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1581 नेताओं पर आपराधिक मामले, चुनाव में एंट्री पर कैसे लगेगी रोक?

दागी नेताओं के चुनावी भविष्य पर बड़ा फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उनके चुनाव लड़ने पर रोक न लगाते हुए इस संबंध में कानून बनाने की सलाह देकर गेंद देश की संसद के पाले में डाल दी है.

संसद, फाइल फोटो संसद, फाइल फोटो
विवेक पाठक
  • नई दिल्ली,
  • 25 सितंबर 2018,
  • अपडेटेड 1:03 PM IST

दागी नेताओं के चुनाव लड़ने पर सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को बड़ा फैसला सुनाते हुए चार्जशीट के आधार पर चुनाव लड़ने पर रोक लगाने से इनकार कर दिया. हालांकि कोर्ट ने कई शर्तें भी लगाईं जिससे इन जनप्रतिनिधियों के आपराधिक इतिहास के बारे में जनता को पता लग सके.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी कहा है कि संसद में दागी नेताओं की एंट्री रोकने के लिए कानून बनाने की आवश्यकता है. साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी आदेश दिया है कि तमाम राजनीतिक दल अपनी वेबसाइट पर नेताओं के आपराधिक रिकॉर्ड का ब्योरा डालें. साथ ही जनप्रतिनिधि और पार्टियां नामांकन दाखिल करने के बाद लोकल मीडिया (इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट) के माध्यम से लंबित आपराधिक मामलों की पूरी पब्लिसिटी करें.

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देश में कितनी है दागी नेताओं की संख्या?

चुनाव सुधार के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म (ADR) की तरफ से देश के कुल 4896 जन प्रतिनिधियों में से 4852 के चुनावी हलफनामों का विश्लेषण किया गया. जिसमें कुल 776 सांसदों में से 774 और 4120 विधायकों में से 4078 विधायकों के हलफनामों का विश्लेषण शामिल है.

ADR की इस रिपोर्ट में 33 फीसदी यानी 1581 जनप्रतिनिधियों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं. इनमें से सांसदों की संख्या 98 है जबकि 35 लोगों पर बलात्कार, हत्या और अपहरण जैसे संगीन आरोप हैं.

ADR के संस्थापक प्रोफेसर जगदीश छोकर ने aajtak.in से बातचीत में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को निराशाजनक बताया है. जगदीश छोकर का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने भारत की चुनाव व्यवस्था में सुधार का एक बहुत बड़ा मौका खो दिया. उनका कहना है कि SC ने जो निर्देश जारी किए हैं वो तो पिछले 15 साल से हो रहा है. इलेक्शन वॉच के माध्यम से ADR पिछले 15 साल से लगातार जनप्रतिनिधियों के आपराधिक इतिहास के बारे में रिपोर्ट छापती है.

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क्‍या थी याचिकाकर्ताओं की दलील?

दागी नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक गैर सरकारी संगठन पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे एम लिंगदोह और बीजेपी के वकील अश्विनी उपाध्याय ने याचिका दाखिल की थी. याचिकाकर्ताओं की तरफ से दलील दी गई थी कि आपराधिक इतिहास वाले नेताओं की सुनवाई में जानबूझकर देरी की जाती है. जिसकी वजह से कानून तोड़ने वाले ही कानून बनाने वाले बन जाते हैं. लिहाजा आरोप तय होने पर नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक लगे.

क्या थी सरकार की दलील?

इस याचिका को लेकर केंद्र सरकार की तरफ से दलील दी गई थी कि दागी नेताओं के चुनाव लड़ने को लेकर कानून पहले से मौजूद है, जिसमें सजा के बाद 6 साल तक उनके चुनाव लड़ने पर रोक है. इसलिए अदालत इसपर न ही कानून नहीं बना सकती है और न ही नई अयोग्यताएं जोड़ना न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में है.

केंद्र सरकार की दलील थी कि कानून बनाने का अधिकार संसद का है और कोर्ट इस मामले में दखल नहीं दे सकती. सरकार ने यह भी दलील दी थी कि आरोप तय होने की दशा में अयोग्य करार दिए जाने की वजह से चुनाव से पहले राजनीतिक विरोधी एक-दूसरे के खिलाफ राजनीतिक साजिश के तहत मामला दर्ज कराएंगे.

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अब सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कानून बनाने की सलाह संसद को देकर गेंद दूसरे पाले में डाल दी है. क्या संसद की ओर से इस मामले में कोई पहल होगी. चुनाव आयोग चुनावी सुधार की दिशा में पिछले कई साल से लगातार चर्चाएं कर रहा है लेकिन पार्टियों की ओर से इस मामले में कोई रुचि नहीं दिखती.

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