक्षा से वंचित रह जाएगा. 

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आरक्षण को किसी तरह का खतरा नहीं

वहीं, केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने कहा कि ये सिर्फ अफवाहें हैं. नई शिक्षा नीति में आरक्षण पहले की ही तरह बरकरार रहेगा. समाज के सामाजिक-आर्थिक रूप से निर्बल समूहों के लिए आरक्षण भारतीय संविधान की धारा 15-16 के प्रावधानों के तहत लागू है जो सर्वविदित है, उसे कोई शिक्षा नीति कैसे विस्थापित कर सकती है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के जरिए समाज के वंचित समूहों के आरक्षण के प्रावधानों में किसी भी प्रकार की छेड़-छाड़ का प्रश्न ही नहीं उठता. शिक्षा नीति को पढ़ें तो यह साफ लगेगा कि आरक्षण मात्र शब्द ही नहीं बल्कि एक भाव है, जो सम्पूर्ण राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्रवाहमान है. शिक्षण संस्थाओं में नियुक्तियों में भी आरक्षण प्रावधानों पालन किया जा रहा है.

 

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