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दो लोकसभा चुनावों में हार के बाद हार, एकजुट होने की जगह कांग्रेस तार-तार!

लगातार दूसरी बार लोकसभा में कांग्रेस की सीटें इतनी नहीं हैं कि, उसको विपक्ष के नेता का पद भी मिल सके. इसके बावजूद हार का मंथन कर नई रणनीति के साथ उतरने के बजाय पार्टी अभी भी अपने अंदरूनी हालात से जूझती दिख रही है.

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कुमार विक्रांत
  • नई दिल्ली,
  • 11 जून 2019,
  • अपडेटेड 9:19 PM IST

‘द ग्रैंड ओल्ड पार्टी’ यानि कांग्रेस पसोपेश में है. 2014 लोकसभा चुनाव में महज़ 44 सीटों पर सिमट कर पार्टी ने अपने इतिहास की सबसे करारी हार दर्ज की. 2019 लोकसभा चुनाव के लिए बड़े अरमानों के साथ कांग्रेस मैदान में उतरी लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा.  इस चुनाव में कांग्रेस लोकसभा में सिर्फ़ 8 सीटों की बढ़ोतरी कर 52 के आंकड़े तक ही पहुंच सकी. पार्टी के लिए सबसे बड़ा झटका गांधी परिवार के गढ़ माने जाने वाले अमेठी में राहुल गांधी की हार रहा. वो तो सुदूर केरल के वायनाड के वोटरों ने स्थिति संभाल ली और राहुल को लोकसभा में पहुंचा दिया.

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लगातार दूसरी बार लोकसभा में कांग्रेस की सीटें इतनी नहीं हैं कि, उसको विपक्ष नेता का पद भी मिल सके. इसके बावजूद हार का मंथन कर नई रणनीति के साथ उतरने के बजाय पार्टी अभी भी अपने अंदरूनी हालात से जूझती दिख रही है.

अगर टॉप से शुरुआत की जाए तो पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने ही पार्टी को मझधार में रखा हुआ है. पार्टी की ओवरऑल हार और खुद अमेठी में अपनी शिकस्त के चलते राहुल अध्यक्ष पद छोड़ने का मन बनाये हुए हैं. वो गांधी परिवार से बाहर पार्टी का अध्यक्ष ढूंढने की बात कह चुके हैं.  ऐसे में कयास लग रहे हैं कि, लोकसभा में कांग्रेस का नेता कौन होगा?  पिछली लोकसभा में नेता रहे मल्लिकार्जुन खड़गे खुद चुनाव हार चुके हैं. ऐसे में राहुल के करीबियों का मानना है कि, राहुल ये पद संभाल सकते हैं, लेकिन अध्यक्ष नहीं रहने की सूरत में. वहीं पार्टी के तमाम नेता चाहते हैं कि, राहुल अध्यक्ष पद पर बने रहें, फिर वो चाहें तो लोकसभा में पार्टी के नेता का पद लें या ना लें. आलाकमान की इसी उधेड़बुन का असर देशभर में पार्टी पर भी दिख रहा है. तमाम राज्यों में आपसी गुटबाज़ी सतह पर दिख रही है, तो कई राज्यों में पार्टी को सूझ नहीं रहा कि आगे क्या किया जाए.

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पंजाब

पंजाब में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू का अरसे से चला आ रहा झगड़ा अब कांग्रेस आलाकमान तक पहुंच चुका है. पंजाब में कैप्टन और सिद्धू के बीच खींचतान को सुलझाने की ज़िम्मेदारी अब पार्टी के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल को सौंपी गई है.

उत्तर प्रदेश

कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव के दौरान पूर्वी उत्तर प्रदेश की ज़िम्मेदारी प्रियंका गांधी को महासचिव बना कर सौंपी थी. लेकिन प्रियंका भी यूपी में पार्टी के लिए कोई कमाल नहीं दिखा सकीं. जिस प्रियंका को तुरूप का पत्ता माना जा रहा था, उस दांव का नहीं चल पाना कांग्रेस कार्यकर्ताओं को भी हताश-निराश कर गया. प्रियंका पिछले लोकसभा चुनावों में बिना कोई पार्टी में पद लिए रायबरेली में सोनिया गांधी और अमेठी में राहुल गांधी के चुनाव प्रचार की कमान संभालती रही थीं. इस लोकसभा चुनाव में उन्होंने महासचिव के तौर पर पूर्वी यूपी का प्रभार संभाला लेकिन नतीजे आए तो अमेठी की सीट भी हाथ से निकल गई. सिर्फ रायबरेली में सोनिया गांधी की जीत से ही पार्टी को संतोष करना पड़ा.

कांग्रेस की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष राज बब्बर अरसे से इस्तीफे की पेशकश करते रहे. जब  प्रियंका को पूर्वी यूपी और ज्योतिरादित्य सिंधिया के पश्चिमी यूपी का प्रभारी बनाया गया तो प्रदेश में पार्टी के 80 फीसदी कार्यकर्ता प्रदेश अध्यक्ष पद से राज बब्बर को हटाने की मांग कर रहे थे. उनका कहना था कि राज बब्बर बेहतर प्रचारक साबित हो सकते हैं. अब तमाम नेता सवाल उठा रहे हैं कि राज्य भर में कांग्रेस संगठन खस्ताहाल था तो प्रदेश अध्यक्ष को लेकर पहले क्यों नहीं चेता आलाकमान. उनका कहना है कि प्रदेश संगठन का व्यक्ति नहीं था और ना ही पूरे प्रदेश की नब्ज़ समझने वाला था, नतीजा खुद भी प्रदेश अध्यक्ष को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा. 

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तमाम नेता प्रियंका से कहने को तैयार हैं कि, नई टीम बनाकर, संगठन मज़बूत करके, गठजोड़ की आशंका को भी दूर रखते हुए 2022 में बीजेपी से सीधे मुकाबले की अभी से तैयारी शुरू की जाए.

पश्चिम बंगाल

पश्चिम बंगाल में कांग्रेस तय ही नहीं कर पा रही कि, वो किधर है. कभी ममता के साथ तो कभी लेफ्ट के साथ, कभी अकेले. ममता के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले अधीर रंजन चौधरी को चुनाव से पहले अध्यक्ष पद से हटा दिया गया.  हालांकि चौधरी खुद अपनी सीट से जीतकर सांसद बन गए हैं. जहां तक राज्य में मुख्य विपक्षी पार्टी होने का सवाल है बीजेपी ने ममता विरोध का झंडा उठाकर इस पर कब्ज़ा कर लिया है. कांग्रेस को समझ नहीं आ रहा कि पश्चिम बंगाल में कौन सी राह पकड़े जिससे भद्रलोक में एक बार फिर अपना जनाधार मज़बूत किया जा सके.

ओडिशा

बंगाल की तर्ज पर ओडिशा में भी बीजेपी ने कांग्रेस की जगह खुद को मुख्य विपक्षी दल के तौर पर स्थापित कर लिया. ओडिशा में भी कांग्रेस मुश्किल में है कि किस डगर चले. नवीन पटनायक की बीजेडी और बीजेपी की लड़ाई में कांग्रेस हाशिये पर आ चुकी है. प्रदेश में कार्यकर्ताओं और नेताओं को साथ जोड़े रखने का संकट कांग्रेस के सामने है.

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कर्नाटक

कर्नाटक में जनता दल सेक्यूलर (जेडीएस) से लड़ते लड़ते बीजेपी को रोकने के लिए कांग्रेस ने बड़ी पार्टी रहते हुए भी मुख्यमंत्री की कुर्सी जेडीएस को देकर गठजोड़ किया. कर्नाटक में  लोकसभा चुनाव के नतीजे बता रहे हैं कि ये गठजोड़ मोदी की लहर के सामने बेअसर रहा. ये कम था कि पार्टी के कई बार के विधायक और वरिष्ठ नेता रोशन बेग खुलेआम पार्टी के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल के खिलाफ जुबानी तीर चला रहे हैं. 

राजस्थान

राजस्थान में बीते साल दिसंबर में विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की सरकार बनी तो पार्टी ने लोकसभा चुनाव को लेकर भी बहुत उम्मीदें पाल लीं. लेकिन पांच महीने बाद लोकसभा चुनाव के नतीजे आए तो राज्य से 25 की 25 सीटें बीजेपी के हाथ लगी और कांग्रेस को खाली हाथ मायूस होना पड़ा. हालत कैसी खराब रही ये इसी से पता चलता है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बेटे तक को हार का मुंह देखना पड़ा.

गहलोत और उपमुख्यमंत्री-प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट का झगड़ा किसी से छिपा नहीं है. चुनाव बाद पायलट समर्थक कुछ विधायकों ने तो गहलोत को हटाकर उनको सीएम बनाने की मांग कर दी. गुटबाज़ी का आलम ये रहा कि, राज्य के प्रभारी महासचिव अविनाश पांडे ने प्रेस रिलीज जारी कर पार्टी नेताओं को बयानबाज़ी ना करने की हिदायत दी.

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मध्य प्रदेश

मध्य प्रदेश का हाल भी कमोबेश राजस्थान जैसा ही है. बस फ़र्क़ इतना है कि, राजस्थान में गहलोत अपने बेटे तक को चुनाव नहीं जिता पाए, वहीं यहां कमलनाथ के बेटे वाली इकलौती छिंदवाड़ा सीट ही कांग्रेस जीत पाई. प्रदेश में पार्टी हालत इतनी खराब रही कि उसके दिग्गज दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया भी चुनाव हार गए. पार्टी 29 में 28 सीटें हार गई. यहां भी कमलनाथ-दिग्विजय बनाम सिंधिया का झगड़ा किसी से छिपा नहीं है. टिकट बंटवारे को लेकर हुई बैठक में सोनिया-राहुल के सामने दिग्गी राजा और सिंधिया की तू तू-मैं मैं की खबर भी आई ही थी.

छत्तीसगढ़

ये तीसरा राज्य है जहां चंद महीनों पहले बम्पर बहुमत से कांग्रेस ने सरकार बनाई, लेकिन लोकसभा चुनाव में पार्टी धड़ाम हो गई, यहां भी प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल नेताओं के निशाने पर हैं.

बिहार

बिहार में कांग्रेस को आरजेडी और सहयोगियों के साथ नैय्या पार करने का भरोसा था लेकिन राज्य में करीब करीब सबका सूपड़ा साफ हो गया. पार्टी के राज्यसभा सांसद अखिलेश सिंह के बेटे का सहयोगी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ना और हारना चर्चा का विषय है. वहीं प्रदेश अध्यक्ष मदन मोहन झा की निष्क्रियता को लेकर भी राज्य के तमाम नेता शिकायत के मूड में हैं. यानी जब भी आलाकमान हार की समीक्षा करेगा, आपसी भिड़ंत तय है. वैसे भी झा के पहले अशोक चौधरी को नीतीश के साथ अरसे तक मंत्री और प्रदेश अध्यक्ष साथ साथ बनाये रखने का फैसला विवादों में रहा, जो नीतीश के अलग होने पर कांग्रेस से ही अलग हो गए. वैसे एक तबका अब ये मांग भी करने लगा है कि, बिहार में गठजोड़ की बैसाखी छोड़ अकेले दम लड़ने और ज़मीन बनाने का ये सही वक्त है.

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उत्तराखंड

कुछ ऐसा ही हाल कांग्रेस का यहां भी है. पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत सीट बदलकर भी चुनाव हार गए.  बीजेपी नेता और पूर्व सीएम बी सी खंडूरी के बेटे को तमाम कांग्रेसी नेताओं पर तरजीह देकर टिकट दी गयी, वो भी चुनाव हारे. पार्टी इस पर्वतीय राज्य में सभी 5 सीटें हार गई. ऐसे में यहां भी संगठन को लेकर सिरफुटौवल के पूरे आसार हैं.

हिमाचल प्रदेश

अरसे बाद राज्य के दिग्गज कांग्रेस नेता वीरभद्र सिंह या उनके परिवार के किसी सदस्य ने चुनाव नहीं लड़ा. वीरभद्र समर्थक कम सक्रिय रहे. उलटे पार्टी ने सुखराम के पोते को भी लड़ाया, जो चुनाव हार गए. ऐसे में पार्टी में गुटबाजी एक बार फिर सामने आ गई.

झारखंड

यहां पार्टी ने जेएमएम और जेवीएम के साथ मिलकर चुनाव लड़ा. लोकसभा चुनाव में हाल बुरा रहा, तो तीनों दल के नेता एक दूसरे को कोस रहे हैं. कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अजोय कुमार पड़ छोड़ने की पेशकश कर चुके हैं.

पूर्वोत्तर में कांग्रेस से बीजेपी में गए हिमंता बिस्वा शर्मा को पार्टी एक बड़ा झटका मानती है,  जिससे वो उबर नहीं पा रही. हिमंता से मुकाबला करने के लिए तरुण गोगोई अब खासे बुजुर्ग हो चले हैं, तो वहीं उनके बेटे गौरव सांसद तो बन गए लेकिन हिमंता की रणनीति से टकराने का अनुभव अभी उनके पास नहीं है.

कुछ ऐसा ही हाल आंध्र प्रदेश और तेलंगाना का है. आंध्र में कांग्रेस के दिवंगत सीएम वाईएसआर राजशेखर रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस पार्टी ने लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में बम्पर जीत हासिल की. वहीं तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव (केसीआर) की पार्टी टीआरएस ने सत्ता विरोधी रूझान पर काबू पाते हुए पहले विधानसभा चुनाव और फिर लोकसभा चुनाव में अच्छी कामयाबी हासिल की. तेलंगाना में भी कांग्रेस खस्ताहाल है. यहां विधानसभा चुनाव में जीते कांग्रेस के 18 में से 12 विधायकों ने केसीआर का दामन थाम कर पार्टी को और करारा झटका दिया है.

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कुल मिलाकर कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में कहीं बड़ी सफलता हाथ लगी तो केरल है, जहां बीजेपी कमज़ोर है. साथ ही तमिलनाडु में डीएमके की सहयोगी बनकर चुनाव में उतरने का भी कांग्रेस को भरपूर लाभ मिला. तमिलनाडु में भी बीजेपी कमज़ोर है. तमिलनाडु में कांग्रेस की कामयाबी का श्रेय उसे कम एमके स्टालिन के नेतृत्व वाली डीएमके को ज़्यादा है.

इससे साफ है कि आलाकमान से लेकर राज्यों तक, देश की सबसे पुरानी पार्टी संकट से जूझ रही है. लेकिन इससे निपटने के लिए वो क्या कर रही है, ये अभी नज़र नहीं आ रहा.

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