
एक तरफ कांग्रेस विपक्षी एकता को लेकर जोर लगा रही है तो दूसरी तरफ एनसीपी चीफ शरद पवार बार-बार इससे दूर होते दिख रहे हैं. हालांकि उन्होंने खुले तौर पर ऐसा कोई ऐलान नहीं किया है, लेकिन जिस तरह से वह विपक्ष के उठाए हर मुद्दे से किनारा करते दिख रहे हैं, उससे ये साफ नहीं हो पा रहा है कि उनकी असल मंशा क्या है? खास बात ये है कि ऐसा पहली बार नहीं है. शरद पवार पहले भी कांग्रेस का साथ उन हालातों में छोड़ चुके हैं, जब-जब गांधी परिवार के किसी सदस्य में राष्ट्रीय राजनीति के शीर्ष पर पहुंचने की संभावनाएं दिखी हैं. सवाल ये है कि क्या एक बार फिर शरद पवार ऐसे ही किसी इतिहास को दोहराने वाले हैं.
विपक्षी एकता से अलग राह पर शरद पवार?
महाराष्ट्र की राजनीति से निकल कर दिल्ली के तख्त तक की हवा में कुछ ऐसे ही सवाल घुले हुए हैं. सवाल है कि एनसीपी चीफ शरद पवार का विपक्षी एकता को लेकर असल रुख क्या है? उनके हर रोज आ रहे अलग-अलग बयानों से कांग्रेस की पेशानी पर बल पड़ने लगे हैं कि, शरद पवार ऐसे नाजुक वक्त में क्या सोच रहे हैं जब कांग्रेस विपक्ष के सभी नेताओं को बीजेपी के खिलाफ एक अंब्रेला के नीचे लाने की कवायद में जुटी है. इस छाते को ऊंचा उठाकर कौन आगे बढ़ेगा, अभी ऐसे लीडर के चेहरा भी तय नहीं हो पाया है कि ये भीड़ तितर-बितर होने लगी है. संकट इस बात का अधिक है, शरद पवार जैसा पावरफुल नेता हर बार उस लीक से हटकर किनारे खड़ा हो जाता है, जिस पर चलकर विपक्षी दल एकता का दम भरने की कोशिश करते हैं.
तो क्या शरद पवार पर भरोसा करना मुश्किल है? ऐसा है तो क्यों?
इस सवाल का जवाब शरद पवार के उन बयानों में है जो अभी हाल ही में उन्होंने तमाम मुद्दों को लेकर दिए हैं, जिन्हें उठाकर विपक्ष ने हाइप क्रिएट करने की कोशिश की है. बहुत बारीकी से पवार की राजनीति को समझना है तो उनके पुराने लिए गए फैसलों पर भी नजर डाली जा सकती है, जो महाराष्ट्र की राजनीति का सर्वविदित इतिहास हैं. बल्कि कांग्रेस से बेहतर ये बात कौन जानता है कि जिन शरद पवार के साथ वह विपक्ष को एक करने में जुटी है, उनकी राजनीतिक पार्टी एनसीपी का जन्म ही कांग्रेस विरोध से हुआ था. चौंकिएगा मत, इस विरोध का मुद्दा थीं सोनिया गांधी और उनका विदेशी मूल....
कैसे सोनिया गांधी के विरोध से अस्तित्व में आई NCP
साल था 1999, तारीख 15 मई. कांग्रेस की CWC की बैठक थी. शाम को हुई इस बैठक में अचानक ही शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर की ओर से विरोध के सुर सुनाई दिए. संगमा ने कहा, सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा बीजेपी लगातार उठा रही है. ये सुनना सोनिया के लिए उतना हैरानी भरा नहीं था, जितना वह अगले व्यक्ति की आवाज सुनकर हुईं. यह कोई और नहीं, शरद पवार थे, जिन्होंने तुरंत ही संगमा की बात का समर्थन किया और अपनी हल्की-मुस्कुराती आवाज में पहले तो संगठन में एकता लाने के लिए सोनिया गांधी की तारीफ की और फिर तुरंत ही अगली लाइन में प्रश्नवाचक चिह्न उछाल दिया.
25 मई 1999 को हुआ एनसीपी का गठन
शरद पवार ने कहा कि, 'कांग्रेस आपके विदेशी मूल के बारे में बीजेपी को जवाब नहीं दे सकी है. इस पर गंभीरता से विचार की जरूरत है. इस तरह, साल 1999 में शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने का विरोध किया और इसके बाद तीनों को पार्टी से निकाल दिया गया. महज दस दिन बाद ही तीनों ने मिलकर 25 मई 1999 को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) का गठन किया.
शरद के पावर गेम की एक और कहानी देखिए
वक्त जुलाई 1978. एक उमस भरी दोपहरी में शरद पवार, तब के महाराष्ट्र सीएम वसंत दादा पाटील के घर खाने पर पहुंचे थे. बुलावा खुद पाटील ने ही भेजा था. वह इस दौरान अपने इस युवा उद्योग मंत्री (शरद पवार) से कुछ चर्चा करना चाहते थे. कहते हैं कि शरद पवार गए, खाना खाया, बातचीत की और चलते हुए उन्होंने दादा पाटील के आगे हाथ जोड़े, कहा- दादा, मैं चलता हूं, भूल-चूक माफ करना... सीएम वसंत दादा तब कुछ समझे नहीं, लेकिन शाम को एक खबर ने महाराष्ट्र समेत दिल्ली की राजनीति को भी हिला दिया था. सीएम रहे पाटील को अब माफी की वजह समझ आ गई थी, क्योंकि शरद पवार ने उसी शाम 38 विधायकों को अपनी ओर मिलाकर उनके नीचे से सीएम कुर्सी ही खींच ली थी. इस तरह शरद पवार ने महाराष्ट्र के सबसे युवा सीएम होने का खिताब भी अपने नाम कर लिया था. बता दें कि महाराष्ट्र में 1978 में कांग्रेस यू और कांग्रेस आई के गठबंधन वाली सरकार थी. दोनों ने चुनाव अलग-अलग लड़ा था, लेकिन चुनाव बाद जनता पार्टी को रोकने के लिए यहां आई और यू के गठबंधन की सरकार बनी थी. जिसके सीएम वसंत दादा पाटील बने थे. जिनका भरोसा शरद पवार ने तोड़ा था.
बीजेपी के विरोध वाले हर मुद्दे पर अलग क्यों दिखते हैं शरद?
ये दो कहानियां इसलिए, क्योंकि दोनों सीधे तौर पर कांग्रेस से जुड़ी रही हैं. हालांकि इसके बावजूद एनसीपी और शरद के साथ कांग्रेस गठबंधन करके सरकार चलाती रही है. इस बार भी जब साल 2024 के लिए विपक्षी एकता की बात शुरू हुई है तो शरद पवार फिर से पवार पैक्ड नेता के रूप में सामने आ सकते थे, लेकिन उन्होंने हर उस मुद्दे से खुद को किनारे कर लिया, जिन्हें कांग्रेस या अन्य विपक्षी दल जोर-शोर से उठा रहे थे.
डिग्री मुद्दे से किया किनारा
बात करें पीएम मोदी की डिग्री की तो इसे आम आदमी पार्टी और शिवसेना के उद्धव गुट ने फिर से उछाला था. कांग्रेस का इस मुद्दे पर मौन समर्थन था, लेकिन शरद पवार ने इस मसले पर दो टूक कह दिया कि 'आज कॉलेज डिग्री का सवाल बार-बार पूछा जा रहा है, आपकी क्या डिग्री है या मेरी क्या डिग्री है लेकिन क्या ये राजनीतिक मुद्दा है? पवार ने कहा कि केंद्र सरकार को बेरोजगारी, कानून व्यवस्था, महंगाई जैसे मुद्दों पर घेरा जाना चाहिए या फिर जो अन्य अहम मुद्दे हैं, उन पर बात होनी चाहिए. उन्होंने पीएम की डिग्री वाले मुद्दे को सिरे से खारिज कर दिया.
अडानी मामले में जेपीसी जांच से सहमत नहीं
ठीक इसी तरह हिंडनबर्ग रिपोर्ट के सामने आने के बाद अडानी मुद्दा लगातार चर्चा में बना हुआ था. कांग्रेस नेता राहुल गांधी हर प्रेस कॉन्फ्रेंस में सवाल पूछ रहे थे कि अडानी के पास 20 हजार करोड़ किसके. इस मामले में जेपीसी जांच पर सभी की एक राय बनी, लेकिन शरद पवार फिर इस मुद्दे से अलग हो गए. उन्होंने कहा, इससे कुछ खास फायदा नहीं होगा. "मेरी पार्टी ने अदाणी मुद्दे पर जेपीसी का समर्थन किया है, लेकिन मुझे लगता है कि जेपीसी पर सत्तासीन पार्टी का कब्जा रहेगा, इसलिए इससे सच्चाई सामने नहीं आ पाएगी.
सावरकर पर कांग्रेस थी तल्ख, शरद पवार ने दी दी गुगली
बीते दिनों कांग्रेस लगातार बीजेपी का विरोध करने में सावरकर को भी मुद्दा बना रही थी. सदस्यता जाने के बाद राहुल गांधी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में माफी मांगे जाने के एक सवाल पर कहा था कि 'मैं सावरकर नहीं हूं, मैं राहुल गांधी हूं, माफी नहीं मांगूंगा'. उनके ऐसे कई बयानों से सियासत में जब उबाल आ गया तो शरद पवार ने अपने एक बयान से उसे ठंडा कर दिया. हुआ यूं कि शरद पवार ने खुले मंच से की सावरकर की तारीफ कर दी. नागपुर में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा, ''आज सावरकर कोई राष्ट्रीय मुद्दा नहीं है, यह पुरानी बात है. हमने सावरकर के बारे में कुछ बातें कही थीं लेकिन वह व्यक्तिगत नहीं थी. यह हिंदू महासभा के खिलाफ था. लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है. हम देश की आजादी के लिए सावरकर जी द्वारा दिए गए बलिदान को नजरअंदाज नहीं कर सकते.'' उन्होंने कहा, करीब 32 साल पहले उन्होंने सावरकर के प्रगतिशील विचारों के बारे में संसद में बात की थी. सावरकर ने रत्नागिरी में एक घर बनवाया और उसके सामने एक छोटा मंदिर भी बनवाया. उन्होंने वाल्मीकि समुदाय के एक व्यक्ति को मंदिर में पूजा करने के लिए नियुक्त किया. मुझे लगता है कि यह एक बहुत ही प्रगतिशील चीज थी." शरद पवार के इतना कहने से कांग्रेस राजनीति में जिस तरह के ज्वार लाने की कल्पना कर रही थी, वह धरी रह गई.
विपक्षी एकता को पवार ने दिया झटका
शरद पवार सोमवार को अमरावती में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे थे. इस दौरान जब उनसे पूछा गया कि क्या 2024 में महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी मिलकर चुनाव लड़ेगी. इस पर उन्होंने कहा, आज हम महाविकास अघाड़ी का हिस्सा हैं, और हमारी साथ काम करने की इच्छा है. लेकिन केवल इच्छा ही राजनीति में हमेशा पर्याप्त नहीं होती. सीटों का बंटवारा, कोई समस्या है या नहीं, इन सब पर अभी चर्चा नहीं हुई है. तो मैं आपको इस बारे में कैसे बता दूं. उन्होंने कहा कि आज हम महाविकास अघाड़ी के साथ हैं. लेकिन 2024 में होने वाले चुनाव में साथ रहेंगे या नहीं, इसके बारे में अभी से कुछ बोला नहीं जा सकता.
शरद पवार के वर्चस्व को नकार नहीं सकते
शरद पवार के हालिया बयानों को लेकर राजनीतिक विशेषज्ञ भी इस पर सहमत दिखते हैं कि एनसीपी चीफ वर्तमान में जिस तरह के कदम उठा रहे हैं वह कहीं न कहीं उनकी महत्वकांक्षा को दिखाती है. महाराष्ट्र के राजनीतिक मामलों के जानकार, आज तक के वरिष्ठ पत्रकार ऋत्विक भालेकर कहते हैं कि पार्टी में ही नहीं राजनीति में भी शरद पवार का वर्चस्व अभी भी बना हुआ है, इसे नकारा नहीं जा सकता है. 2019 का जिक्र करते हुए वह कहते हैं कि अगर ऐसा नहीं होता तो , जिस तरह से अजित पवार ने बीजेपी के साथ शपथ ली थी, उसे गिरना नहीं पड़ता और वह महाविकास अघाड़ी में जाने को बाध्य नहीं होते.
किस वजह से मुद्दों से किनारा करते हैं शरद पवार
वरिष्ठ पत्रकार ऋत्विक भालेकर कहते हैं कि शरद पवार की महात्वकांक्षा रही है कि वह राष्ट्रीय राजनीति में बड़ा चेहरा बनें और लीडर की भूमिका में सामने आए, लेकिन कांग्रेस के रहते यह मंशा पूरी होती नहीं दिखती है. यही स्थिति 1999 में भी थी. अब इधर कांग्रेस या ऐसा कह लें कि गांधी परिवार से कोई सदस्य पीएम बनने की संभावनाओं के साथ आगे बढ़ता है तो सवाल उठता है कि क्या शरद पवार उसे लीडर मानेंगे? ये बात अगर राहुल गांधी को केंद्र में रखकर की जाए तो शरद पवार उनसे कहीं ज्यादा सीनियर लीडर हैं, इसलिए राहुल गांधी पर शरद पवार अपनी स्वीकृति नहीं देंगे. महाविकास अघाड़ी के बनने में भी शरद पवार और राहुल गांधी की कोई बात नहीं हुई थी, बल्कि पवार ने सोनिया गांधी से ही बात की थी.
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आखिर क्या सोच रहे हैं शरद पवार
अब इस पूरे इतिहास को समेटते हुए इसकी पीछे की मंशा को समझने की कोशिश करें तो साल 1999 में ही इसका एक पहलू दिखता है. राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि 1999 में पवार 58 साल के थे और अच्छी तरह जानते थे, कि अगर सोनिया ने कमान संभाली तो फिर उनके प्रधनमंत्री बनने की संभावनाएं पूरी तरह खत्म हो जाएंगी. आज फिर वैसी ही परिस्थिति बन रही हैं. कांग्रेस, एक बार फिर गांधी परिवार के एक सदस्य में प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल होने की संभावनाएं देख रही हैं, लेकिन शरद पवार क्या सोच रहे हैं, ये सोचने का विषय है.