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जलियांवाला बाग नरसंहार में अपने ग्रैंडफादर की 'नृशंस हत्या' के लिए मुआवजे की मांग को लेकर स्वतंत्रता सेनानी मोहन सिंह ने पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट से गुहार लगाई है. याचिकाकर्ता मोहन सिंह ने दावा किया है कि इस मामले में मुआवजा पिछले 98 सालों से बकाया है.
मोहन सिंह ने कहा कि जलियांवाला बाग में होने वाली सभा में हिस्सा लेने के लिए 15-16 ग्रामीणों के साथ उनके दादा ईशर सिंह 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर गए थे. उन्होंने कहा कि जनरल डायर की फायरिंग में उनके दादा ईशर सिंह शहीद हो गए थे.
सरकारी एजेंसियों की लापरवाही से बढ़ी मुश्किलें
मोहन सिंह के वकील ने कहा कि आजादी के बाद से केंद्र और पंजाब की सरकारें स्वतंत्रता सेनानियों और उनके आश्रितों के लिए वेलफेयर स्कीम्स लॉन्च करती रही हैं. लेकिन लागू करने वाली एजेंसियों की बेपरवाही और नकारात्मक मानसिकता के चलते वेलफेयर स्कीम्स का लाभ लोगों को पूरी तरह मिल नहीं पाया.
उन्होंने कहा कि सरकार ने जलियांवाला बाग नरसंहार में मारे गए लोगों के परिजनों को मुआवजा देने का फैसला किया था. लेकिन सरकारी एजेंसियों की लापरवाही के चलते शहीदों के परिजनों को इसका लाभ मिल नहीं पाया. याचिकाकर्ता मोहन सिंह की तरह लोगों को कठिनाई झेलने के लिए छोड़ दिया गया.
बिस्तर पर हैं मोहन सिंह
स्वतंत्रता सेनानी मोहन सिंह बिस्तर पर हैं, वे उठ नहीं सकते. उनकी उम्र भी ज्यादा हो गई है. सरकारी एजेंसियों की लापरवाही के चलते उन्हें परेशानियों से जूझना पड़ा है. मोहन सिंह के वकील ने कहा कि सरकार मोहन सिंह को जरूरी मुआवजा और सुविधाएं उपलब्ध कराए.
90 वर्ष के मोहन सिंह ने अपनी याचिका में कहा है कि उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में भी हिस्सा लिया और 20 अक्टूबर 1942 से 24 जुलाई 1943 तक जेल में रहे.
2007 तक मिली पेंशन
मोहन सिंह को स्वतंत्रता सैनिक सम्मान पेंशन स्कीम के तहत दिसबंर 2007 तक पेंशन मिलती रही, लेकिन बाद में इसे वापस ले लिया गया. सरकार ने हवाला दिया कि मोहन सिंह कम से कम 6 महीने जेल में रहने के दावे के पक्ष में सबूत नहीं दे पाए. इसके बाद मोहन सिंह ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, कोर्ट ने पुर्नविचार याचिका दाखिल करने की अनुमति दी.
मोहन सिंह का मामला जस्टिस एमएमएस बेदी की बेंच के पास है. मामले पर सुनवाई जुलाई के दूसरे सप्ताह में होगी.