
2024 का चुनाव सिर्फ एक साल दूर है. सभी राजनीतिक पार्टियां जमीन पर सियासी गठजोड़ करने में लगी हैं. ऐसे में कांग्रेस एक बड़े सियासी झटके से जूझ रही है. कारण, कांग्रेस नेता राहुल गांधी की लोकसभा की सदस्यता रद्द कर दी गई है. कांग्रेस राहुल गांधी के दम पर आगामी लोकसभा चुनाव में अपना सियासी वनवास खत्म करने की कवायद में जुटी थी. उन्हीं के चेहरे को आगे कर चुनाव लड़ने की तैयारी में थी. विपक्ष के दूसरे दलों को भी साथ लाने का प्रयास हो रहा था और राहुल को ही आगे कर विपक्षी एकता की पटकथा लिखी जा रही थी. लेकिन एक फैसले ने जमीन पर सबकुछ बदल दिया है. राहुल गांधी की सदस्यता जाना एक तरफ कांग्रेस के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है तो वहीं विपक्ष के कई दूसरे नेताओं के लिए एक बड़ा अवसर भी बताया जाने लगा है.
विपक्षी एकता की बात तो कई मौकों पर की जाती है, कांग्रेस भी इसकी पैरवी कर चुकी है. लेकिन अड़चन ये है कि कांग्रेस उस विपक्षी एकता में क्षेत्रीय दलों को ज्यादा स्पेस नहीं देना चाहती. इसी वजह से विपक्षी एकता का बनना अपने आप में एक चुनौती बन जाता है. दूसरी तरफ विपक्षी खेमे में एक नहीं कई प्रधानमंत्री के उम्मीदवार हैं, कई नेताओं की महत्वाकांक्षाएं हैं. इसमें बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, तेलंगाना के सीएम के चंद्रशेखर राव शामिल हैं. ये सभी नेता विपक्षी एकता की पैरवी कर रहे हैं, समय-समय पर एक दूसरे से मुलाकात भी कर रहे हैं. इस सबके बीच राहुल गांधी की संसद की सदस्यता रद्द हो गई है, जो इन नेताओं के लिए सियासी तौर पर बड़ी खबर मानी जा रही है. कैसे उनकी राजनीति पर असर डाल सकती है, आइए जानते हैं...
नीतीश कुमार
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कई मौकों पर विपक्षी एकता की बात की है. बिहार में बीजेपी को सत्ता से बेदखल करने के बाद तो उन्होंने दिल्ली जाकर विपक्ष के हर बड़े नेता से मुलाकात की है. नीतीश कुमार ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी से लेकर सोनिया गांधी, जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी, अखिलेश यादव, सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी, अरविंद केजरीवाल, शरद पवार, केसीआर तक से मुलाकात कर चुके हैं. उनकी मुलाकातों से ये जरूर साफ है कि वे विपक्षी एकता में कांग्रेस को शामिल रखना चाहते हैं, लेकिन क्या उन्हें बतौर पीएम फेस राहुल गांधी स्वीकार हैं, इस पर हमेशा संशय रहा है.
ऐसे में अब जब इस सियासी तस्वीर से राहुल गांधी ही गायब हो रहे हैं तो कांग्रेस के सामने नीतीश की बार्गेनिंग पावर काफी बढ़ जाती है. नीतीश हमेशा से चाहते हैं कि कांग्रेस बिहार में जेडीयू और आरजेडी को बीजेपी से मुकाबला करने दे और यूपी में अखिलेश की समाजवादी पार्टी को फोरफ्रंट पर रखे. इस सियासी थ्योरी में समीकरणों के आधार पर क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस के मुकाबले ज्यादा तवज्जो दी जाएगी. अब बदले समीकरणों में नीतीश की ये मांगें कांग्रेस को माननी पड़ सकती हैं.
नीतीश की पीएम दावेदारी कितनी मजबूत?
वैसे बिहार में जेडीयू के कई नेता ये कहने से नहीं चूकते हैं कि नीतीश कुमार भी प्रधानमंत्री बनने के प्रबल दावेदार हैं. कई बार सियासी पोस्टरों के जरिए ये संदेश दिया जाता है. लेकिन क्योंकि नीतीश, इस समय कांग्रेस के साथ हैं, ऐसे में उनकी उम्मीदवारी को राहुल गांधी से सीधी चुनौती मिलती. कांग्रेस राहुल के रहते हुए नीतीश को बतौर पीएम फेस स्वीकार नहीं कर सकती. लेकिन अब जब राहुल की लोकसभा सदस्यता ही रद्द हो गई है, नीतीश का सियासी रास्ता साफ हुआ है. उनको एक बार के लिए ममता बनर्जी, केसीआर जैसे नेताओं से चुनौती मिल सकती है, लेकिन फिर भी उनकी महत्वकांक्षा के बीच आने वाली एक बड़ी अड़चन दूर हुई है. जानकार तो ये भी मानते हैं कि आने वाले समय में तेजस्वी को राज्य की सत्ता सौंपकर नीतीश केंद्र की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं. खुद नीतीश इसे अभी खारिज जरूर करते हैं, लेकिन अटकलें लगातार जारी हैं.
अब इन अटकलों के बीच अगर नीतीश के संभावित गठबंधन की बात करें तो उसमें कांग्रेस को भी शामिल किया जाएगा क्योंकि सीएम पहले ही साफ कर चुके हैं कि बिना कांग्रेस विपक्षी एकता संभव नहीं है. ऐसे में जिन पार्टियों से नीतीश ने मुलाकात की है, अगर उनकी टैली और कांग्रेस की सीटें जोड़ दी जाएं, तो बीजेपी के लिए एक चुनौती बन सकती है.
कांग्रेस (52)+ जेडीयू (16)+CPM (3)+ CPI (2)+ आप (1)+ सपा (5)= 79
ममता बनर्जी
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी केंद्र सरकार के खिलाफ शुरुआत से मुखर रही हैं. बीजेपी पर उनके हमले, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर उनके सियासी वार जगजाहिर हैं. बड़ी बात ये है कि उन्होंने मोदी लहर के बीच में भी हर बार अपनी अलग उपस्थिति दर्ज करवाई है. 2021 के विधानसभा चुनाव में खेला होबे का नारा देकर उन्होंने बंगाल में बीजेपी को ऐसी पटखनी दी कि उसकी गूंज विपक्षी खेमे को भी अच्छी तरह सुनाई दी. ममता की उस एक जीत ने उन्हें विपक्ष का एक मजबूत नेता बना दिया. ऐसा नेता जो बीजेपी के सबसे बड़े चेहरे नरेंद्र मोदी को टक्कर दे सके.
बड़ी बात ये है कि इस समय जब राहुल गांधी अब चुनाव नहीं लड़ सकते हैं? उनकी अनुपस्थिति में कांग्रेस के पास कोई बड़ा चेहरा नहीं है. ऐसे में बीजेपी और पीएम नरेंद्र मोदी को सीधी चुनौती ममता बनर्जी से मिल सकती है. वहीं, ममता बनर्जी 2024 का चुनाव अकेले लड़ने का ऐलान कर चुकी हैं, उस स्थिति में उनका कांग्रेस के साथ जाना मुश्किल लगता है, लेकिन एक थर्ड फ्रंट की अगुवाई वे जरूर कर सकती हैं. हाल के दिनों में ममता बनर्जी ने सपा प्रमुख अखिलेश यादव और ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक से मुलाकात की है. एनसीपी प्रमुख शरद पवार से भी उनके रिश्ते मजबूत हैं.
टीएमसी (22)+सपा (5) +आप (1) +बीजेडी (12)+ उद्धव गुट (6)= 46
ये सभी वो दल हैं जिनके नेताओं से ममता बनर्जी ने मुलाकात की है. उनके साथ थर्ड फ्रंट बनाने को लेकर चर्जा हुई है. इसमें समाजवादी पार्टी, बीजेडी और उद्धव गुट की शिवसेना शामिल है. लेकिन सिर्फ इन दलों के सहारे ममता बनर्जी 2024 में बीजेपी को चुनौती नहीं दे सकती हैं, उन्हें कई दूसरे दलों को अपने साथ लाना पड़ेगा.
अरविंद केजरीवाल
आप संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पिछले 12 सालों में खुद को देश की राजनीति में एक मजबूत चेहरा साबित किया है. एक समय जो आम आदमी पार्टी सिर्फ दिल्ली तक सीमित रह गई थी, अब पंजाब में उसकी सरकार है, गुजरात में वो बीजेपी को सीधी टक्कर देती है और कई दूसरे राज्यों में भी अपना विस्तार कर रही है. इसका श्रेय अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी वाली राजनीति को जाता है. चुनावी मैदान में जब राहुल गांधी होते हैं तो मुकाबला हमेशा मोदी बनाम राहुल का ही बन जाता है. दूसरी पार्टियों को ज्यादा मौका नहीं मिलता. लेकिन बदले समीकरणों में अब अरविंद केजरीवाल के पास खुद को साबित करने का एक बड़ा मौका है. दिल्ली में तो उन्होंने भी बीजेपी के चुनावी रथ को हर बार परास्त किया है, हाल ही में एमसीडी चुनाव में भी कई सालों बाद पार्टी को हराया है, ऐसे में केजरीवाल का सियासी कद बढ़ा है.
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वैसे भी जब से सत्येंद्र जैन, मनीष सिसोदिया जैसे नेताओं की गिरफ्तारी हुई है, आम आदमी पार्टी के पास वो मुद्दे मौजूद हैं जिनके दम पर वे दूसरे दलों को अपने साथ जोड़ सकते हैं या खुद उनके साथ जुड़ सकते हैं. वहीं दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी, कांग्रेस से हाथ मिलाएगी, जानकार ऐसा नहीं मानते, उस स्थिति में थर्ड फ्रंट में अरविंद केजरीवाल भी अपनी भूमिका अदा कर सकते हैं. हाल ही में अरविंद केजरीवाल की एक चिट्ठी भी लीक हो गई थी जहां 18 मार्च को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत शोरेन को लंच का न्योता दिया गया था.
विपक्षी एकजुटता में केजरीवाल कहां खड़े?
ये सभी वो नेता हैं जो लंबे समय से विपक्षी एकता की बात कर रहे हैं, इनमें नीतीश-स्टालिन को छोड़ दिया जाए तो बाकी बिना कांग्रेस के थर्ड फ्रंट की पैरवी भी करते हैं. वो लंच तो नहीं हो सका लेकिन अटकलें लगने लगीं कि 2024 के चुनाव के लिए अरविंद केजरीवाल भी बड़ी तैयारी कर रहे हैं. उसी कड़ी में राहुल की सजा केजरीवाल की उन तैयारियों को और ज्यादा बल दे सकता है.
अब ये बल तब मिलेगा जब अरविंद केजरीवाल को सही मायनों में विपक्ष की दूसरी पार्टियों का साथ मिलेगा. इस समय उनका कोई संभावित गठबधन सोचना भी चुनौती है क्योंकि कोई भी दल खुलकर उनके समर्थन में नहीं आ रहा है. इसका बड़ा उदाहरण तो कुछ दिन पहले दिख चुका है जब केजरीवाल के बुलाने के बावजूद 7 गैर बीजेपी शासित राज्यों से मुख्यमंत्रियों ने कन्नी काट ली थी.
के चंद्रशेखर राव
साल 2018 में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने ही सबसे पहले थर्ड फ्रंड का राग अलापा था. उन्हीं की इच्छा थी कि बिना कांग्रेस के विपक्षी दलों का एक नया गठबंधन तैयार किया जाए जो बीजेपी से मुकाबला करे. उसी सपने को साकार करने के लिए केसीआर ने अपनी राष्ट्रीय पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति लॉन्च कर दी. जनवरी में उन्होंने एक मेगा रैली भी की जहां पर अरविंद केजरीवाल से लेकर अखिलेश यादव तक, के विजयन से लेकर भगवंत मान तक कई बड़े नेताओं ने हिस्सा लिया.
उदेश्य वहां भी विपक्ष को एकजुट करना था, लेकिन तब बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ी. लेकिन अब जब राहुल गांधी चुनाव नहीं लड़ेंगे, उनका पीएम उम्मीदवार बनना मुश्किल रहेगा, उस स्थिति में कई दल जो पहले केसीआर के साथ आने से बच रहे थे, अब खुलकर साथ आ सकते हैं. ऐसी स्थिति में केसीआर की पीएम उम्मीदवारी भी संभव है. केसीआर के सामने चुनौती ये है कि उन्होंने तेलंगाना के बाहर अभी तक ज्यादा सफलता नहीं चखी है. राष्ट्रीय पार्टी तो बना ली है, लेकिन जमीन पर संगठन को मजबूत करना बाकी है.
केसीआर का थर्ड फ्रंट कैसा दिखेगा?
अब जिन नेताओं से केसीआर ने मुलाकात की है, अगर उन्हें उनका संभावित थर्ड फ्रंड वाला गठबंधन भी मान लिया जाए, तो जमीन पर स्थिति ज्यादा उत्साहजनक नहीं बनती है. असल में केसीआर ने इस साल जनवरी में जो मेगा रैली की थी, उसमें आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी, CPM, CPI ने हिस्सा लिया था. कुमास्वामी की जेडीएस ने भी केसीआर को अपना समर्थन दिया था. उस रैली के अलावा पिछले साल थर्ड फ्रंट बनाने के लिए केसीआर ने शरद पवार और उद्धव ठाकरे, झारखंड सीएम हेमंत सोरेन से भी मुलाकात की थी. अब 2019 के लोकसभा चुनाव के चश्मे से देखें तो इन सभी दलों के साथ आने के बाद सीटों का आंकड़ा बहुत ज्यादा नहीं बढ़ता है-
BRS (9)+ AAP (1)+ SP (5)+ CPM (3)+ CPI (2)+ JDS (1)+ NCP (5)+ उद्धव गुट (6)+ JJM (1)= 33
चार नेता, सपने बड़े, 2019 में कैसा प्रदर्शन?
वैसे नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और केसीआर 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर सपने जरूर बड़े देख रहे हैं, लेकिन जमीन पर उनकी स्थिति असल में कितनी मजबूत है, ये उनके पिछले प्रदर्शन से समझा जा सकता है. अगर बात 2019 के लोकसभा चुनाव की करें तो ममता बनर्जी की टीएमसी के खाते में 22 सीटें गई थीं, नीतीश की जेडीयू को 16 सीटे मिली थीं, भारत राष्ट्र समिति (जो पहले TRS थी) के पास 9 सीटें थीं, आम आदमी पार्टी के खाते में 1 सीट.