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तमिलनाडु में रीजनल पार्टियों की पिछलग्गू बनने को क्यों मजबूर हैं बीजेपी-कांग्रेस

तमिलनाडु में एक दौर में कांग्रेस एक मजबूत पार्टी थी, लेकिन 1967 में सत्ता से बाहर होने के बाद वापसी नहीं कर सकी. पिछले पचास सालों से तमिलनाडु की सियासत पर एआईएडीएमके और डीएमके का दबदबा कायम है. इन्हीं दोनों क्षत्रपों के इर्द-गिर्द तमिलनाडु की राजनीति सिमटी हुई है और जिसके चलते बीजेपी व कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियां यहां के क्षेत्रीय दलों की पिछलग्गू बनने को मजबूर हैं. 

राहुल गांधी और डीएमके प्रमुख स्टालिन राहुल गांधी और डीएमके प्रमुख स्टालिन
कुबूल अहमद
  • नई दिल्ली ,
  • 23 नवंबर 2020,
  • अपडेटेड 1:09 PM IST
  • 1967 से तमिलनाडु की सत्ता से बाहर कांग्रेस
  • पचास साल से DMK और AIADMK का राज
  • कांग्रेस और बीजेपी के पास कोई कद्दावर चेहरा नहीं

दक्षिण भारत की राजनीतिक दशा-दिशा तय करने वाले तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव की हलचलें तेज हो गई हैं. देश की सत्ता पर भले ही बीजेपी और कांग्रेस राज करती रही हों, लेकिन पिछले पचास सालों से तमिलनाडु की सियासत पर एआईएडीएमके और डीएमके का दबदबा कायम है. इन्हीं दोनों क्षत्रपों के इर्द-गिर्द तमिलनाडु की राजनीति सिमटी हुई है और जिसके चलते बीजेपी व कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियां यहां के क्षेत्रीय दलों की पिछलग्गू बनने को मजबूर हैं. 

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तमिलनाडु देश के उन चुनिंदा राज्यों में से एक है, जहां 1956 से ही क्षेत्रीय दलों का राजनीति में दखल रहा है. यही वजह है कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में देश में मोदी लहर के बावजूद तमिलनाडु में बीजेपी कमल नहीं खिला सकी है. वहीं, 1967 तक तमिलनाडु में कांग्रेस का दबदबा रहा है, लेकिन उसके बाद वह सत्ता से बाहर हुई तो अभी तक वापसी नहीं कर सकी. इस तरह से कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियों के लिए यहां की सियासी जमीन उपजाऊ नहीं बन पा रही. ऐसे में कांग्रेस ने डीएमके के साथ गठबंधन कर रखा है जबकि बीजेपी का AIADMK के साथ चुनाव लड़ने की संभावना बन रही है. 

साठ के दशक में उभरी डीएमके
ईवी रामास्वामी यानी पेरियार और सीएन अन्नादुरई ने सामाजिक और क्षेत्रीय आंदोलन की शुरूआत की थी. हालांकि, बाद में दोनों लोगों के बीच मतभेद हो गए और पार्टी टूट गई. अन्नादुरई ने द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) का गठन किया. डीएमके ने 1956 में राजनीति में प्रवेश किया. साठ के दशक में हिंदी के खिलाफ हुए अंदोलन में डीएमके मजबूत दल के रूप में उभरा. साल 1967 में डीएमके ने तमिलनाडु से कांग्रेस का सफाया कर दिया था. अन्नादुरई मुख्यमंत्री बने, लेकिन 1967 में उनकी मृत्यु हो गई, जिसके एम करुणानिधि मुख्यमंत्री बने.

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सत्तर के दशक में AIADMK बनी 
करुणानिधि को मुख्यमंत्री बने बहुत समय नहीं हुआ था कि साल 1969 में उनके नेतत्व को एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) ने चुनौती दी. इसी के बाद 1972 में डीएमके दो हिस्सों में बंट गई. एमजीआर ने अपने समर्थकों के साथ ऑल इंडिया द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) का गठन किया. 1977 में एमजीआर ने पहली बार चुनाव जीता और 1987 में अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने तीन बार, 1977, 1980 और 1984 में सरकार बनाई. इसके बाद तमिलनाडु में डीएमके तो कभी एआईएडीएमके सत्ता का स्वाद चखती रही है. 

जयललिता-करुणानिधी के बगैर चुनाव

एमजीआर के निधन के बाद AIADMK की कमान जयललिता को मिली और डीएमके के मुखिया करुणानिधि रहे. तमिलनाडु में इन दोनों दलों के अलावा कई अन्य क्षेत्रीय दल भी उभरे, लेकिन वे केवल क्षेत्र विशेष तक ही सीमित रहे. इनमें पीएमके, वीसीके, डीएमडीके और एमडीएमके शामिल हैं. वहीं, सुपरस्टार रजनीकांत और अभिनेता कमल हासन ने भी हाल ही में अपनी राजनीतिक पार्टियां बना ली हैं, जिनके इस बार चुनाव लड़ने की संभावना है. 

तमिलनाडु में पहली बार होगा, जब एआईएडीएमके और डीएमके अपने सबसे प्रभावशाली चेहरे जयललिता और करुणानिधि के बिना विधानसभा चुनाव में उतरेंगे. इन दोनों पार्टियों ने अपने वारिस चुने हैं, करुणानिधि के निधन के बाद डीएमके की कमान उनके बेटे स्टालिन के हाथ में है जबकि जयललिता के निधन के बाद AIADMK के समन्वयक ओ पन्नीरसेल्वम और सीएम के पलानीस्वामी पार्टी के कर्ताधर्ता हैं. 

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कांग्रेस का तमिलनाडु में वजूद
एक दौर में तमिलनाडु में कांग्रेस एक मजबूत पार्टी के रूप में थी. आजादी के बाद कांग्रेस के कामराज जैसे नेता तीन बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री रहे. तमिलनाडु में कांग्रेस ने 1967 में सत्ता गंवा दी थी. उसके बाद से प्रदेश में डीएमके या एआईएडीएमके ही सत्ता पर काबिज रहती आई है. कामराज सरकार के बाद कांग्रेस प्रदेश में कभी सत्ता में नहीं आ सकी. 

कांग्रेस-बीजेपी के प्रभाव न होने की वजह
तमिलनाडु के वरिष्ठ पत्रकार जीके सुमंथ रामन कहते हैं कि यहां तमिल अस्मिता एक बड़ा अहम कारण है क्षेत्रीय दलों के उभार के पीछे. इसीलिए कांग्रेस-बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टियों की भूमिका यहां बहुत सीमित है और वे अकेले अपने दम पर राज्य में कुछ खास करने की स्थिति में नहीं है. दोनों ही राष्ट्रीय  पार्टियों के पास फिलहाल कोई ऐसा चेहरा नहीं है जिसे आगे कर वो अकेले दम पर चुनावी मैदान में उतरकर कोई बड़ा करिश्मा दिखा सकें. रामन कहते हैं कि तमिलनाडु में कांग्रेस के पास मौजूदा समय में पी चिदंबरम सबसे बड़े नेता माने जाते हैं, लेकिन न तो जनाधार वाले नेता हैं और न ही बहुत लोकप्रिय हैं. 

तमिलनाडु में अब कांग्रेस का जनाधार बचा ही नहीं है ऐसे में डीएमके के साथ गठबंधन करके ही कुछ फायदा मिल सकता है. 2019 के लोकसभा चुनाव में डीएमके साथ मिलकर लड़ने पर को फायदा कांग्रेस को मिला था. यूपीए को 38 सीटें मिली थीं, जिनसे आठ सीटें कांग्रेस ने जीती थीं. 2016 में दोनों अलग-अलग लड़े थे, जिसके चलते कांग्रेस सिर्फ आठ सीटें ही जीत सकी थी. वहीं, बीजेपी के साथ भी कांग्रेस से अलग नहीं है. यहां AIADMK के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के बाद भी बीजेपी खाता नहीं खोल सकी थी जबकि 2014 में एक सीट थी. विधानसभा में भी बीजेपी का एक भी विायक नहीं है. यहां बीजेपी के पास एआईएडीएमके ही विकल्प है. 

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बीजेपी का राजनीतिक आधार
वह कहते हैं कि तमिलनाडु में बीजेपी का कोई खास वजूद कभी नहीं रहा. बीजेपी की तमाम कोशिशें भी यहां फेल रही. हालांकि, कुछ पूर्व अध्यक्षों को केन्द्रीय नेतृत्व ने जरूर उपकृत किया है. तमिलनाडु भाजपा के अध्यक्ष रहे एल. गणेशन को मध्यप्रदेश से राज्यसभा में भेजा था तो पूर्व अध्यक्ष तमिलइसै सौंदरराजन को तेलंगाना का राज्यपाल बना दिया. पश्चिम तमिलनाडु में AIADMK और बीजेपी की पकड़ मानी जाती है जबकि दक्षिण तमिलनाडु में कांग्रेस और उत्तर व मध्य तमिलनाडु में डीएमके का आधार वाला इलाका माना जाता है. 

 

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