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यूपी-बिहार में अपनी जमीन के मालिक, लेकिन दूसरे राज्यों में कर रहे मजदूरी

बिहार और उत्तर प्रदेश के छोटे किसानों को एक अजीब समस्या का सामना करना पड़ रहा है. अपने राज्यों में जमीन के मालिक होने के बावजूद, वे पंजाब और हरियाणा में मजदूरों के रूप में काम कर रहे हैं.

अपने जमींदार गुरविंदर सिंह (बैंगनी पगड़ी में) के साथ गंगा महतो (बाएं), जफर (दाएं) और गणेश राम. अपने जमींदार गुरविंदर सिंह (बैंगनी पगड़ी में) के साथ गंगा महतो (बाएं), जफर (दाएं) और गणेश राम.
आनंद पटेल
  • अंबाला/मोहाली,
  • 17 दिसंबर 2020,
  • अपडेटेड 3:34 PM IST
  • फसल की कम कीमत मिलने पर हो रहा पलायन
  • पंजाब-हरियाणा में मजदूरी कर रहे हैं बिहार-UP के किसान

बिहार और उत्तर प्रदेश के छोटे किसानों को एक अजीब समस्या का सामना करना पड़ रहा है. अपने राज्यों में जमीन के मालिक होने के बावजूद, वे पंजाब और हरियाणा में मजदूरों के रूप में काम कर रहे हैं. कुछ प्रवासी मजदूरों का कहना है कि उनके राज्य में खेती फायदे का सौदा नहीं है क्योंकि उन्हें अपनी फसलों का अच्छा मूल्य नहीं मिलता है. इस हालत को समझने के लिए इंडिया टुडे टीवी ने अंबाला और मोहाली में ऐसे ही कुछ मजदूरों के साथ बातचीत की.

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गंगा महतो बिहार के शिवहर जिले में बहुआरा गांव के रहने वाले हैं. वे पिछले दो दशक से हरियाणा में अंबाला के कावंला गांव में एक खेत मजदूर के रूप में काम कर रहे हैं. गंगा के पास उनके घर पर चार बीघा जमीन है, जिस पर वे गेहूं और धान उगाते हैं, लेकिन उनकी उपज की कम कीमत उनके परिवार के लिए पर्याप्त नहीं है.

इंडिया टुडे को गंगा ने बताया, “प्रति क्विंटल 800-900 रुपये दाम मिलता है. अगर कीमत ज्यादा नहीं मिलती तो हमें जितना मिल रहा है उसी कीमत पर बेचना पड़ता है क्योंकि हम अपनी उपज लंबे समय तक नहीं रख सकते. इतने में एक परिवार का पालन-पोषण, बच्चों की शिक्षा और रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा कर पाना मुश्किल है, इसलिए हम मजदूरी करते हैं.”

उनके साथ ही काम करने वाले एक अन्य प्रवासी मजदूर गणेश राम भी शिवहर के रहने वाले हैं. वे 30 वर्षों से पंजाब और हरियाणा में मजदूर के रूप में काम कर रहे हैं. गणेश राम भी अपने पैतृक गांव में एक किसान हैं और तीन बीघा जमीन के मालिक हैं.

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उन्होंने बताया, “हमें अपनी उपज का अच्छा दाम नहीं मिलता, हमारा धान 800-900 रुपये में ही बिक पाता है. यहां के किसानों को अच्छा दाम मिलता है, उनके पास संगठित बाजार है इसलिए उन्हें अच्छा दाम मिलता है.”

2006 में एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (APMC) एक्ट को खत्म करने वाला बिहार देश का पहला राज्य था जिसने निजी कंपनियों को सुविधा मुहैया कराई कि वे किसानों से सीधे खरीद करें. वहां के कुछ किसानों का दावा है कि उन्हें अपनी उपज निजी कंपनियों को औने-पौने दामों पर बेचनी पड़ती है क्योंकि बिचौलिये और स्थानीय व्यापारी न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से कम दाम पर उपज खरीद कर भारी मुनाफा कमाते हैं.

जफर मेरठ का एक किसान है. सरधना तहसील के अपने गांव में वह चार बीघा जमीन का मालिक है. वह अपनी जमीन पर गेहूं और गन्ना उगाता है लेकिन संगठित मंडी का अभाव एक बड़ी समस्या है. जफर का कहना है, “बनिया से हमें सिर्फ 800-1,000 रुपये मिलता है. लेकिन वही उपज अगर हम सीमा पार करके हरियाणा की करनाल मंडी में लाते हैं तो हमें बेहतर कीमत मिलती है. लेकिन ढुलाई की लागत ज्यादा है, इसलिए मेरे पास यहां  मजदूरी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. अगर यहां मेरे पास दो एकड़ ज़मीन होती, तो मैं भी ज़मींदार होता.”  

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उनके जमींदार गुरविंदर सिंह सिर्फ चार एकड़ जमीन के मालिक हैं और 15 एकड़ जमीन पट्टे पर ली है, लेकिन वे डरे हुए हैं. उन्होंने इंडिया टुडे को बताया, “ये काले कानून हैं. यूपी और बिहार के इन मजदूरों को देखिए; वे भी हमारी तरह ज़मींदार हैं लेकिन हम जानते हैं कि उनकी हालत क्या है क्योंकि वहां शायद ही कहीं मंडियां हों. हम सरकार से अपील करते हैं कि वह हमें यूपी या बिहार में न तब्दील करे.”

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पलायन के लिए बड़ा फैक्टर हैं कीमतें
यूपी और बिहार के छोटे किसानों भी पंजाब और हरियाणा में पट्टे की जमीन लेकर पर खेती करते हैं. इंडिया टुडे ने बरेली, उत्तर प्रदेश के एक परिवार से मुलाकात की जो तीन दशकों से पंजाब में खेती कर रहा है. उन्होंने सब्जी उगाने के लिए मोहाली के गज्जू माजरा में जमीन लीज पर ली है; इसके पीछे उपज का बेहतर मूल्य बड़ी वजह है.

सात भाइयों में से एक इरशाद अहमद ने बताया, “यूपी में मंडियां कम हैं. यहां कई मंडियां हैं, इसलिए हमारी उपज की बेहतर कीमत मिलती है. हमारे पास बरेली में 10-12 बीघा जमीन है लेकिन मूल्य बहुत कम मिलता है. हमने उसे 10,000-11,000 रुपये प्रति बीघा लीज पर दिया है, जबकि यहां हमने 50,000 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से लीज़ पर जमीन ली है.”

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नरेंद्र मोदी सरकार की ओर से पारित तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसान राष्ट्रीय राजधानी में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. किसानों को डर है कि निजी मंडियों के सामने आने के बाद एमएसपी लागू नहीं किया जाएगा.

कावंला गांव के पूर्व सरपंच कुलविंदर सिंह कहते हैं, “हमारे पास बिहार से आने वाले मजदूर भी अपने गांव के ज़मींदार हैं, लेकिन वे फिर भी यहां आते हैं क्योंकि हमें एमएसपी मिलता है. ये प्रदर्शन एमएसपी को लेकर है. अगर यह खत्म हो गई तो हम भी उन्हीं के जैसे हो जाएंगे. फिर हमें भी अगले तीन चार सालों में कहीं बड़े कॉरपोरेट के यहां मजदूरी करनी पड़ेगी.”

 

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