
देश में लड़कियों की शादी की उम्र 18 से बढ़ाकर 21 करने की बात हो रही है, वहीं हैदराबाद में अलग ही प्रैक्टिस चल रही है. वहां के चुनिंदा मुस्लिम-बहुल इलाकों में शेख-मैरिज हो रही है. खाड़ी देशों के शेख यहां शॉर्ट-टर्म शादियों के लिए आते हैं. ये अमीर लेकिन बुजुर्ग शेख होते हैं, जिन्हें अलग-अलग वजहों से कम उम्र लड़कियों की जरूरत होती है.
कुछ दिनों से लेकर कुछ महीनों चलने वाली शादियों में वर्जिन और खूबसूरत लड़की असल मोती है, जिसकी कीमत सबसे ज्यादा है.
एक बार शेख मैरिज कर चुकी लड़कियां फिर इस चंगुल से निकल नहीं पातीं. मैरिज एजेंट सफाई देता है- वालिदा खुद चाहती हैं कि उनकी बेटियां बिकें तो हम क्या करें. वैसे कुछ खास नुकसान नहीं होता उनका. और परिवार भी पल जाता है!
बात करते हुए पास से गुजरती बच्चियों की तरफ इशारा करते हुए एजेंट कहता है- ये देखिए. इनकी मांओं को एक फोन करूंगा और घंटेभर में बेटियां मेरे पास होंगी. कम से कम सौ लड़कियां तो अभी ही हाथ में हैं. सपाट आवाज में ऊभ-चूभ करता शातिरपन.
इस रिपोर्ट को हमने तीन हिस्सों में किया, पहली किस्त यहां पढ़ें:
Ground Report: अरब के शेखों के लिए हैदराबाद में बेटियों का बाजार, एक्सपायरी डेट के साथ लिखे जा रहे निकाहनामे
गलत काम करते आपको डर नहीं लगता? अनचाहे ही उग आया सवाल.
‘लगता है न, तभी तो कभी-कभार आप जैसे लोगों की मदद कर देता हूं. वैसे कसम ले लीजिए, बहुत छोटी बच्चियों की शादी मैंने कभी नहीं करवाई. महीना शुरू हो गया हो, तभी हाथ डालता हूं.’ इंफॉर्मेशन देकर गिल्ट मिटाता ये एजेंट अगले दो दिनों तक हमें हैदराबाद घुमाता रहा और बताता रहा कि शेख मैरिज क्यों ‘उतनी भी बुरी’ चीज नहीं.
पहली मुलाकात शबाना से हुईं. 15 दिनों की शेख मैरिज से शबाना को एक बेटी है, जो उन्हें बाजी बुलाती है.
पीरियड्स आए छहेक महीना बीता होगा, जब एक रोज मामू घर पर किसी शेख अंकल को लेकर आए. मैं स्कूल से लौटी ही थी. अंकल ने बुलाकर मुझे गोद में बिठा लिया. बहुत देर तक गुदगुदाते और बात करते रहे. फिर वो रोज आने लगे. रात में मैं सोती तो मुझे देखते रहते. वापसी में नजराना भी देते. कुछ रोज बाद हमारा निकाह हो गया.
लंबी-सी कार में मेरी बिदाई हुई. साथ में फुफ्फू भी थीं. एक बड़े होटल के आगे गाड़ी रुकी. दरबान वाला होटल. कार का दरवाजा तक हमें खुद नहीं खोलना पड़ा. मैं छोटी थी. यकीन हो गया कि अंकल से अच्छा कुछ नहीं. पहली बार बिना ईद के नए कपड़े-जेवर मिले. मनचाहा खाना. शाम होते-होते हम कमरे में थे. बड़े रूम से जुड़ा हुआ एक छोटा रूम.
फुफ्फू छोटे कमरे में चली गईं. मैं बड़े कमरे में अंकल के साथ. मुझे उन्हीं के साथ रहना था, ये बात अम्मी घर पर ही बता चुकीं थीं. थोड़ी देर बाद अंकल छूने लगे. मैं आंखें बंद करके पड़ी हुई थी. छूना बढ़ता गया. डरकर मैंने आंखें खोल दीं और फुफ्फू के कमरे में जाकर रोने लगी. वो मुझे बार-बार बाहर भेजतीं, मैं फिर भाग आती.
सुबह होते-होते शेख अंकल गुस्सा हो चुके थे. उन्होंने किसी को फोन मिलाया. थोड़ी देर बार अम्मी-अब्बू दरवाजे पर थे. अम्मी ने डांटा- वो शौहर हैं तुम्हारे. छुएं तो रोको मत. जो करें, सह लो. अगले कमरे में अब्बू गिड़गिड़ा रहे थे. दोनों फुफ्फू को लेकर लौट गए. मुझे होटल में शेख अंकल के साथ छोड़कर.
अगले पंद्रह दिन मैं होटल के उसी कमरे में रही. शेख अंकल के साथ.
वहीं खाना आ जाता. वहीं पानी पहुंच जाता. फुफ्फू जा चुकी थीं. अम्मी-अब्बू जा चुके थे. शेख अंकल को मेरा शौहर बताकर. अब उन्हें रोकने वाला कोई नहीं था. मैं उर्दू में रोती , वे अरबी में डांटते.
दिन-रात रेप सहते-सहते मुझे तेज बुखार आ गया. उस दिन अंकल का मिजाज कुछ अलग था. वो मुझे छू भी नहीं रहे थे. हम दवाखाना गए. डॉक्टर से बात के बाद वापसी में उन्होंने मुझे घर भेज दिया. नए जेवर-कपड़ों वाला सूटकेस भी होटल में छूट गया. ये आखिरी मुलाकात थी. अब्बू और भैया होटल भी गए लेकिन कमरा खाली हो चुका था. कोई पता हमारे पास नहीं था. मामू से दरयाफ्त हुई लेकिन उन्होंने भी हाथ खड़े कर दिए.
थोड़े दिनों तक मैं घर पर ही रही, फिर वापस स्कूल जाने लगी. सब कुछ पहले जैसा हो चुका था. शेख अंकल के साथ बीते दिन भी हल्के पड़ रहे थे. फिर एक दिन मुझे उल्टियां होने लगीं. हाजमा खराब जानकर अम्मी ने हल्का खाना दिया. लेकिन हाजमा बिगड़ा ही रहा. साथ में हल्का बुखार भी रहने लगा. तब खाला घर आई हुई थीं. उन्होंने ही कहा- इसे कहीं हमल तो नहीं ठहर गया!
आप जानती थीं, हमल क्या है?
सुना तो पहली बार था लेकिन उन पंद्रह दिनों में इतना कुछ बीता कि समझ चुकी थी कि कुछ गलत हुआ है. अम्मी रो रही थीं. बच्ची बहुत छोटी है, इसका पेट गिरा दो. वो बार-बार कह रही थी लेकिन डॉक्टर ने मना कर दिया. बात काफी आगे निकल चुकी थी. जान को खतरा है- उन्होंने सीधे कहा.
अस्पताल से लौटते ही मुझे कमरे में बंद कर दिया गया. अब तुम यहीं रहोगी. न स्कूल जाओगी, न खेलने निकलोगी. हाट-बाजार भी नहीं करना. अम्मी कभी गुस्से में, कभी रोते हुए बोल रही थी. मैं बहुत डर गई थी. लगता था कि पैरों के नीचे कोई गड्ढा बन चुका है जिसका कोई ओर-छोर नहीं. मैं गिर रही हूं. सपने भी ऐसे ही आते. मैं रो तक नहीं पाती थी. एकदम गुमसुम. इतनी कि जब दर्द उठा तो भी मैं कुछ नहीं कह पा रही थी.
बेटी हुई थी लेकिन न मुझे दूध आता था, न उसे छूने की ही इच्छा होती थी.
कमरे में पड़े-पड़े पता लगा कि उसे यतीम खाने में छोड़ने की तैयारी चल रही थी. तभी भैया-भाभी ने रोक दिया. उन्होंने उसे गोद ले लिया. अब वो बड़ी हो रही है. मेरी छोटी बहनों की देखादेखी वो भी मुझे बाजी बुलाती है. मैंने एकाध बार कोशिश की कि उसे वापस ले सकूं लेकिन सबने रोक दिया.
आपने फिर दूसरी शादी नहीं की?
नहीं. उन पंद्रह दिनों में ही मेरे अंदर की औरत शेख अंकल से भी बूढ़ी हो चुकी थी. शादी के नाम से हौल उठता. शुरू में अम्मी ने चाहा भी लेकिन अब्बू मजहबी किस्म के हैं. उन्होंने साफ मना कर दिया. मेरा न तलाक हुआ था, न खुला. पंद्रह दिन के लिए ही सही, मैं शादीशुदा थी. लेकिन बहुत सी लड़कियां ठहरती नहीं. उनका पेशा ही शेख मैरिज करना है. शबाना न दिखने वाली धूल कपड़ों से झाड़ती हुई कह रही हैं. खाली आंखें, जैसे भीतर का आखिरी कोयला भी बुझ चुका हो.
एजेंट भी यही बात दोहराता है. ‘एक-दो नहीं, कितनी बच्चियां 20-30 शादियां भी कर रही हैं. इसी से उनका घर बन जाएगा. गाड़ी आ जाएगी. और अगर बच्चे हो गए तो वो भी पल-पुस जाएंगे.’
ऐसे ही एक परिवार से मिलने हम शाहीन नगर पहुंचे.
जुड़े-जुड़े घरों के ठीक सामने बजबजाते हुए नाले. दरवाजों पर दुपट्टे का परदा. तेजी से बाइक भगाते बच्चे. और बुरकों में यहां-वहां डोलती बच्चियां. चार बेटियों वाले मकान में कुछ रोज पहले ही एक बेटी शेख मैरिज से वापस लौट चुकी है. बुलाहट पर वो बाहर निकलती है. लंबी. सतर. कश्मीरी सेब की तरह लाल. बाल ऐसे जैसे सुनहरा बुरादा छिड़का हुआ हो.
कब आईं मायके?
जवाब उनकी मां की तरफ से आता है- आज ही लौटी है. बच्ची के होंठों पर हल्की जुंबिश लेकिन वो कहती कुछ भी नहीं.
कहां शादी हुई है इनकी?
यहीं. पास में.
कहां?
यहीं, ज्यादा दूर नहीं. मां बेटी की तरफ देखते हुए कहती हैं- जा, चाय बना ला. या फिर ठंडा लेंगे आप लोग!
सुनहरे बुरादे वाली लड़की उठ खड़ी होती है. चाल में हल्की लंगड़ाहट. दूसरी बच्ची सहारा देती हुई. हमें देखता पाकर मां कह उठती है- चार लड़कियां हैं. शौहर ऑटो चलाते हैं. कोई आसरा नहीं.
क्या उम्र है बड़ी लड़की की?
सत्रह की होगी. अठारह लगने वाला है. अब मंझली की भी शादी करेंगे.
और उसकी एज क्या है?
वो भी इसी के आसपास है. बड़ी हो चुकी.
बड़ी हो चुकी मंझली पास ही बैठी है. कमजोर चेहरे पर फैली हुई आंखें. सरकते हुए दुपट्टे को संभालते हुए वो भी भीतर भेज दी जाती है. अब मां अकेली हैं. गरीबी और मजबूरी का रोना रोते हुए.
आपने कभी शेख मैरिज की नहीं सोची अपनी बेटियों की? हम पत्ता फेंकते हैं.
करने वाले करते ही हैं. क्या करें, मजबूरी है. गोलमोल जवाब.
आपने भी बड़ी बेटी की शेख मैरिज ही की है क्या?
सवाल को सिरे से अनसुना करती हुई वे भीतर चली जाती हैं. लौटती हैं तो चेहरे पर व्यस्तता का भाव. हम बाहर निकल आते हैं. गली के बाहर ही एजेंट ठहरा हुआ. वो कहता है - बड़ी बेटा का निकाह भी हमने करवाया, और दूसरी के लिए भी तैयारी में हैं. बस, इनकी डिमांड थोड़ी ज्यादा है.
लेकिन इन्होंने तो शेख मैरिज पर सवाल का जवाब ही नहीं दिया!
कैसे देंगे मैडम. डर रहता है कि फंस जाएंगे तो आगे का रास्ता बंद हो जाएगा. पके हुए लोग हैं. ये गली देखो, यहां हर तीसरा घर इसी काम से चल रहा है. दूसरे इलाकों में बड़े-बड़े घर बन रहे हैं और यहां किराए पर रहते हैं. कई लड़कियों का कई-कई निकाहनामा मैं खुद बनवा चुका.
रिपोर्ट की तीसरी और आखिरी किस्त यहां पढ़ें:
Ground Report: लोकल एजेंट से गल्फ की 'हैदराबादी आंटी' तक, शेख मैरिज का पूरा सिस्टम सेट है, निजाम के दौर से जुड़ी हैं जड़ें
एजेंट की बात में कुछ न कुछ वजन जरूर होगा. पुराने हैदराबाद के कई इलाकों से निकलते हुए लोग रुककर उससे बातें करते हैं. दबी आवाज में. या दूर ले जाकर. फोन पर फोटो ली-दी जाती है. फुसफुसाती आवाज में शेखां और उम्रां जैसे शब्द हवा में तैरते हैं.
हमारा अगला पड़ाव पांच मंजिला एक घर है, जहां सबसे ऊपर अपनी बेटी की शेख मैरिज करवाती वालिदा मिलेंगी.
खड़ी-खड़ी सीढ़ियां ऊपर जाते हुए आरामदेह हो जाती हैं. खुली छत पर झूला डला हुआ. नीचे ही कश्मीरी दरीचा बिछा हुआ. हमें यहीं इंतजार करने का कहकर एजेंट चला जाता है. दो-एक मिनट में वालिदा सामने हैं.
खुद बमुश्किल चालीस की लगती इस मां ने अपनी बेटी की कई बार शेख मैरिज करवाई. हम सीधे सवाल करते हैं.
बेटी की उम्र क्या थी, जब पहली शादी हुई?
पीरियड्स आए दो साल हो गए होंगे. शायद सोलह.
आपको पता है, शेख मैरिज क्या है?
हां.
फिर ऐसी शादी क्यों करवानी पड़ी?
बुरके में छिपी आंखें इस बार नाराज-सी लगती हैं- मजबूरी नहीं तो और क्या होगा जो मां अपनी पेटजाई को इसमें झोंके. फिर कुछ संभलकर आवाज आती है- आगे-पीछे कोई सहारा नहीं. शौहर से मेरा खुला हो चुका. दो बच्चियां. घर के खर्च. क्या करती. ब्रोकरनी ने कहा कि बढ़िया पैसे मिल जाएंगे तो करवा दी.
कितने पैसे मिले?
पहली बार ढाई लाख. बाकी शादी तय कराने वालों ने रख लिए.
किस देश गई थीं आपकी बेटी.
उसका शौहर ओमान में था. आकर कुछ रोज यहां होटल में साथ रहा, फिर अपने साथ वहीं ले गया. हमें लगा कि शायद बात बन जाए. ज्यादातर शेख यहीं होटल में रहकर बात रफा-दफा कर देते हैं. वो साथ ले गया.
हमें लगा, बेटी की किस्मत जाग गई. ओमान की तस्वीरें मोबाइल पर देखते थे. लेकिन बेटी गायब रहती थी. फिर जबरन वीडियो कॉल किया. सूजी आंखें. काला पड़ा चेहरा. लग रहा था मानो बड़ी उम्र की कोई औरत हो. पूछा तो रो पड़ी. उन्हें बीवी से ज्यादा खदीमा चाहिए थी.
चौबीस घंटों में सोने के लिए कोई वक्त नहीं था. कभी भी बुलाहट हो आती. सफाई, धोना-पकाना और बाकी दो बीवियों के बच्चे संभालना. फिर शेख का जब मन हो, उसका साथ देना. बेटी रोए जा रही थी- अम्मी, मुझे बुला लो वरना मर जाऊंगी.
मैंने हैदराबादी एजेंट को कॉल किया. पता लगा कि वे लड़की को लौटाने के पांच लाख मांग रहे हैं.
पांच क्यों? आपने तो ढाई लिए थे.
पासपोर्ट, वीजा, टिकट, होटल में रहना-खाना, नए कपड़े, उनके पास सारा हिसाब था. मैं तो दिए हुए पैसे भी खपा चुकी थी. पांच लाख कहां से लाती. बेटी संग अब मैं भी रोती. तीन महीने बाद शायद उनके पैसे वसूल हो गए होंगे. थोड़े पैसे जोड़कर मैंने उसे वापस बुला लिया.
अब बेटी कहां है?
चुप्पी.
वो घर पर हैं!
नहीं रियाद चली गई. शादी हो गई. लेकिन ये वाला वैसा नहीं है. कई महीनों से साथ रखे हुए है. काम तो यहां भी होता है लेकिन चौबीस घंटों की नौकरानी नहीं. शौहर की उम्र भी कुछ खास नहीं.
कितनी उम्र होगी?
यही कुछ 40-45 का होगा. बुरके के भीतर आंखें टुकुर-टुकुर डोलती हुई.
छोटी बेटी की भी शेख मैरिज करेंगी?
नहीं, लेकिन किस्मत का क्या कहें. वो (ऊपर दिखाती हुई) जो तय करे, वही होगा.
ये घर आपका है? झूला और नए गुदगुदे गलीचे पर बैठ किस्मत को कोसती मां से आखिरी सवाल कर ही डालती हूं.
‘हां. नीचे वाली मंजिलें किराए पर दे रखी हैं.’ झेंप का बारीक तिनका भी आवाज में कहीं कोई रुकावट नहीं डालता.
शादी के नाम पर सेक्स स्लेवरी के साथ-साथ खाड़ी देशों में भारतीय लड़कियों को नौकरानी बनाकर भी रखा जा रहा है. 'टू-इन-वन.' ये टर्म वट्टापल्ली की एक महिला फातिमा कहती हैं, जो दुबई से टूटे पैरों के साथ लौटाई गईं.
वे कहती हैं- खदीमा के काम के लिए गई थी लेकिन शेख परेशान करता. अकेला होने पर घेर लेता था. कमरे में लॉक नहीं था. पुरानी संदूक, टेबल सटाकर सोती तो भी डरी रहती. साल 2021! रमजान के आसपास कोई वक्त था, जब शेख अमेरिका जा रहा था. घर पर उसके बेटों संग मैं अकेली. रोने-धोने पर मुझे अपनी बहन के यहां छोड़ दिया. कुछ ही रोज बीते होंगे कि एक बेटा मुझे लिवाने आ गया. ‘घर पर काफी काम रहता है, तुम आ जाओ, कुछ नहीं होगा.’
मेरे पास न पासपोर्ट, न पैसे, न कोई साथी. चुपचाप लौट आई. पहली ही रात सोई थी कि कुछ खड़का हुआ. वही बेटा दरवाजे पर था. किसी तरह भागते हुए मैं घर की तीसरी मंजिल तक पहुंच गई. खुली छत. लड़का पुचकारता- आ जाओ, कुछ नहीं होगा. मैं चीखने लगी. उसने एकदम से धक्का दे दिया.
हवा में गिरते हुए भी मैं शुक्राना कर रही थी. दोनों पैरों में रॉड पड़ी. पेट की लोथ निकल गई. लेकिन मैं बची रही. फातिमा बार-बार कह रही हैं. आवाज इतनी सहज कि मैं यकीन नहीं कर पाती. एक बार पैर दिखाएंगी- एकदम से पूछ लेती हूं.
बिना ना-नुकर वे कपड़े हटा देती हैं. कटे-फटे पैरों पर रॉड डालने के गहरे निशान. पेट का आधा मांस उखड़कर गहरा गड्ढा. चेहरे पर ऐसे भाव मानो मेरा शक ताड़ लिया हो. फिर खुद ही बताती हैं- तीन महीने हस्पताल में रही. शेख लौट आया था. उसी ने इलाज करवाया. फिर टिकट कराकर वापस भेज दिया. अभी केस चल रहा है मुआवजे का.
‘और छेड़छाड़ का?’
नहीं. वो कराकर क्यों बदनामी लेना.
क्या शेख भी आपको जबरन छूता था?
क्या कहें अब...मैं शादीशुदा हूं. शेर को बकरी दिखे तो भूख तो जाग ही जाएगी. गहरी सांस लेकर वे उघड़े हुए कपड़े ठीक करने लगती हैं.