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कोई बिखर गया, कोई निखर गया... सियासत में पार्टियों के टूटने की कहानी

एनसीपी में हुई टूट किसी राजनीतिक दल के टूटने की पहली घटना नहीं है. इससे पहले भी कई बार राजनीतिक दलों में बगावत, दो फाड़ होने या किसी नेता के नए दल बनाने के घटनाक्रम हुए हैं. नजर डालते हैं दलों के टूटने की कहानी पर...

दो बार दो धड़ों में बंटी कांग्रेस, बिखर गया जनता परिवार दो बार दो धड़ों में बंटी कांग्रेस, बिखर गया जनता परिवार
बिकेश तिवारी
  • नई दिल्ली ,
  • 22 जुलाई 2023,
  • अपडेटेड 6:46 AM IST

महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) टूट की ओर है. पार्टी के नाम और निशान की लड़ाई चुनाव आयोग की चौखट पर लड़ी जा रही है. आयोग का फैसला शरद पवार के पक्ष में आए या अजित के, पार्टी के दो फाड़ होने और एक नए राजनीतिक दल के गठन का आधार तैयार हो गया है. 

वैसे ऐसा पहली बार नहीं है जब कोई पार्टी टूटने की ओर हो. देश की राजनीति का इतिहास पार्टियों में बगावत, टूटने, बनने, बढ़ने और बिगड़ने के घटनाक्रमों से भरा पड़ा है. ग्रैंड ओल्ड पार्टी कांग्रेस की ही बात करें तो वह अपने गठन के बाद से अब तक कई बार टूट चुकी है लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब पार्टी दो फाड़ हो गई थी. उसकी भी चर्चा करेंगे लेकिन पहले बात महाराष्ट्र और किसी पार्टी के टूटने के सबसे ताजा घटनाक्रम की. 

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1- शिवसेना 

बाल ठाकरे ने जब शिवसेना का तीर-कमान और अपनी राजनीतिक विरासत बेटे उद्धव ठाकरे को सौंपी थी, तब किसी ने शायद ही सोचा हो कि एक दिन पार्टी ठाकरे परिवार के हाथ से फिसल जाएगी. उद्धव होंगे लेकिन शिवसेना का तीर-कमान उनसे कोई छीन ले जाएगा. बाल ठाकरे ने 2003 में अपनी राजनीतिक विरासत के प्रबल दावेदार माने जाने वाले भतीजे राज ठाकरे को दरकिनार कर उद्धव को शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया था. शिवसेना का अंतर्द्वंद्व समय-समय पर सामने आता रहा लेकिन पहली बगावत हुई साल 2006 में. 

राज ठाकरे ने शिवसेना छोड़ दी और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) नाम से नई पार्टी का गठन किया. तब बाल ठाकरे शिवसेना प्रमुख थे. बाल ठाकरे के निधन के बाद तीर-धनुष औपचारिक रूप से उद्धव के हाथ में आ गया. उद्धव साल 2013 में शिवसेना के अध्यक्ष चुन लिए गए. शिवसेना ने 2014 और 2019 के महाराष्ट्र चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया. उद्धव के अध्यक्ष रहते ही किंग मेकर की भूमिका निभाते रहे ठाकरे परिवार ने किंग यानी सत्ता के शीर्ष तक का सफर तय किया. शिवसेना अपनी हार्ड हिंदुत्व की इमेज से बाहर आई लेकिन उद्धव के ही अध्यक्ष रहते शिवसेना ठाकरे परिवार के हाथ से फिसली भी.

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साल 2022 में शिवसेना के स्थापना दिवस 19 जून की अगली ही सुबह उद्धव के सबसे विश्वस्त सहयोगी एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में पार्टी के विधायकों ने बगावत कर दी. उद्धव को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी. शिवसेना के कुल 56 में से 40 विधायकों का समर्थन शिंदे के साथ था. शिंदे गुट ने खुद को असली शिवसेना घोषित कर दिया और बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना ली. शिंदे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए. चुनाव आयोग का शिवसेना के नाम और निशान को लेकर फैसला शिंदे के पक्ष में आया. उद्धव को अपना सियासी वजूद बचाए रखने के लिए शिवसेना यूबीटी नाम से अलग पार्टी बनानी पड़ी. दोनों दलों में कौन बिखरता है, कौन निखरता है? ये तो जब चुनाव होंगे, चुनाव नतीजे आएंगे तभी साफ होगा. 

2- लोक जनशक्ति पार्टी 

शिवसेना के टूटने से ठीक एक साल पहले बिहार में दलित राजनीति की अगुवा लोक जनशक्ति पार्टी को भी ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ा था. जनता दल से अलग होकर साल 2000 में रामविलास पासवान ने जिस लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) का गठन किया था, वह उनके ही भाई और बेटे की रार में टूट गई. रामविलास ने साल 2019 में पार्टी की कमान अपने बेटे चिराग पासवान को सौंप दी थी. अध्यक्ष पद के लिए चिराग के नाम का प्रस्ताव रामविलास के भाई पशुपति पारस ने किया था.

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साल 2020 में रामविलास पासवान का निधन हो गया. उसके बाद पार्टी के फैसले चिराग लेने लगे. चिराग के चाचा पशुपति पारस ने जून, 2021 में बगावत कर दी. पशुपति ने चिराग को सबसे पहले लोकसभा में संसदीय दल के नेता पद से हटाया फिर संसदीय बोर्ड और इसके बाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से भी. चाचा-भतीजे की लड़ाई चुनाव आयोग तक पहुंची. वहां भी पशुपति भारी पड़े. चिराग पिता की बनाई पार्टी गंवा बैठे. चिराग ने नई पार्टी बनाई जिसे लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) नाम दिया. 

3- समाजवादी पार्टी 

शिवसेना और एलजेपी के बाद किसी राजनीतिक दल के टूटने का सबसे ताजा मामला समाजवादी पार्टी (सपा) का है. 2012 के यूपी चुनाव में सपा को 402 में से 224 सीटों पर जीत मिली. तब सपा के प्रदेश अध्यक्ष थे अखिलेश यादव. इस जीत के लिए श्रेय अखिलेश को भी दिया गया. मुलायम सिंह यादव का मुख्यमंत्री बनना तय माना जा रहा था लेकिन सपा प्रमुख ने मौका देखकर अखिलेश का नाम बढ़ा दिया. अखिलेश को विधायक दल का नेता चुन लिया गया और वे यूपी के सीएम बने. 

यूपी के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अखिलेश की ताजपोशी के साथ ही ये भी साफ हो गया था कि मुलायम की राजनीतिक विरासत अब उन्हीं के पास होगी. 2016 में अखिलेश ने शिवपाल के करीबी माने जाने वाले गायत्री प्रसाद प्रजापति और राजकिशोर सिंह को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया, चीफ सेक्रेटरी पद से दीपक सिंघल की छुट्टी कर दी. 

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इसके बाद मुलायम सिंह यादव ने सपा के प्रदेश अध्यक्ष पद से अखिलेश को हटाकर शिवपाल को कमान सौंप दी और फिर हालात बद से बदतर होते चले गए. एक समय ऐसी स्थिति आ गई कि शिवपाल ने भी मंत्री और संगठन में सभी पदों से इस्तीफा दे दिया.

 

यूपी में साल 2017 के पहले ही दिन यानी एक जनवरी को बड़ा घटनाक्रम हुआ. मुलायम सिंह यादव को सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटाकर अखिलेश यादव ने पार्टी की कमान अपने हाथ में ले ली. अखिलेश सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए. 1992 में चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी से अलग होकर उन्होंने जिस सपा की नींव रखी थी, उसी पार्टी में अध्यक्ष पद से उनको हटाया जा चुका था. पिता और पुत्र, दोनों ने चुनाव आयोग पहुंचकर पार्टी पर दावा किया. आयोग का फैसला अखिलेश के पक्ष में आया. सपा में जारी घमासान के बीच विधानसभा चुनाव हुए. इन चुनावों में सपा को करारी शिकस्त मिली. शिवपाल ने बाद में प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) नाम से अलग पार्टी बना ली. 

हालांकि, शिवपाल की पार्टी 2019 के लोकसभा चुनाव में कुछ खास प्रदर्शन नहीं कर सकी. सपा के बिखरने के दावे किए जा रहे थे लेकिन ऐसा हुआ नहीं. 2022 के यूपी चुनाव में शिवपाल खुद भी सपा के सिंबल पर जीतकर विधानसभा पहुंचे. पिछले दिनों उन्होंने अपनी पार्टी का सपा में विलय भी कर दिया है. 

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4- जनता दल यूनाइटेड 

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड हाल के दिनों में चर्चा में थी. बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए को टक्कर देने के लिए विपक्षी एकजुटता की कवायद के अगुवा नीतीश की पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा ने जेडीयू से किनारा कर अपनी अलग पार्टी बना ली. कुशवाहा ने राष्ट्रीय लोकतांत्रिक जनता दल नाम से पार्टी बनाई. हालांकि, ये पहला अवसर नहीं था जब कुशवाहा ने पार्टी बनाई हो. इससे पहले उन्होंने राष्ट्रीय लोक समता पार्टी नाम से पार्टी बनाई थी जिसका बाद में जेडीयू में विलय कर दिया था. 

इससे पहले जेडीयू साल 2015 में भी टूटी थी. दरअसल, बीजेपी ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए जब प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया. नीतीश ने नाराजगी व्यक्त करते हुए गठबंधन तोड़ लिया था. नीतीश की पार्टी के 243 सदस्यों वाली बिहार विधानसभा में 115 विधायक थे. जेडीयू बहुमत के लिए जरूरी 122 के आंकड़े से काफी करीब थी. कांग्रेस और अन्य दलों के सहयोग से नीतीश ने बिना बीजेपी के सरकार चलाई. 2014 के चुनाव में जेडीयू 40 में से महज दो सीटें ही जीत सकी. पार्टी के खराब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेते हुए नीतीश ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और सरकार की बागडोर जीतनराम मांझी को सौंप दी. 

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जीतनराम मांझी और नीतीश कुमार के बीच खटपट की खबरें आने लगीं. 2015 आते-आते बात इतनी बढ़ गई कि नीतीश ने मांझी से सीएम पद छोड़ने के लिए कह दिया लेकिन मांझी अड़ गए. नीतीश ने राज्यपाल से मिलकर विधायकों के समर्थन का पत्र सौंपकर सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया और मांझी को पार्टी से बाहर कर दिया. यहीं नींव पड़ी जेडीयू में टूट की. मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाए जाने के बाद मांझी ने हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) नाम से नई पार्टी बना ली थी. 

5- शिरोमणि अकाली दल 

पंजाब के प्रमुख राजनीतिक दल शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) की स्थापना 1920 में हुई थी. इस पार्टी का इतिहास भी बगावत और टूट की घटनाओं से भरा पड़ा है. 1984 में पार्टी दो फाड़ हो गई थी- शिरोमणि अकाली दल लोंगोवाल और शिरोमणि अकाली दल यूनाइटेड. लोंगोवाल ग्रुप का नेतृत्व संत हरचंद सिंह लोंगोवाल और यूनाइटेड का नेतृत्व बाबा जोगिंदर सिंह के पास था. लोगोंवाल की हत्या के बाद ये धड़ा भी दो गुट में बंट गया.

 

साल 1986 में शिरोमणि अकाली दल लोंगोवाल भी दो धड़ों में टूट गई. एक शिरोमणि अकाली दल बरनाला और दूसरा शिरोमणि अकाली दल बादल. बाबा जोगिंदर सिंह के नेतृत्व वाला तीसरा धड़ा भी सियासत में सक्रिय था. साल 1987 में तीनों धड़े एकजुट हो गए. इसके अलावा शिरोमणि अकाली दल मान और शिरोमणि अकाली दल जगदेव सिंह तलवंडी भी सक्रिय रहे. शिरोमणि अकाली दल के सिमरनजीत सिंह मान ने शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) नाम से पार्टी बना ली. सिमरनजीत सिंह मान अभी भी सियासत में सक्रिय हैं और भगवंत मान के पंजाब का मुख्यमंत्री बनने के बाद लोकसभा सदस्यता से इस्तीफे के कारण रिक्त हुई संगरूर सीट से उपचुनाव में लोकसभा सदस्य चुने गए. 

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जसबीर सिंह रोडे ने शिरोमणि अकाली दल (पंथक), गुरचरन सिंह टोहरा ने ऑल इंडिया शिरोमणि अकाली दल, कुलदीप सिंह वडाला ने शिरोमणि अकाली दल वडाला, जत्थेदार उमरानमंगल ने शिरोमणि अकाली दल जगत का गठन किया. हालांकि, ये दल अधिक समय तक नहीं चल सके. पंजाब में जब उग्रवाद का दौर था, तब शिरोमणि अकाली दल महंत, शिरोमणि अकाली दल बब्बर, शिरोमणि अकाली दल जफरवाल भी बने. दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के पूर्व अध्यक्ष परजीत सिंह सरना ने भी शिरोमणि अकाली दल पंथक बनाया. हालांकि, शिरोमणि अकाली दल ने पंजाब की राजनीति पर पकड़ बनाए रखी और बाकी दल जगह बनाने में उतने सफल नहीं हो सके. 

6- कांग्रेस 

कांग्रेस सबसे ज्यादा बार टूटी. पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस, आंध्र प्रदेश की सत्ताधारी वाईएसआर कांग्रेस, महाराष्ट्र की एनसीपी, नगालैंड की नगालैंड पीपल्स फ्रंट, जम्मू कश्मीर की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, छत्तीसगढ़ की छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस हो, पंजाब की पंजाब लोक कांग्रेस पार्टी. ये सभी कांग्रेस से ही निकली हैं. कांग्रेस में वैसे तो नेताओं के बागी होने की, अपनी पार्टी बना लेने की लिस्ट लंबी है लेकिन पार्टी आजाद भारत के इतिहास में दो बार दो फाड़ हुई. पहली बार 1969 और दूसरी बार 1978 में.

दोनों ही बार कांग्रेस टूटी तो केंद्र में किरदार एक था- इंदिरा गांधी. साल 1969 में कांग्रेस पार्टी का एक धड़ा इंदिरा के खिलाफ हो चुका था. कहा तो ये तक जाता है कि इस धड़े के नेता इंदिरा को प्रधानमंत्री की कुर्सी से हटाना चाहते थे. तब कांग्रेस के अध्यक्ष थे एस निजलिंगप्पा. कांग्रेस में अंदर ही अंदर दो धड़े बन चुके थे. एक इंदिरा का और दूसरा इंदिरा विरोधियों का जिसे सिंडिकेट कहा गया. इसी बीच राष्ट्रपति डॉक्टर जाकिर हुसैन का निधन हो गया. तब वीवी गिरि उपराष्ट्रपति थे. डॉक्टर हुसैन के निधन के बाद राष्ट्रपति चुनाव हुए. इंदिरा वीवी गिरि को उम्मीदवार बनाने के पक्ष में थीं लेकिन पार्टी ने नीलम संजीव रेड्डी को मैदान में उतार दिया. 

स्थापना वर्ष पार्टी का नाम संस्थापक वर्तमान स्थिति
1923 स्वराज पार्टी चितरंजन दास 1925 में कांग्रेस में विलय
1939 ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक सुभाष चंद्र बोस, शार्दुल सिंह पश्चिम बंगाल में सीमित
1951 किसान मजदूर प्रजा पार्टी जीवटराम कृपलानी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में विलय
1951 हैदराबाद स्टेट प्रजा पार्टी तंगुतूरी प्रकाशम, एनजी रंगा किसान मजदूर प्रजा पार्टी में विलय
1951 सौराष्ट्र खेदूत संघ नरसिंह भाई स्वतंत्र पार्टी में विलय
1956 इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक्स कांग्रेस सी राजगोपालाचारी स्वतंत्र पार्टी  में विलय
1959 स्वतंत्र पार्टी  सी राजगोपालाचारी, एनसी रंगा भारतीय क्रांति दल में विलय
1964  केरल कांग्रेस केएम जॉर्ज केरल कांग्रेस से भी सात पार्टियां निकलीं- केरल कांग्रेस (मणि), केरल कांग्रेस (जैकब), केरल कांग्रेस (बी), केरल कांग्रेस (डेमोक्रेटिक), केरल कांग्रेस (सकारिया थॉमस), केरल कांग्रेस (थॉमस), केरल कांग्रेस (नेशनलिस्ट) 
1966 ओडिशा जन कांग्रेस हरेकृष्ण मेहताब जनता पार्टी में विलय
1966 बांग्ला कांग्रेस     अजय मुखर्जी कांग्रेस में विलय
1967 भारतीय क्रांति दल चरण सिंह जनता पार्टी में विलय
1968 विशाल हरियाणा पार्टी राव बीरेंदर सिंह कांग्रेस (आई) में विलय
1968 मणिपुर पीपुल्स पार्टी मोहम्मद अलीमुद्दीन मणिपुर में एक्टिव
1969 कांग्रेस (आर) इंदिरा गांधी 1978 में इसी पार्टी से कांग्रेस (आई) निकली जो वर्तमान कांग्रेस है
1969 उत्कल कांग्रेस बीजू पटनायक भारतीय लोक दल में विलय
1969 तेलंगाना प्रजा समिति एमसी रेड्डी कांग्रेस में विलय
1971 बिप्लोबी बांग्ला कांग्रेस सुकुमार रॉय लेफ्ट फ्रंट का हिस्सा
1977 कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी जगजीवन राम जनता पार्टी में विलय
1980 कांग्रेस (ए) एके एंटनी कांग्रेस में विलय
1981 इंडियन नेशनल कांग्रेस सोशलिस्ट शरद पवार कांग्रेस में विलय
1981 इंडियन नेशनल कांग्रेस जगजीवन जगजीवन राम अस्तित्व में नहीं
1984 इंडियन कांग्रेस सोशलिस्ट (S) शरत चंद्र सिन्हा एनसीपी में विलय
1986 राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस प्रणब मुखर्जी कांग्रेस में विलय
1988 तमिझागा मुन्नेत्र मुन्नानी शिवाजी गणेशन जनता दल में विलय
1990 हरियाणा विकास पार्टी बंशी लाल कांग्रेस में विलय
1994 अखिल भारतीय इंदिरा कांग्रेस (तिवारी) एनडी तिवारी, अर्जुन सिंह, नटवर सिंह कांग्रेस में विलय
1994 कर्नाटक कांग्रेस पार्टी बंगारप्पा कांग्रेस में विलय
1994 तमिझागा राजीव कांग्रेस वी राममूर्ति कांग्रेस में विलय
1996 कर्नाटक विकास पार्टी बंगारप्पा कांग्रेस में विलय
1996 अरुणाचल कांग्रेस जी अपांग कांग्रेस में विलय
1996 तमिल मनीला कांगेस जीके मूपानार कांग्रेस में विलय
1996 मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस माधवराव सिंधिया कांग्रेस में विलय
1997 तमिलनाडु मक्कल कांग्रेस वी राममूर्ति अस्तित्व में नहीं
1998 हिमाचल विकास कांग्रेस सुखराम कांग्रेस में विलय
1998 अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी
1998 मणिपुर स्टेट कांग्रेस पार्टी वीएन सिंह आरजेडी में विलय
1998 गोवा राजीव कांग्रेस फ्रांसिस डिसूजा एनसीपी में विलय
1998 अरुणाचल कांग्रेस (मीठी) मुकुट मीठी कांग्रेस में विलय
1998 ऑल इंडिया इंदिरा कांग्रेस सेक्युलर सीसराम ओला कांग्रेस में विलय
1998 महाराष्ट्र विकास अघाड़ी सुरेश कलमाड़ी कांग्रेस में विलय
1999 भारतीय जन कांग्रेस जगन्नाथ मिश्रा एनसीपी में विलय
1999 राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) शरद पवार, पीए संगमा, तारिक अनवर महाराष्ट्र और पूर्वोत्तर समेत कई राज्यों में एक्टिव
1999 पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) मुफ्ती मोहम्मद सईद जम्मू और कश्मीर में सक्रिय
2000 गोवा पीपुल्स कांग्रेस फ्रांसिस्को सरडिन्हा कांग्रेस में विलय
2001 कांग्रेस जननायक पेरावई पी चिदंबरम कांग्रेस में विलय
2001 थंडर कांग्रेस कुमारी अनंतन कांग्रेस में विलय
2001 पुडुचेरी मक्कल कांग्रेस पी कनन अस्तित्व में नहीं
2002 विदर्भ जनता कांग्रेस जंबूवंतराव धोते महाराष्ट्र में एक्टिव
2002 गुजरात जनता कांग्रेस छबिलदास मेहता एनसीपी में विलय
2002 इंडियन नेशनल कांग्रेस हसन शेख हसन बीजेपी में विलय
2003 कांग्रेस डोलो कामेंग डोलो बीजेपी में विलय
2003 नगालैंड पीपुल्स फ्रंट नेफ्यू रियो नगालैंड की सत्ता पर काबिज
2005 पुडुचेरी मुन्नेत्रा कांग्रेस पी कन्नन कांग्रेस में विलय
2005 डेमोक्रेटिक इंदिरा कांग्रेस के करुणाकरन एनसीपी में विलय
2007 हरियाणा जनहित कांग्रेस कुलदीप विश्नोई कांग्रेस में विलय
2008 प्रगतिशील इंदिरा कांग्रेस सोमेंद्रनाथ मित्रा टीएमसी में विलय
2011 वाईएसआर कांग्रेस वाईएस जगनमोहन रेड्डी आंध्र प्रदेश की सत्ता पर काबिज
2011 ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस एन रंगास्वामी पुडुचेरी की सत्ता पर काबिज
2014 जय समैक्य आंध्र नल्लारि किरण कुमार रेड्डी कांग्रेस में विलय
2014 तमिल मनीला कांगेस जीके वासन तमिलनाडु में एक्टिव
2016 छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस अजीत जोगी छत्तीसगढ़ में एक्टिव
2021 पंजाब लोक कांग्रेस पार्टी कैप्टन अमरिंदर सिंह पंजाब में एक्टिव
2022

डेमोक्रेटिक आजाद पार्टी

गुलाम नबी आजाद जम्मू और कश्मीर में एक्टिव
----- ऑल इंडिया राजीव क्रांतिकारी कांग्रेस सुरेंद्र प्रधान -----
----- अखिल भारतीय राजीव कांग्रेस ----- -----

नाराज इंदिरा वीवी गिरि का समर्थन करना चाहती थीं लेकिन पार्टी के खिलाफ कैसे खड़ी हों? इसी बीच नीलम संजीव रेड्डी के समर्थन में कांग्रेस अध्यक्ष एक्टिव हो गए. निजलिंगप्पा ने जनसंघ और अन्य दलों के नेताओं से मुलाकात कर समर्थन की अपील कर दी. इससे इंदिरा को मौका मिल गया. इंदिरा गांधी ने खुद को पद से हटाने के लिए विरोधियों के साथ मिलकर साजिश रचने का आरोप लगाते हुए निजलिंगप्पा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. इंदिरा ने अपने समर्थक सांसद-विधायकों से अंतरात्मा के आधार पर वोट की अपील की और वीवी गिरि जीत गए. 

वीवी गिरि के राष्ट्रपति निर्वाचित होने के बाद इंदिरा गांधी और निजलिंगप्पा के बीच मतभेद बढ़ गए. इंदिरा ने निजलिंगप्पा के खिलाफ अभियान छेड़ दिया. सिग्नेचर कैंपेन चलाए जाने लगे. निजलिंगप्पा ने इंदिरा पर आंतरिक लोकतंत्र खत्म करने का आरोप लगाते हुए खुला खत लिखा. निजलिंगप्पा ने कांग्रेस कार्य समिति की बैठक बुलाई तो इंदिरा ने भी इसके समानांतर बैठक बुला ली. इंदिरा की बैठक में अधिक नेता पहुंचे. दूसरी तरफ की कार्य समिति की बैठक में इंदिरा को पार्टी विरोधी गतिविधियों और अनुशासनहीनता के आरोप में पार्टी से निष्कासित करने का फैसला हुआ. कांग्रेस संसदीय दल को नया नेता चुनने का फरमान भी मिल गया. इसके बाद इंदिरा ने कांग्रेस तोड़ दी. 

इंदिरा ने कांग्रेस (आर) नाम से पार्टी बना ली. कांग्रेस (आर) यानी कांग्रेस रिक्विजिशनिस्ट और मूल कांग्रेस का नाम पड़ा कांग्रेस (ओ). यहां ओ का आशय ऑर्गेनाइजेशन से था यानी मूल कांग्रेस. कांग्रेस (ओ) ने इंदिरा सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया. इंदिरा की पार्टी में 220 सांसद थे. इंदिरा की पार्टी बहुमत के लिए जरूरी आंकड़े से 53 सीट पीछे थी लेकिन लेफ्ट और अन्य छोटे दलों के समर्थन से सरकार बच गई. चुनाव निशान की लड़ाई चुनाव आयोग पहुंची. बैलों की जोड़ी का निशान कांग्रेस (ओ) को मिला और इंदिरा की कांग्रेस (आर) को गाय और बछड़ा. कांग्रेस (ओ) का इमरजेंसी के बाद गठित जनता पार्टी में विलय हो गया था. 

इसके बाद कांग्रेस 1978 में भी टूटी. दरअसल, इमरजेंसी विरोधी लहर में कांग्रेस को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा जिसके बाद कांग्रेस (आर) में फूट पड़ गई. नेताओं का एक धड़ा इंदिरा को किनारे करने की बात करने लगा. 1978 आते-आते टकराव इस कदर बढ़ गया कि इंदिरा गांधी ने फिर से नई पार्टी बनाने का फैसला ले लिया. इंदिरा ने कांग्रेस (आई) का गठन किया. कांग्रेस (आई) को चुनाव निशान के रूप में हाथ का पंजा मिला. 1980 के चुनाव में इंदिरा के लिए कांग्रेस आई नाम और हाथ का पंजा निशान लकी साबित हुए. बड़ी जीत के साथ इंदिरा फिर से सत्ता में वापस आ गईं. साल 1984 में कांग्रेस आई को चुनाव आयोग ने भी असली कांग्रेस के रूप में मान्यता दे दी. 1996 में कांग्रेस के नाम से आई हटाया गया और इसे इंडियन नेशनल कांग्रेस नाम दिया गया जो आज की कांग्रेस है. 

7- जनता पार्टी और जनता दल 

देश में लगे आपातकाल के बाद 1977 के लोकसभा चुनाव में एक प्रयोग हुआ. लोकनायक जयप्रकाश नारायण की पहल पर जनता पार्टी का गठन हुआ जिसमें खांटी कांग्रेसी थे तो समाजवादी और जनसंघ के लोग भी. मूल कांग्रेस यानी कांग्रेस ओ के साथ ही जनसंघ का भी जनता पार्टी में विलय कर दिया गया. 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस (आर) को हरा दिया और स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली गैर कांग्रेसी सरकार का मोरारजी देसाई के नेतृत्व में गठन हुआ. 

जनता पार्टी की सरकार में इंदिरा गांधी को आपातकाल के दौरान ज्यादतियों से जुड़े मामले में गिरफ्तार किए जाने को लेकर खुलकर मतभेद सामने आ गए. तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह में ठन गई. दोनों के बीच मतभेद इतने बढ़ गए कि चौधरी चरण सिंह ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. चौधरी चरण सिंह ने दिल्ली में बड़ी रैली आयोजित की. किसानों की इस रैली में बड़ी संख्या में किसान जुटे थे. इसे शक्ति प्रदर्शन के तौर पर देखा गया. इसके बाद चौधरी चरण सिंह को मनाकर दोबारा मंत्रिमंडल में शामिल किया गया और उपप्रधानमंत्री पद के साथ ही वित्त मंत्रालय भी दिया गया. 

चौधरी चरण सिंह ने जुलाई 1979 में जनता पार्टी में बगावत कर दी. 90 सांसदों के साथ सरकार से अलग हो गए और अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया. मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई. मधु लिमये, राजनारायण, जॉर्ज फर्नांडिस जैसे नेता चौधरी चरण सिंह के साथ हो लिए. चौधरी चरण सिंह ने जनता पार्टी सेक्यूलर नाम से नई पार्टी बना ली जिसका नाम बाद में लोक दल हो गया. चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बना ली जो महज तीन हफ्ते ही चल सकी. 

इसके बाद हुए चुनाव में जनता पार्टी हार गई. इस हार के लिए जनसंघ को दोषी ठहराया जाने लगा. जनता पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक में बहुमत से ये प्रस्ताव पारित कर दिया गया कि पार्टी का कोई भी सदस्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सदस्य नहीं हो सकता. इसे अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं ने निष्कासन की तरह माना और संघ की जगह जनता पार्टी छोड़ने का फैसला लिया. 6 अप्रैल 1980 को बीजेपी का गठन हुआ. 

साल 1988 में वीपी सिंह की अगुवाई में जनता दल का गठन हुआ. जनता पार्टी, जनमोर्चा और लोक दल का जनता दल में विलय हो गया. 1989 के लोकसभा चुनाव के बाद वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने. इसके बाद जनता दल में पहली टूट हुई चंद्रशेखर के नेतृत्व में. चंद्रशेखर ने जनता दल समाजवादी का गठन किया. चंद्रशेखर ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बना ली. हालांकि, चंद्रशेखर सरकार चार महीने ही चल सकी. जनता दल समाजवादी का नाम आगे चलकर समाजवादी जनता पार्टी हो गया. मुलायम सिंह यादव ने साल 1992 में सजपा से अलग होकर समाजवादी पार्टी बना ली. 

चौधरी चरण सिंह के पुत्र चौधरी अजीत सिंह ने 1992 में जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय लोक दल, 1994 में जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार ने जनता दल (जे) बना ली जिसका नाम बाद में समता पार्टी रखा गया. 1996 में कर्नाटक के रामकृष्ण हेगड़े ने लोकशक्ति का गठन कर लिया जिसका बाद में जनता दल में विलय हो गया था. साल 1997 में लालू यादव ने राष्ट्रीय जनता दल, 1998 में नवीन पटनायक ने बीजू जनता दल का गठन कर लिया. 1999 में जनता दल को एक और टूट का सामना करना पड़ा. कर्नाटक में जनता दल सेक्यूलर का गठन हुआ. 

जनता दल शरद यादव की अगुवाई में चलता रहा. साल 2000 में रामविलास पासवान ने जनता दल से अलग होकर लोक जनशक्ति पार्टी नाम से अलग दल बना लिया. 30 अक्टूबर 2003 को जनता दल में जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व वाली समता पार्टी का भी विलय हो गया और जेडीयू अस्तित्व में आई. बिहार में 1990 से ही जनता दल और जनता दल से निकले दलों का शासन है तो वहीं ओडिशा में बीजेडी का. कर्नाटक में जेडीएस भी सरकार चला चुकी है.

बगावत से दक्षिण भारत भी अछूता नहीं

दक्षिण भारत के दलों का इतिहास भी बगावत की घटनाओं से अछूता नहीं रहा है. कांग्रेस से टूटकर बनी केरल कांग्रेस से जहां सात पार्टियां निकलीं तो वहीं आंध्र की सत्ता पर काबिज जगनमोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस का जन्म भी कांग्रेस से ही हुआ. आंध्र प्रदेश की राजनीति में मजबूत कद के नेता एनटी रामाराव को भी अपनों की बगावत का सामना करना पड़ा था.

तेलगु देशम पार्टी (टीडीपी) के संस्थापक एनटीआर आंध्र प्रदेश के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री भी हैं. एनटीआर के खिलाफ बगावत किसी गैर ने नहीं, उनके अपने ही दामाद ने की थी. एनटीआर के दामाद एन चंद्रबाबू नायडू ने साल 1995 में अपने ही ससुर के खिलाफ बगावत कर दी थी. नायडू ने टीडीपी के कुल  216 में से 198 विधायक तोड़ लिए और मुख्यमंत्री बन गए, टीडीपी पर भी कब्जा कर लिया.

नायडू की शादी एनटीआर की बेटी भुवनेश्वरी से हुई है. चंद्रबाबू, एनटीआर की सरकार में मंत्री भी रहे. उन्होंने एनटीआर के करीबियों से अच्छे संबंध बना लिए और फिर 1995 में बगावत कर दी. एनटीआर ने इस घटनाक्रम को लेकर कहा था कि नायडू ने औरंगजेब की तरह पीठ में खंजर घोंपा है. सत्ता और पार्टी, दोनों गंवाने के बाद एनटीआर ने कहा था कि जो लोग मेरे खिलाफ गए हैं, उनसे बदला लेंगे. एनटीआर का हार्टअटैक की वजह से 1996 में निधन हो गया था.

 

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