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इस्तीफे की धमकी तो ठीक, राज्यसभा से गईं मायावती तो वापसी भी आसान नहीं

बहुजन समाजपार्टी की सुप्रीमो और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री मायावती का राज्यसभा में कार्यकाल अप्रैल 2018 में खत्म हो रहा है. प्रदेश की विधानसभा में पार्टी के पास इतने आंकड़े नहीं हैं कि 2018 में वह एक बार फिर राज्यसभा में पहुंच सके.

राज्य सभा पहुंचने के लिए पार्टी के पास नहीं हैं आंकड़े राज्य सभा पहुंचने के लिए पार्टी के पास नहीं हैं आंकड़े
राहुल मिश्र
  • नई दिल्ली,
  • 18 जुलाई 2017,
  • अपडेटेड 5:52 PM IST

संसद का मानसून सत्र शुरू होते ही विपक्ष का सरकार पर हमला करना भी शुरू हो गया है. इस सत्र का पहला बड़ा हमला मायावती ने बोला. राज्यसभा में उन्होंने सरकार पर निशाना साधा, तो वहीं पूरी बात ना किए जाने पर उपसभापति से भी वह नाराज हुईं. मायावती नाराज होकर राज्यसभा से बाहर चली गई और इस्तीफा देने की बात कह दी. बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती का राज्यसभा में कार्यकाल अप्रैल 2018 में खत्म हो रहा है. प्रदेश की विधानसभा में पार्टी के पास इतने आंकड़े नहीं हैं कि 2018 में वह एक बार फिर राज्यसभा में पहुंच सके.

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उत्तर प्रदेश विधानसभा के 2007 के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को पूर्ण बहुमत मिल और पार्टी का वोट शेयर भी 30 फीसदी से अधिक रहा. यह आंकड़े प्रदेश की राजनीति में मायावती के लिए इसलिए अहम रहे क्योंकि उन्हें राज्य में उनके दलित वोट बैंक के अलावा भी अगड़ी जातियों से वोट मिला और वह प्रदेश की सबसे ताकतवर मुख्यमंत्री के तौर पर सत्ता पर काबिज हुईं.

इसे भी पढ़े: पहली बार दोनों तरफ से दलित उम्मीदवार होना, बाबा साहेब और BSP की देन: मायावती

एक दशक बीतता है और 2017 के विधानसभा चुनावों ने मायावती के लिए अंकगणित को पूरी तरह से उलट दिया. राज्य विधानसभा की 403 सीटों में उनकी पार्टी को महज 19 सीटों पर जीत दर्ज हुई. सीट को छोड़कर सेंधमारी उनके वोट बैंक में लगी और दलित बाहुल सीटों में से 84 फीसदी सीटें बीजेपी के खाते में गईं. साथ ही दलित वोट बैंक का 41 फीसदी वोट भी बीजेपी को मिला.

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बस अब एक ही रास्ता!

वहीं 2018 में एक बार फिर राज्यसभा जाने के लिए उन्हें उनके पास महज एक विकल्प बचता है कि वह समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर लें. आंकड़ों के मुताबिक दोनों दल एक साथ मिलकर राज्यसभा में दो सदस्यों को भेज सकते हैं. लेकिन क्या बिहार में आरजेडी और जेडीयू की तर्ज पर मायावती अपने विरोधी समाजवादी पार्टी के साथ यह समझौता करने के लिए तैयार होंगी. गौरतलब है कि यदि किसी सूरत में मायावती राज्यसभा पहुंचने के लिए यह कदम उठाती हैं तो इसका क्या असर एक साल बाद 2019 में होने वाले आम चुनाव पर पड़ सकता है, का आंकलन मायावती को करना होगा. 

एक दशक में बदले इन आंकड़ों ने अब मायावती के सामने अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने की चुनौती खड़ी कर दी है. जहां 2018 में उन्हें एक बार फिर अपने लिए राज्यसभा में एक सीट सुनिश्चित करनी है, उनकी पार्टी इस बार उन्हें संसद भेजने के लिए सशक्त नहीं है. राजनीतिक जानकारों का दावा है कि यदि मायावती का राज्यसभा कार्यकाल पूरा होते ही उन्हें दोबारा राज्यसभा में जगह नहीं मिली तो उनके लिए राजनीति में अपना अस्तित्व बचाना इतना आसान नहीं रहेगा.

दलित राष्ट्रपति बाबा साहेब की देन

गौरतलब है कि देश में नया राष्ट्रपति चुनने के लिए वोटिंग खत्म हो चुकी है. देश की संसद समेत सभी विधानसभा में यह वोटिंग कराई जा चुकी है. मुकाबला एनडीए के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद और विपक्ष की उम्मीदवार मीरा कुमार के बीच है. वोटिंग शुरू होते ही बसपा सुप्रीमो मायावती ने एक बड़ा बयान दिया कि यह पहली बार है कि सत्ता और विपक्ष दोनों की ओर से दलित उम्मीदवार मैदान में उतारा गया है. मायावती का मानना है कि जीत या हार किसी की भी हो लेकिन उनके लिए बड़ी बात यह है कि देश का अगला राष्ट्रपति दलित ही होगा.

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हालांकि इस बयान के साथ मायावती ने यह कोशिश भी की कि इसका पूरा श्रेय वह बाबा साहेब अंबेडकर और कांशीराम को दें जिससे बहुजन समाज पार्टी के लिए राजनीति में अपनी साख बचाना आसान हो. लेकिन, इस बयान में मायावती की मजबूरी भी शामिल है कि जब देश में बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने दलित उम्मीदवार को बतौर राष्ट्रपति पेश किया है, ऐसे में उनके पास इतने भी आंकड़े नहीं है कि वह अपने लिए राज्यसभा में एक सीट सुनिश्चित कर सकें.

 

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