
2जी घोटाले में 122 कंपनियों को दिए स्पेक्ट्रम लाइसेंस कैंसल करने का आदेश देने वाले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस जी एस सिंघवी ने साफ किया है कि विशेष अदालत से आए फैसले को सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जोड़ कर देखा जाना उचित नहीं है.
आजतक से बातचीत में जस्टिस सिंघवी ने साफ कहा कि उनके पास सिर्फ स्पैक्ट्रम आवंटन की प्रक्रिया को लेकर मामला आया था जिसमें पेश किए गए सबूत और जिरह पर अदालत ने फैसला सुनाया था. लेकिन सीबीआई की विशेष अदालत के सामने आया मुकदमा बिल्कुल अलग था. ये आपराधिक गबन साजिश और सरकारी पद और रुतबे के दुरुपयोग का मामला है.
जस्टिस सिंघवी ने कहा कि हमारे सामने तो जब मामला आया उससे साफ हो गया कि जिस तरह कंपनियों को स्पैक्ट्रम लाइसेंस बांटे गए उसकी प्रक्रिया में खामी थी. बिडिंग प्रोसेस की बजाय पहले आओ पहले पाओ की नीति पर अमल में भी कई गड़बड़ियां सामने आईं. लाइसेंस कैंसल होने के बाद सरकार ने फिर से उन्हीं की नीलामी की तो 64 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा रकम सरकारी खजाने में आई.
जस्टिस सिंघवी ने ये भी कहा कि किसी भी अदालत के सामने जो सबूत पेश किए जाते हैं उनसे ही अदालत फैसले पर पहुंचती है. अदालतें कभी भी खुद सबूत नहीं तैयार करतीं. ये काम तो जांच एजेंसियों का है. सबूतों को कैसे तरतीबवार पेश किया जाए और उनके मुताबिक दलीलें दी जाएं तभी अदालतों को सारा माजरा समझ में आता है, और साथ ही साथ हमें ये भी गौर करना चाहिए कि आरोपियों को दोषमुक्त करना या फिर सबूतों के अभाव में बरी करना दोनों बिल्कुल अलग अलग चीजें हैं. उनको इसी हिसाब से समझना चाहिए.
जस्टिस सिंघवी के कथन को इस आलोक में भी देखा जाय कि जैसे ही फैसला आया बीजेपी नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ विशेष सीबीआई अदालत के साथ तुलना शुरू कर दी. पहले आओ पहले पाओ की नीति में भी औने-पौने दाम में अपने अपने लोगों को स्पैक्ट्रम दिए गए. कई कंपनियां जिनका टेली कम्युनिकेशन से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं था उनको भी स्पेक्ट्रम अलाट हो गए थे. करोड़ों रुपये अजीबो-गरीब ढंग से इधर से उधर ट्रांसफर हुए. यानी सरकारी नीति के साथ-साथ उसके अमल में पग-पग पर गड़बड़ियां दिखीं. उन्हीं को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उन कंपनियों को दिए गए लाइसेंस रद्द करने के आदेश दिए थे.
अब विशेष अदालत ने अपने फैसले में आपराधिक मामले को समग्रता से देखते हुए फैसला दिया है. तो ऐसे में दोनों मुकदमों और दोनों फैसलों को एक ही पलड़े पर रखकर तौलना या देखना कतई उचित नहीं है. साथ ही सबूतों के अभाव में बरी किए जाने का ये मतलब कतई नहीं है कि आरोपी ने अपराध किया ही नहीं. अगर हम कुछ पुराने मामलों को भी देखें जिनमें अहम हैं जेसिका लाल हत्याकांड या प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड, दोनों चर्चित और संवेदनशील हत्याकांड में निचली अदालत ने आरोपियों को बरी किया था लेकिन ऊपरी अदालत में वो सलाखों के पीछे भेजे गए. अब देखना ये होगा कि क्या सीबीआई और ईडी के अधिकारी विशेष अदालत के फैसले से उठे सवालों को गंभीरता से लेंगे... क्योंकि कोर्ट ने साफ शब्दों में कई सवाल भारी भरकम जांच एजेंसियों के अधिकारियों की लियाकत, समझ और सूझबूझ पर उठाए गए हैं.