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फिर सियासी जादूगर साबित हुए गहलोत, को-पायलट के साथ नई उड़ान

राजस्थान की सियासत के बेताज बादशाह अशोक गहलोत प्रदेश की राजनीति में एक नया इतिहास लिखा है. तीसरी बार गहलोत सत्ता के सिंहासन पर विराजमान हुए और उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

सचिन पायलट और अशोक गहलोत सचिन पायलट और अशोक गहलोत
कुबूल अहमद
  • नई दिल्ली,
  • 17 दिसंबर 2018,
  • अपडेटेड 3:29 PM IST

राजस्थान की सियासत के जादूगर अशोक गहलोत तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. राजस्थान की राजनीति में मास लीडर के तौर पर यदि किसी का नाम सबसे ऊपर होगा तो वो अशोक गहलोत हैं. राहुल के सबसे करीबी नेताओं में उनका नाम आता है.

पायलट: विरासत में मिली सियासत

गहलोत जहां सत्ता की कमान संभालेंगे वहीं सचिन पायलट की डिप्टी सीएम के तौर पर ताजोपीशी की गई. पायलट को सियासत विरासत में मिली है. उनके पिता राजेश पायलट प्रदेश के बड़े गुर्जर नेताओं में से एक थे. सचिन पायलट को कांग्रेस अध्‍यक्ष राहुल गांधी का करीबी माना जाता है.

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2014 में कांग्रेस की हार के बाद पार्टी नेतृत्व ने 21 जनवरी को सचिन पायलट पर भरोसा किया और उन्‍हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया. उनकी पांच साल की मेहनत ने कांग्रेस की सत्ता में वापसी कराई. ऐसे में उन्हें राजस्थान के उप मुख्‍यमंत्री की जिम्मेदारी सौंपी गई है. उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की मौजूदगी में शपथ ली.

राजस्थान के सियासी जादूगर गहलोत

बता दें कि राजस्थान की राजनीति में जातीय वर्चस्व को तोड़ते हुए शीर्ष पर पहुंचने वाले नेताओं में यदि किसी का नाम सबसे आगे आएगा है तो वो अशोक गहलोत हैं. सूबे में वो तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं. गहलोत का परिवार माली समाज से आता है. इनका परिवार किसी जमाने में जादूगरी का करतब दिखाता था.

राजस्थान की राजनीतिक रूप से अल्पसंख्यक और कमजोर जाति से आने वाले गहलोत ने अपने कार्यकाल में राजस्थान में ऐसा जादू चलाया जिसकी काट अभी किसी के पास नहीं है

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गुजरात के प्रभारी के तौर पर उन्होंने वहां की युवा तिकड़ी हार्दिक-अल्पेश-जिग्नेश को कांग्रेस के साथ खड़ाकर पार्टी को जीत की दहलीज पर ला खड़ा किया. जिसके बाद बतौर संगठन महासचिव गहलोत पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व में अध्यक्ष राहुल गांधी के राइट हैंड के तौर पर उभरे.

इंदिरा की पड़ी नजर, संजय ने दिलाई पहचान

अशोक गहलोत को 70 के दशक में कांग्रेस में शामिल होने का मौका मिला था, जब पू्र्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय पार्टी में संजय गांधी की चलती थी. जब संजय गांधी के करीबियों ने उन्हें अशोक गहलोत के बारे में बताया तो उन्होंने गहलोत को राजस्थान में पार्टी के छात्र संगठन एनएसयूआई का अध्यक्ष बनाया. गहलोत को शुरुआती दिनों में संजय गांधी की मंडली के लोग 'गिली बिली' कहकर संबोधित करते थे.

कुछ लोगों का मानना है कि अशोक गहलोत पर सबसे पहले स्वयं इंदिरा गांधी की नजर पड़ी थी. जब पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में विद्रोह के बाद पूर्वोत्तर में शरणार्थी संकट खड़ा हो गया था. गहलोत की उम्र उस वक्त 20 साल थी, और इंदिरा ने उन्हें राजनीति में आने का न्योता दिया. जिसके बाद गहलोत ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के इंदौर सम्मेलन में हिस्सा लिया और यहीं उनकी मुलाकात संजय गांधी से हुई.

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युवा कांग्रेस के विस्तार का दौर जिसने कई कद्दावर नेता दिए

कांग्रेस के इंदौर सम्मेलन में दिवंगत नेता प्रियरंजन दासमुंशी युवा कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे. यह वो समय था जब इंदिरा और संजय गांधी युवा कांग्रेस को दक्षिण पंथी जनसंघ और उसके सहयोगी संगठन से मुकाबले के लिए तैयार करना चाहते थे. जानकारों का मानना है कि कांग्रेस में यह काल युवा नेतृत्व के उभार का स्वर्णिम काल था. इस दौरान पार्टी को कई अहम नेता मिले जिसमें अशोक गहलोत, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, अंबिका सोनी, वायलार रवि, एके एंटनी, गुलाम नबी आजाद और बीके हरिप्रसाद शामिल हैं. यह सभी नेता आज के कांग्रेस में बड़ी हैसियत रखते हैं.

अपने स्वभाव और साधारण पृष्ठभूमि के अनुरूप अशोक गहलोत राजस्थान में लो प्रोफाइल रहते हुए काम करते रहे. लेकिन संजय गांधी की विमान हादसे में मौत के बाद जब पार्टी में राजीव गांधी को अहम रोल मिला, तब उन्होंने गहलोत के नाम की सिफारिश इंदिरा गांधी की कैबिनेट में राज्यमंत्री के तौर पर की. इस दौरान राजस्थान में कांग्रेस के दो बड़े नेता पूर्व मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी और शिवचरण माथुर का बोलबाला था. लेकिन गहलोत को राजीव गांधी का भरोसा हासिल था.

वो घटना जिसने गहलोत का रास्ता किया साफ

एक मशहूर वाकया है जब राजस्थान भीषण सूखे से जूझ रहा था और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने दिल्ली से 170 किमी दूर सारिस्का नेशनल पार्क में कैबिनेट की बैठक बुलाई थी. इस बैठक में राजीव ने राज्य के सभी मंत्रियों को सरकारी गाड़ियों की बजाय अपनी गाड़ी से आने के निर्देश दिए थे और राजीव खुद एक निजी कार चला रहे थे. तभी एक ट्रैफिक कॉन्स्टेबल ने राजीव की कार को सीधे जाने का सिग्नल देने के बजाय दाहिने मुड़ने के लिए कहा. कॉन्स्टेबल की इस गलती का परिणाम हरिदेव जोशी के लिए महंगा साबित हुआ, क्योंकि डायवर्जन की वजह से राजीव उस स्थान पर पहुंच गए जहां मंत्रियों की सरकारी गाड़ियां खड़ी थीं. दरअसल राजीव इसके जरिए पार्टी और सरकार में मितव्ययिता का संदेश देना चाह रहे थे.

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राजीव गांधी की नाराजगी की वजह से जोशी लंच में शामिल नहीं हुए, तब मेजबान जोशी की अनुपस्थिति में उनके मित्र और केंद्र में मानव संसाधन विकास मंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने मामले को ठंडा करने की नाकाम कोशिश की. और इस घटना के एक महीने बाद हरिदेव जोशी को बदलकर शिवचरण माथुर को राजस्थान का मुख्यमंत्री बना दिया गया. भले ही लगभग दो साल बाद जोशी ने फिर वापसी कर ली हो, लेकिन इसके बाद कांग्रेस आलाकमान के सामने उनकी वो धाक नहीं रही.

केंद्र में भी छोड़ी अमिट छाप

इस दौरान गहलोत केंद्र सरकार में पर्यटन मंत्री की भूमिका निभा रहे थे. राष्ट्रीय राजधानी में आईएनए मार्केट के ठीक सामने दिल्ली हाट के निर्माण का श्रेय गहलोत को जाता है जिन्होंने देश भर के शिल्पकार, हस्तशिल्प कला के लोगों के उत्पाद को सीधे ग्राहकों तक बिना किसी बिचौलिए के पहुंचाने का काम किया. राजीव से गहलोत की नजदीकी ने सोनिया गांधी और उसके बाद राहुल गांधी की अध्यक्षता वाली कांग्रेस में उनकी भूमिका कम नहीं होने दी.

1998 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की हार हुई और भैरोसिंह शेखावत के बाद अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाया गया. गहलोत इस समय विधायक नहीं थे,  लिहाजा जोधपुर के सरदारपुरा विधानसभा से विधायक मानसिंह देवड़ा ने उनके लिए सीट खाली कर दी. जिसके बाद हुए उपचुनाव में जीत के बाद से गहलोत लगातार इस सीट से विधायक हैं.

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जाटों का कांग्रेस से मोहभंग

जानकारों की मानें तो माली समुदाय से आने वाले अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री बनने पर कांग्रेस को राजस्थान में अपने पारंपरिक जाट वोट का नुकसान हुआ. राजपूतों के धुर विरोधी जाट राजस्थान में 60-70 सीटों पर निर्णायक भूमिका में रहते हैं. राज्य में पहले विधानसभा चुनाव से ही जाटों का झुकाव कांग्रेस की तरफ रहा क्योंकि कांग्रेस ने राजशाही खत्म की. कांग्रेस के बड़े जाट नेता रामनिवास मिर्धा, नाथूराम मिर्धा, परसराम मदेरणा का मारवाड़ में जबरदस्त बोलबाला था. इन नेताओं ने इमरजेंसी के बाद भी जब कांग्रेस का उत्तर भारत से सफाया हो गया था तब कांग्रेस का यह किला ढहने नहीं दिया. अपनी वफादारी के लिए लंबे समय तक इस समुदाय के नेता मुख्यमंत्री बनने आस लगाए रहें. लेकिन 1998 में अशोक गहलोत के सीएम बनने के बाद इनका मोह भंग होता चला गया.

अभी भी सर्वमान्य हैं गहलोत

राजस्थान की राजनीति में मास लीडर के तौर पर यदि किसी का नाम सबसे ऊपर होगा तो वो अशोक गहलोत ही होंगे. राजनीतिक रूप से अल्पसंख्यक और कमजोर जाति से आने वाले गहलोत ने अपने कार्यकाल में राजस्थान में ऐसा जादू चलाया जिसकी काट अभी किसी के पास नहीं है. गहलोत का राजनीतिक कौशल ही था कि 1998 में मुख्यमंत्री के प्रबल दावेदार परसराम मदेरणा को पीछे छोड़ते हुए वे सत्ता के शिखर पर पहुंचे.

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