
केंद्र की सत्ता पर काबिज बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को मजबूत चुनौती देने के लिए विपक्षी एकजुटता की बात हो रही है. बिहार की राजधानी पटना में नीतीश कुमार की ओर से इसे लेकर बुलाई गई बैठक में 15 दलों में शुरुआती सहमति भी बन गई. दूसरी बैठक 12 जुलाई को हिमाचल प्रदेश के शिमला में आयोजित होनी है.
विपक्षी दल मिलकर चुनाव मैदान में जाने की बात तो कर रहे हैं लेकिन अरविंद केजरीवाल से लेकर ममता बनर्जी और अखिलेश यादव तक सबके अपने-अपने एजेंडे हैं. कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने बैठक के बाद कहा भी कि हमारे बीच कुछ मुद्दों पर मतभेद हैं लेकिन हमने मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला लिया है. राहुल गांधी से लेकर ममता बनर्जी तक, करीब हर नेता ने मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला लिए जाने की बात कही लेकिन ये सहमति कितनी आगे जाएगी? यही देखने वाली बात होगी.
आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल अध्यादेश के मुद्दे पर कांग्रेस के समर्थन नहीं करने की स्थिति में शिमला बैठक का बायकॉट करने की धमकी दे रहे हैं. ममता बनर्जी साफ कह चुकी हैं कि जो जहां मजबूत है, वो वहां लड़े. जाहिर है सबको साथ लाना नीतीश कुमार के लिए बड़ा मुश्किल टास्क होने वाला है. उनके सामने अपने गुरु जॉर्ज फर्नांडिस की तरह किंगमेकर की भूमिका निभाने की चुनौती है. सवाल यही है कि क्या वो ऐसा कर पाएंगे?
विपक्षी एकजुटता की राह में सबसे बड़ी चुनौती है अलग-अलग विचारधारा के राजनीतिक दलों में एक राय बना पाना. अपने-अपने एजेंडे पर चल रहे दलों को एक कॉमन एजेंडे पर तैयार कर पाना कठिन कार्य होता है. हालांकि, जॉर्ज फर्नांडिस ने ऐसा करके दिखाया था. तब एनडीए का एक कॉमन एजेंडा तैयार हुआ था और बीजेपी ने राम मंदिर से लेकर जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने तक, अपने प्रमुख मुद्दे गठबंधन के लिए छोड़ दिए थे. 1998 में 13 महीने तक चली एनडीए सरकार की विदाई के बाद मध्यावधि चुनाव हुए और गठबंधन ने बढ़े कुनबे, बढ़ी सीटों के साथ सत्ता में वापसी की. एनडीए की सरकार ने तब पांच साल का कार्यकाल भी पूरा किया था. विपक्षी नेता भी इसका जिक्र करते हुए दलों को बीजेपी से सीख लेने की नसीहत दे रहे हैं.
कॉमन एजेंडा से सीट बंटवारे तक पेंच
विपक्षी एकजुटता की राह में कॉमन मिनिमम प्रोग्राम यानी कॉमन एजेंडा से ज्यादा सीट बंटवारे पर पेंच फंसेगा. ममता बनर्जी ने जो जहां मजबूत, वो वहां लड़े का नारा दे दिया है. अखिलेश यादव भी ममता बनर्जी के फॉर्मूले के समर्थन में हैं. दूसरी तरफ, नीतीश कुमार ने एक सीट पर एक बनाम एक का नारा दिया है. संदेश साफ है- हर दल इस बात पर तो सहमत है कि बीजेपी और एनडीए के खिलाफ एक सीट पर एक ही उम्मीदवार लड़े लेकिन सवाल ये है कि त्याग कौन करेगा? वह लड़ने वाली पार्टी कौन हो, इस पर सहमति आसान नहीं.
नीतीश कुमार की बैठक में पहुंचीं कई पार्टियां अलग-अलग राज्यों में काफी मजबूत पकड़ रखती हैं. टीएमसी पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज है तो झारखंड मुक्ति मोर्चा झारखंड की सत्ता पर. डीएमके तमिलनाडु तो जेडीयू-आरजेडी बिहार में, आम आदमी पार्टी दिल्ली और पंजाब में सत्ता में है. अखिलेश यादव की सपा ने यूपी चुनाव में बीजेपी को मजबूत चुनौती दी थी. हर पार्टी अधिक से अधिक सीट पर लड़ना चाहेगी. ममता बनर्जी के फॉर्मूले पर अगर सीट बंटवारे की सहमति बनती है तो कांग्रेस पार्टी को 230 सीटें ही लड़ने के लिए मिलेंगी जिस पर देश की सबसे पुरानी पार्टी सहमत होगी ऐसा फिलहाल नहीं लग रहा.
नीतीश ने पास कर ली पहली परीक्षा
नीतीश कुमार ने अलग-अलग राज्य-क्षेत्र और पृष्ठभूमि के 15 दलों को एक मंच पर लाकर पहली परीक्षा पास कर ली. जॉर्ज फर्नांडिस ने जब एनडीए के विस्तार का बीड़ा उठाया था, कोई भी पार्टी बीजेपी के साथ आने में सहज नहीं थी. बीजेपी के राम मंदिर से लेकर जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने तक के एजेंडे को लेकर बहुत से दल साथ आने में गुरेज करते थे. लेकिन, जॉर्ज फर्नांडिस ने इस चुनौती को स्वीकार किया. 1998 में जब एआईएडीएमके के समर्थन वापस लेने से 13 महीने पुरानी सरकार गिर गई, तब जॉर्ज ने नए सिरे से एनडीए को एकजुट किया और चार पार्टियों से शुरू हुए गठबंधन को 24 पार्टियों तक पहुंचा दिया था.
जॉर्ज ने बीजेपी-छोटे दलों के बीच पुल का किया था काम
जॉर्ज फर्नांडिस ने उस दौर में छोटे-छोटे दलों को बीजेपी के साथ जोड़ने, एनडीए को खड़ा करने में अहम भूमिका निभाई थी जब राजनीतिक पार्टियां बीजेपी के साथ जाने से गुरेज करती थीं. जॉर्ज फर्नांडिस ने बीजेपी के अटल बिहारी वाजपेयी, शिरोमणि अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल और शिवसेना के बाल ठाकरे के साथ मिलकर एनडीए की नींव रखी थी. एनडीए के समाजवादी चेहरे जॉर्ज फर्नांडिस की राजनीतिक दलों में इन तीनों ही नेताओं की तुलना में स्वीकार्यता अधिक थी. जॉर्ज फर्नांडिस को एनडीए के संयोजक की जिम्मेदारी दी गई थी.
आज लगभग वैसी ही स्थिति कांग्रेस की है. अलग-अलग राज्यों में मजबूत दल कांग्रेस पार्टी के साथ जाने में हिचक रहे हैं. अलग-अलग दलों के अपने-अपने एजेंडे हैं, अपनी-अपनी राजनीति है. ऐसे में छोटे-छोटे दलों को कांग्रेस के साथ जोड़ने, विपक्षी गठबंधन का कुनबा बढ़ाने की जिम्मेदारी नीतीश कुमार ने अपने कंधों पर ली है. नीतीश की पहल पर 15 दलों की बैठक में मिलकर चुनाव लड़ने की बात पर सहमति तो बन गई है लेकिन क्या ये सहमति चुनाव मैदान में उतरने तक बरकरार रह पाएगी? क्या नीतीश कुमार अपने राजनीतिक गुरु जॉर्ज फर्नांडिस जैसा करिश्मा दोहरा पाएंगे?