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जजों की नाराजगी का आधार क्या है? MoP या जज लोया की संदिग्ध मौत

चीफ जस्टिस और जजों के बीच विवाद का मुद्दा भले सीबीआई के विशेष जज बृजगोपाल लोया की संदिग्ध हालात में मौत के मामले की जांच को लेकर उठा हो, लेकिन इसके पीछे कई और कारण भी हैं.

CJI के ख‍ि‍लाफ आवाज उठाने वाले जज CJI के ख‍ि‍लाफ आवाज उठाने वाले जज
दिनेश अग्रहरि/संजय शर्मा
  • नई दिल्ली,
  • 12 जनवरी 2018,
  • अपडेटेड 7:39 AM IST

सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस और जजों के बीच विवाद का मुद्दा भले सीबीआई के विशेष जज बृजगोपाल लोया की संदिग्ध हालात में मौत के मामले की जांच को लेकर उठा हो, लेकिन इसके पीछे कई और कारण भी हैं. एक और बड़ा मसला है एमओपी यानी मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर्स (MoP) का.

मसला उच्च न्यायालयों में जजों और चीफ जस्टिस की नियुक्ति और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति को लेकर कॉलेजियम सिस्टम में ज्यादा पारदर्शिता औऱ जवाबदारी लाने को लेकर भी है.

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सरकार की ओर से बनाये गये एनजेएसी यानी राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को धराशायी करने के बाद कॉलेजियम सिस्टम को ज्यादा पारदर्शी बनाने पर जोर दिया जाने लगा. सुप्रीम कोर्ट में इस बाबत आरपी लूथरा बनाम भारत सरकार के इस मामले में कॉलेजियम सिस्टम को ज्यादा पारदर्शी बनाने की बात हुई.

इसमें सीनियर जजों को डेसिग्नेट करने की प्रक्रिया में भी ज्यादा पारदर्शिता लाने को लेकर बात हुई. चीफ जस्टिस को ये नहीं सुहाया. उन्होंने जस्टिस आदर्श गोयल और जस्टिस यूयू ललित की अदालत के आदेश को अपनी अदालत में ट्रांसफर किया और उनका आदेश पलट दिया.

बात सिर्फ यही नहीं है. एक और याचिकाकर्ता का कहना है कि यूनिवर्सिटीज में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों वाले मामले में जस्टिस चेलमेश्वर ने उनके मामले की सुनवाई के दौरान कई बार ये कहा कि याचिकाकर्ता के आरोपों में दम है, क्योंकि इस दायरे में कई केंद्रीय विश्वविद्यालयों के वाइस-चांसलर आ रहे थे, जिन्होंने आर्थिक और नैतिक भ्रष्टाचार किए थे. जब आखिरी आदेश देने का वक्त आया तो चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने अपने कार्यकारी अधिकारों का प्रयोग करते हुए ये मामला जस्टिस अरुण मिश्रा की बेंच में ट्रांसफर किया गया और वहां से ये डिसमिस हो गया.

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दरअसल जजों की नियुक्ति के मामले में दोनों ही पक्ष यानी सरकार और सुप्रीम कोर्ट चाहते हैं कि ये अधिकार उनके पास रहे. ऐसे में ये भी कहा गया कि नियुक्ति का अधिकार कोर्ट भले अपने पास रखे, लेकिन उसके नियम संहिताबद्ध यानी कोडिफाई हो जाएं, ताकि उनका पालन करते हुए कॉलेजियम उच्च न्यायपालिका में न्यायमूर्तियों की नियुक्ति करे. यानी उन तमाम बिंदुओं पर जहां संविधान और सुप्रीम कोर्ट की नियमावली मौन है, वहां सरकार और न्यायपालिका मिलकर पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ सर्वमान्य नियम बना सकती है.

कहा तो यहां तक जा रहा है कि अभी तो सुप्रीम कोर्ट और सरकार दोनों की ही मंशा है कि जजों की नियुक्ति का अधिकार उनको ही मिले, लेकिन इसमें दिलचस्पी किसी की नहीं कि आखिर कैसे लोगों को जज बनाया जाए.

जज बनाये जा रहे लोग इस पद के योग्य हैं भी या नहीं इसकी फिक्र किसी को नहीं हैं. हां नियुक्ति पत्र सभी देना चाहते हैं, लिहाजा इन आरोपों से बचने के लिए पारदर्शी नियमावली तय की जाए. यानी सारे बखेड़े की जड़ ही यही एमओपी है, देखते हैं ये कब तक बनता है जिस पर दोनों पक्षों की रजामंदी भी हो.

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