
संयुक्त राष्ट्र की 1267 समिति की बैठक में जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करने के भारत के प्रयास को एक बार फिर चीन ने वीटो के माध्यम से विफल कर दिया. पुलवामा हमले के गुनहगार मसूद अजहर को बचाने के लिए चीन ने चौथी बार वीटो का इस्तेमाल किया. इसकी खबर आते ही लोकसभा चुनाव में व्यस्त देश की सियासत में एक बार फिर गड़े मुर्दे उखाड़े जाने लगे हैं. बीजेपी ने सुरक्षा परिषद में चीन की स्थायी सदस्यता के लिए पूर्व प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू को जिम्मेदार ठहराया है.
केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पंडित नेहरू के 2 अगस्त, 1955 को राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र का जिक्र किया है जिसमें लिखा था कि, 'अनौपचारिक तौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका ने सलाह दी है कि चीन को संयुक्त राष्ट्र में जगह दी जाएगी और भारत सुरक्षा परिषद में चीन की जगह लेगा. हम निश्चित रूप से इसे स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि इसका मतलब है चीन को अलग करना होगा और यह एक महान देश के लिए बहुत अनुचित होगा कि चीन सुरक्षा परिषद में नहीं है.'
पूर्व प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को इन सवालों से संसद में भी जूझना पड़ा कि क्या भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता देने की पेशकश की गई थी? 27 सितंबर, 1955 को संसद सदस्य डॉ. जेएन पारेख की तरफ से पूछे गए सवाल के जवाब में पंडित नेहरू कहते हैं, 'इस तरह का कोई प्रस्ताव, औपचारिक या अनौपचारिक नहीं है. कुछ अस्पष्ट संदर्भ इसके बारे में प्रेस में दिखाई दिए हैं जिनका वास्तव में कोई आधार नहीं है. इसमें (सुरक्षा परिषद) कोई भी परिवर्तन चार्टर में संशोधन के बिना नहीं किया जा सकता. इसलिए सीट की पेशकश और भारत का इससे इनकार का कोई सवाल ही नहीं है. हमारी घोषित नीति संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता के लिए योग्य सभी देशों के प्रवेश का समर्थन करना है.'
संयुक्त राष्ट्र की स्थापना 1945 में हुई थी और इसके साथ ही सुरक्षा परिषद का गठन हुआ था, जिसमें अमेरिका, तत्कालीन सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन की राष्ट्रवादी सरकार को स्थायी सदस्यता दी गई. इस बीच चीन की राष्ट्रवादी सरकार और माओ त्से तुंग की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया. जिसमें चीनी कम्युनिस्टों की जीत हुई और राष्ट्रवादी सरकार के नेता च्यांग काई शेक को अपने समर्थकों के साथ भाग कर ताइवान द्वीप पर शरण लेनी पड़ी. हमेशा से कम्युनिस्टों के खिलाफ रहने वाले अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस, साम्यवादी चीन को सुरक्षा परिषद में नहीं चाहते थे. लेकिन 1950 में चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता मिल गई.
जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर ईस्ट-एशियन स्टडीज की प्रोफेसर अलका आचार्य का मानना है कि उस समय सुरक्षा परिषद में चीन की सीट को लेकर विवाद था कि इसका असली हकदार चीन के मुख्य भूमि की कम्युनिस्ट सरकार होगी या ताइवान की सरकार. इस बात का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता कि यह सीट भारत को दिए जाने की पेशकश की गई थी. लेकिन पंडित नेहरू का मत था कि सबसे पहले नियमों के मुताबिक इस विवाद को सुलझाया जाए जिस पर चीन का औपचारिक हक था.
प्रो. आचार्य का कहना है कि उस समय का दौर अलग था. तब एक मजबूत एशिया बनाने की बात की जा रही थी. जिसमें भारत-चीन की साझेदारी मजबूत एशिया की दिशा में अहम थी. तब किसी ने नहीं जाना था कि आगे चल कर भारत-चीन के रिश्ते खराब होंगे. इसलिए इस घटना को एक संदर्भ से बाहर निकालकर नहीं देखना चाहिए.
जानकारों की मानें तो पंडित नेहरू के जमाने में भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता देने के दो बार अनौपचारिक पेशकश की बात सामने आती है. जिसमें एक बार साल 1950 में अमेरिका की तरफ से और दूसरी बार 1955 में सोवियत संघ की तरफ से पेशकश शामिल है. इसमें 1950 में अमेरिका की तरफ से की गई पेशकश कम्युनिस्टों के डर के कारण थी, तो सोवियत संघ ने यह पेशकश उत्साह में आकर की. यह दौर शीत युद्ध का दौर था जिसमें अगर भारत, अमेरिका के साथ खड़ा दिखता तो सोवियत संघ विरोध करता और सोवियत संघ के साथ खड़े होने पर अमेरिका विरोध करता.
यहां दिलचस्प बात यह भी है कि मौजूदा मोदी सरकार में भी अमेरिका, फ्रांस और रूस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत को स्थायी सदस्यता देने के पक्ष में गाहे-बगाहे समर्थन करते रहे हैं. लेकिन नियम के मुताबिक सुरक्षा परिषद में बदलाव के लिए संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में संशोधन की आवश्यकता होती है. जिसे कुल सदस्यों के दो तिहाई बहुमत के समर्थन के साथ-साथ पांचों स्थायी सदस्यों का समर्थन जरूरी है. इसके अलावा स्थायी सदस्यता लेने की कतार में भारत के अलावा जर्मनी, जापान, ब्राजील और अन्य देश भी खड़े हैं.
लिहाजा इन सभी बाधाओं को एक तरफ रखते हुए यह कहना कि चीन के मामले में पंडित नेहरू के 'हां' कहने से फर्क पड़ता एक जटिल समस्या का सरलीकरण कहा जा रहा है.