
महाराष्ट्र के मराठा समुदाय के आरक्षण मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की 50 फीसदी की तय सीमा में बदलाव को लेकर राज्यों से राय मांगी थी. देश के आधा दर्जन राज्य ऐसे हैं, जो 50 फीसदी आरक्षण का दायरा बढ़ाने के पक्ष में खड़े हैं. इनमें महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु, झारखंड और कर्नाटक जैसे राज्य शामिल हैं, जो आरक्षण के दायरे को बढ़ाकर अपने राजनीतिक और सामाजिक समीकरण को मजबूत करना चाहते हैं.
दरअसल, साल 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए जाति-आधारित आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी तय कर दी थी. सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले के बाद कानून ही बन गया कि 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता. इसके चलते राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट, महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पटेल जब भी आरक्षण मांगते हैं तो सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आड़े आ जाता है.
हालांकि, साल 2019 में मोदी सरकार ने पिछले दिनों सामान्य वर्ग को आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए संविधान में संशोधन का विधेयक संसद के दोनों सदनों से पारित करवा दिया. इससे आरक्षण की अधिकतम 50 फीसदी सीमा के बढ़कर 60 प्रतिशत हो जाने का रास्ता आसान हो गया है. वहीं, अब मराठा आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने राज्य की राय जाननी चाही तो तमाम प्रदेशों की सरकार 50 फीसदी आरक्षण के दायरे के बाहर निकलना चाहती हैं.
येदियुरप्पा का आरक्षण बढ़ाने का प्लान
कर्नाटक की बीएस येदियुरप्पा सरकार ने सोमवार को कैबिनेट की बैठक में यह फैसला लिया है कि 50 फीसदी आरक्षण के दायरे को बढ़ाया जाए, क्योंकि सामाजिक परिदृश्य पूरी तरह से बदल गया है और और पिछड़े वर्ग की आकांक्षाएं बढ़ी हैं. इसे लेकर कर्नाटक सरकार सुप्रीम कोर्ट में अपनी राय रखेगी. कर्नाटक में अनुसूचित जातियों के लिए 15 फीसदी, एसटी के लिए 3 फीसदी और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 32 फीसदी आरक्षण प्रदान किया जाता है, जो कुल मिलाकर 50 फीसदी होता है.
दरअसल, राज्य में लंबे समय से पंचमसाली लिंगायत, कुरूबा और वाल्मिकी समुदाय अलग-अलग श्रेणी में आरक्षण की मांग कर रहे हैं. पंचमसाली समुदाय 2ए श्रेणी का दर्जा देने की मांग कर रहा है तो वहीं कुरूबा समुदाय अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग कर रहा है. वाल्मीकि समुदाय की भी मांग है कि अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण को तीन से बढ़ाकर 7.5 प्रतिशत किया जाए. यही वजह है कि सीएम येदियुरप्पा आरक्षण के दायरे को 50 फीसदी से ज्यादा बढ़ाने के पक्ष में फैसले ले रहे हैं.
राजस्थान भी चाहता है 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण
राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से आगे बढ़ाने के पक्ष में है. इसके लिए बाकायदा गहलोत सरकार सुप्रीम कोर्ट में इस मसले पर अपना पक्ष मजबूत से रखेगी, जिसके लिए पिछले दिनों कैबिनेट में इस पर चर्चा भी हुई. राजस्थान सरकार इस बात से सहमत है कि आरक्षण की 50 फीसदी सीमा पर पुनर्विचार करना चाहिए और उसे बढ़ाए जाना चाहिए. दरअसल, राजस्थान में गुर्जर समुदाय के अलग से आरक्षण की मांग काफी लंबे समय से हो रही है, जिसे लेकर कई बार कदम उठाए गए. लेकिन, कोर्ट में इसे कानूनी मंजूरी नहीं मिल पाती है. अब जब सुप्रीम कोर्ट ने ही राज्य सरकार से 50 फीसदी आरक्षण पर राय मांगी तो गहलोत सरकार के मन की मुराद पूरी हो गई.
तमिलनाडु में पहले से 69 फीसदी आरक्षण
तमिलनाडु में काफी पहले से ही आरक्षण का दायरा 50 फीसदी से कहीं ज्यादा है. यहां पर रिजर्वेशन संबंधित कानून की धारा-4 के तहत 30 फीसदी रिजर्वेशन पिछड़ा वर्ग, 20 फीसदी अति पिछड़ा वर्ग, 18 फीसदी एससी और एक फीसदी एसटी के लिए रिजर्व किया गया है. इस तरह से तमिलनाडु में कुल 69 फीसदी रिजर्वेशन दिया जा रहा है. तमिलनाडु रिजर्वेशन एक्ट 69 फीसदी रिजर्वेशन की बात करता है, जिसे लेकर कोर्ट में याचिका भी पड़ी है. याचिका में कहा गया है कि इंदिरा साहनी जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की बेंच ने कहा था कि रिजर्वेशन के लिए 50 फीसदी की सीमा है. तमिलनाडु में चुनाव हो रहे हैं, जिसके चलते सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर कोई राय नहीं रखी गई है.
झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार भी आरक्षण बढ़ाने के पक्ष में
झारखंड की हेमंत सोरेन की अगुवाई वाली सरकार भी राज्य में 50 फीसदी से अधिक आरक्षण बढ़ाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में पक्ष रखेगी. मालूम हो कि सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों से आरक्षण की सीमा बढ़ाने पर उनका पक्ष मांगा है. इसको लेकर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने विधानसभा सदन में आरक्षण की सीमा 50 फीसद से अधिक बढ़ाने की बात कही है. इसके पीछे असल वजह यह है कि झारखंड में काफी लंबे समय से ओबीसी समुदाय 14 फीसदी आरक्षण को बढ़ाकर 27 फीसदी करने की मांग कर रहा है, जिसे लेकर हेमंत सोरेन चुनाव में वादा भी कर चुके हैं.
मौजूदा समय में झारखंड में अनुसूचित जनजाति को 26 फीसदी, अनुसूचित जाति को 10 फीसदी, ओबीसी को 14 फीसदी और आर्थिक रूप से पिछड़ी सवर्ण जातियों को 10 फीसदी आरक्षण मिल रहा है. इस तरह से 60 फीसदी आरक्षण है. वहीं, ओबीसी के आरक्षण को 14 से 27 फीसदी करने पर कुल आरक्षण 73 फीसदी हो जाएगा. इसीलिए हेमंत सोरेन सुप्रीम कोर्ट में आरक्षण के दायरे को बढ़ाने के पक्ष में खुलकर खड़े हैं.
महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की मांग
महाराष्ट्र सरकार भी आरक्षण के दायरे को 50 फीसदी से ज्यादा बढ़ाने की मांग सुप्रीम कोर्ट में पहले ही रख चुकी है. इसके पीछे वजह साफ है कि राज्य में मराठा आरक्षण की मांग काफी लंबे समय से हो रही थी, जिसे लेकर राज्य सरकार ने 2018 में मराठा समुदाय को 16 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया था. सरकार के इस फैसले को लेकर बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई, जिस पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने जून 2019 में आरक्षण के दायरे को 16 फीसदी से घटाकर शिक्षा में 12 फीसदी और नौकरी में 13 फीसदी आरक्षण देना तय कर दिया था. साथ ही हाईकोर्ट ने कहा कि अपवाद के तौर पर राज्य में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50 फीसदी आरक्षण की सीमा पार की जा सकती है.
बॉम्बे हाईकोर्ट के मराठा आरक्षण पर दिए गए फैसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी गई. सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच ने मराठा आरक्षण पर सुनवाई करते हुए इंदिरा साहनी केस या मंडल कमीशन केस का हवाला देते हुए इस पर रोक लगा दी. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस मामले की सुनवाई के लिए बड़ी बेंच बनाए जाने की आवश्यकता है. मराठा आरक्षण के लिए पांच जजों की बेंच इस मामले की सुनवाई कर रही है. इस मामले में सरकार साफ तौर पर कह चुकी है कि आरक्षण के दायरे को बढ़ाया जाए.
केरल चुनाव के चलते नहीं लिया फैसला
तमिलनाडु की तरह केरल में भी विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, ऐसे में सरकार की ओर से सुनवाई टालने की अपील की गई है. सरकार कहना है कि चुनावों के कारण इस सुनवाई को टाल देना चाहिए, क्योंकि ये पॉलिसी से जुड़ा फैसला होगा. ऐसे में सरकार अभी कोई पक्ष नहीं ले सकती है. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि सरकार के पास अपना जवाब देने के लिए एक हफ्ते का वक्त है. सरकारें अपना लिखित जवाब तैयार करें और अदालत को दें. अभी सिर्फ इस चीज़ पर फोकस है कि इंद्रा साहनी जजमेंट को फिर से देखने की जरूरत है या नहीं.