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मंदिरों पर ताला, घरों में वीरानगी और इलाके में ‘रहना मना है’...मालपुरा के हिंदुओं की आपबीती

उतना खून पहली बार देखा. पति के हाथ-पैर कटे हुए. सिर फरसे से दो-फांक. जमीन पर लोथ पड़ी थी. महीनेभर में सब खत्म हो गया. पहले सुहाग छूटा. फिर घर-जमीन. अब मकान पक्का है, लेकिन घाव कच्चा-टहकता. पुराने मोहल्ले की याद आती है. पुराने घर की, जो 'उन लोगों' ने खरीद लिया. जिस रसोई में बिन नहाए पांव नहीं पड़ते थे, वहां लहसुन-मांस पकता होगा.

राजस्थान के मालपुरा शहर के हिंदू लगातार पलायन की शिकायत कर रहे हैं. राजस्थान के मालपुरा शहर के हिंदू लगातार पलायन की शिकायत कर रहे हैं.
मृदुलिका झा
  • मालपुरा, राजस्थान,
  • 02 अक्टूबर 2023,
  • अपडेटेड 11:13 AM IST

80 साल की कल्याणी देवी जब बीते पति और छूटे घर की याद में रोती हैं तो नाक में पड़ी बड़ी सी नथ साथ-साथ डोलती है, मानो मिलकर रो रही हो. पति के साथ वाले दिनों की आखिरी याद. कहती हैं- मेरे साथ इसने भी गाढ़ा दुख देखा, जब जले हुए छाजन के नीचे चूल्हे की बजाए आंतें जलती थीं.

धाराप्रवाह मारवाड़ी में बोलतीं कल्याणी मालपुरा के उन चंद चेहरों में हैं, जो चेहरा दिखाने से नहीं डरते. आंखों में आंखें डाल अनझिप ताकते हुए कहती हैं- हम क्या, हमारे देवी-देवताओं को भी मंदिर खाली करना पड़ गया. सुनती हूं, वहां ताला पड़ा है.

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मालपुरा! जयपुर से सड़क के रास्ते चलें तो करीब दो घंटे में शहर पहुंच जाएंगे. आधुनिकता की हर छाप से खाली ये जगह ऐसी है मानो अभी-अभी दोपहर की नींद से जागी हो. सुस्त और रुकी हुई. छोटे चौराहों पर ठहर-थमकर चलती गाड़ियां, बित्ता-बित्ता दुकानें और छोटे-मंझोले मकान. 

बस, एक बात अलग है. कुछ गलियां, कुछ मोहल्ले हैं, जहां पांत के पांत घर खाली पड़े हुए दिख जाएंगे. कच्चे घर, पक्के, चाव से बनाए घर, खंडहर होते घर, मिट्टी में मिट्टी हो चुके घर.

ये पलायन है. हिंदुओं का पलायन. बर्फ में दबी उस लाश की तरह जिसके नैन-नक्श, हाथ-पांव सलामत दिखेंगे. जिससे कोई खून नहीं रिसता होगा. लेकिन रहेगी जो एक लाश ही.

जयपुर की नाक के नीचे अगर पलायन हो रहा है, तो कोई इसपर बात क्यों नहीं करता?

वहां के बेहद नामी वकील गड़ते हुए लहजे में पलटकर पूछते हैं- आपको क्या लगता है, कश्मीरी पंडित रातोरात भागे होंगे? कैंसर एक रात में नहीं फैलता. शरीर को जकड़ने में उसे सालों लगते हैं. मालपुरा को भी छोटा-मोटा कश्मीर समझिए. हल्ला तब मचेगा, जब यहां से टोलियों की टोलियां थैला उठाकर दिल्ली-मुंबई पहुंचेंगी, लहुलुहान...टूटी हुईं.

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वकील नाम-चेहरा दिखाने को राजी नहीं. कहते हैं ‘खतरा है’. कमोबेश यही हाल शहर के ज्यादातर लोगों का है. सबके-सब डरे हुए या नाराज. नाम-परिचय पूछने तक पर भड़ककर कहते हैं- तुम तो वीडियो बनाकर ले जाओगी, भुगतेंगे हम. हमारे घर उनसे जरा ही दूर हैं. हमारे खेत उनसे घिरे हुए. हमारे मवेशी भी उन्हीं मोहल्लों से जाते हैं, और बच्चियों का भी आमना-सामना हो जाता है. किस-किसको बचा सकेंगे!

लेकिन कल्याणी देवी अलग हैं. पति और पति का घर खो चुकी ये महिला उम्र के उस पड़ाव पर है, जहां न तो कोई डर बाकी रहता है, न कोई आस. हम जब पहुंचे, तो वो डगर-मगर चलती घर की सफाई में मगन थीं.

पक्का-हवादार मकान. खुला हुआ दालान. घुसते ही पहली बात कहती हूं- ठीक ही तो है, वो घर गया तो नया मिल गया. सहज ही निकल आई बात, शहरी आरामतलबी की महक लिए.

कल्याणी टुकुर-टुकुर देखती रहती हैं, जैसे पूछने वाले की मंशा परख रही हों, फिर कहती हैं- छोटी उमर की थी, जब पति का हाथ थामकर उस घर में आई. घर की दीवारें भले कच्ची हों, यादें पूरी-पक्की थीं. कितने गणगौर वहीं मनाए. वो छूटा, समझो, जीवन की कड़ियां टूट गईं.

पीली चुनरी और बड़ी सी नथ डाले ये औरत हल्के-हल्के रो रही है. चेहरे पर झुर्रियों से पहले जो दिखता है, वो है सूनापन. बिना फ्रेम की तस्वीर जैसा उजाड़पन, जो सुनहरी नथ से भी नहीं भरता.

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साल 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाने के दौरान देशभर में जो हिंसा भड़की, उसकी आंच मालपुरा तक भी पहुंच आई. 28 लोग मारे गए, और दर्जनों घायल हुए. कल्याणी ने तभी अपना पति खोया.

उस रोज क्या हुआ था?

वो मवेशी चराकर लौटे थे. गोद में दो साल की पोती खेल रही थी, तभी भीड़ आई और पेट्रोल डालकर छप्परों में आग लगाने लगी. हम सब पास के एक पक्के मकान में छिप गए. वे बाहर ही रह गए. किसी ने पोती को हाथ से खींचकर एक तरफ पटक दिया और इनके हाथ-पैर काट दिए. सिर पर फरसे से कई बार मारा होगा. चीख सुनकर जब तक हम दौड़े, ये जमीन पर पड़े थे. और घर धू-धूकर जल रहा था.

जाते-जाते दंगाइयों ने अनाज में भी आग लगा दी. चार-चार दिन तक चूल्हा नहीं जलता था. कभी एक जून खाना मिलता, फिर कई दिन फाका. गाढ़ा दुख भोगा बेटी, गाढ़ा दुख. कल्याणी बार-बार दोहराती हैं, मानो कहकर मुझे यकीन दिला रही हों.

उनके पास मारवाड़ी के शब्द थे. मेरे पास हिंदी वाली समझ. कई बातें समझ नहीं आतीं, लेकिन जो भी था, दुख का नाते-रिश्तेदार ही था .
कभी इंसाफ पाने की कोशिश नहीं की?

इंसाफ! बिना दांत वाला चेहरा फिक्क से हंसता है- रोटी खाते कि इंसाफ! पति की याद आती है. उस घर जाने को मन करता है, लेकिन जा नहीं सकती.

क्यों?

घर उन्हीं दंगाइयों में से किसी को बेच दिया. वहां बस्ती खाली हो रही थी. हमारे पास पैसे थे नहीं. अब तो सुनती हूं, सब घर या तो ढह गए, या बिक गए.

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वे फिर रो रही हैं. इस बार हिलक-हिलककर. हाथों की मुट्ठियां बनाकर आंसू पोंछते हुए. ठेठ गांव-घर की ये औरत उस घर के लिए कलपती है, जिसकी छत के नीचे वो दोबारा कभी जाग नहीं सकेगी.

घर के घर खाली होने की बात किसी हद तक सच्ची है. सुभाष सर्कल के दक्षिण की ओर पुराना मालपुरा बसा हुआ है. दस्तावेजों से समझ आता है कि दंगों से पहले हिंदू कम्युनिटी यहां से आगे टोडा रोड तक फैली रही होगी. अब ये इलाका काफी दूर तक खाली हो चुका. यहां वे मकान हैं, जिनके भविष्य में खंडहर होना ही बदा है.

साल 1950 से जो दंगे शुरू हुए. तब से अब तक करीब 70 छोटे-बड़े फसाद हो चुके. हिंदुओं का कहना है कि हर दंगे के बाद एक समुदाय पहले से ज्यादा हिंसक हो जाता है. कथित शांति कायम होने के बाद वो सीधे हमले नहीं करता, लेकिन अपने खानपान, तौर-तरीकों से कुछ न कुछ ऐसा कर जाता है कि लोग भागने पर मजबूर हो जाएं. औने-पौने दामों पर मकान बेचकर वे या तो नए मालपुरा या कहीं और निकल रहे हैं, वहां जहां हिंदुओं की बसाहट हो.

प्रधानमंत्री से लेकर कलेक्टर तक को ढेरों ज्ञापन दिए. कागजों में दावा है कि हर साल साढ़े 7 मीटर की दर से हिंदू बस्तियां बाहर की ओर सरक रही हैं. यहां तक कि पुराने शहर में बामुश्किल सौ मीटर की ही दूरी तक हिंदू परिवार बाकी रहे. बाकी लोग उत्तर की तरफ नए शहर में पलायन कर गए. या फिर टोंक, सांगानेर, जयपुर की तरफ चले गए.

दक्षिणी रेखा पर हिंदुओं के करीब 25 मंदिर हैं. पलायन की जद से मंदिर भी अछूते नहीं रहे. बहुसंख्यक आबादी का आरोप है कि माइनोरिटी के मकानों से घिरा होने की वजह से वे उस ‘खुलेपन’ से पूजा-पाठ नहीं कर पाते. कभी तीज-पर्व के मौके पर मंदिर जाएं भी तो डर-सहमकर चलना होता है, खासकर औरतों-बच्चियों को.

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दक्षिण में बसे मोहल्ला सादात में दो मंदिर खाली पड़े हैं. भागने वाले अपने साथ-साथ भगवान की मूर्तियां भी लेते गए. अब मंदिरों पर ताला पड़ा है. लकड़ी के किवाड़-खिड़किय़ों से पौधे झांकते हुए. दीवारों पर खुशहाली का वादा लिए आधे-अधूरे चुनावी पोस्टर.

ये मालियों का मंदिर था. एक वक्त था, जब मंदिर फूलों की खुशबू से महकता रहता. दूर-दराज तक घंटियों की आवाज जाती. अब वहां खंडहर है, सालों से जिसके कपाट तक नहीं खुले. इंसान तो भागे ही, उनके डर से भगवान भी पलायन कर रहे हैं- बिशनू लाल कहते हैं.
मूर्तियां हटाने की क्या जरूरत थी. पूजा-पाठ करने जाते तो कौन मना करता!

बोलकर ही तो मना नहीं किया जाता बाई! हम पूजा करने जाते तो उनकी बाइकें दरवाजे पर ही कलाबाजियां खाने लगतीं. बहन-बेटियां घबरा जाती थीं. कभी कोई जुमला उछाल देता, कभी जूठन. हम कब तक झगड़ते!

साल 1992 से लेकर 2023 तक का फसाद देख चुके बिशनू को सवालों में घुले शक पर गुस्सा नहीं आता. न हैरत होती है कि बाकी दुनिया को उनके संसार का कितना कम पता है. समझाने वाले अंदाज में वो धीरे-धीरे बताते हैं. आंखें लाचारगी से लबालब.

बारागांव मोहल्ले में चाव से घर बनाया. जयपुर की देखादेखी अटारी बनवाई, महंगे पत्थर भी लगवाए. घर क्या था, छोटा-मोटा महल ही समझिए. खेतों से आई सारी पूंजी लगा दी थी. अब महल खाली पड़ा है. दरवाजे की जगह टूटी हुई लकड़ी, जिसपर वो लोग कभी-कभार अपनी बकरियां-भैंसें बांधते हैं.

लाचार आंखें इस बार टप-टप टपकती हुईं. अपने पुरुष होने, सामने अनजान स्त्री की मौजूदगी, या किसी भी आड़ से बेपरवाह.
मैं बारागांव पहुंचती हूं. किसी जमाने में ये ब्राह्मणों का मोहल्ला था, उसी से नाम बना- बारागांव. उससे सटे हुए गुर्जर, बैरवां, माली, सिंधी और स्वर्णकार समाज के मोहल्ले. अब ये इलाका करीब-करीब खाली पड़ा है.

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बीत चुके घर. बीत चुके लोग. छतों पर छोटा-मोटा जंगल उग चुका. दरवाजों पर ताले तक नहीं. कहीं-कहीं दो मोटे लट्ठ तिरछे टिके हुए. उजाड़ सड़कें भांय-भांय बोलती हैं. बीच-बीच में कोयल की कूक, जो मन को लुभाती नहीं, भुतहा कहानी की तरह डराती है. 

कभी ये रास्ते, ये घर-बार गुलजार होते होंगे. बच्चे गैरमौजूद तितलियों के पीछे भागते होंगे, मांएं बच्चों के पीछे. पुरुष दालान में खेत-खलिहानों का हिसाब करते होंगे. तीज-त्योहार पर घी में भुनते मेवों की महक तैरती होगी. अब हवा में सूनेपन की बास है. दिल-दिमाग को क्लोरोफॉर्म की तरह निढाल करती हुई.

मोहल्ले में दो-एक ही परिवार बाकी हैं. मुझे देखते ही तिलमिला जाते हैं. आप जाइए- एक शख्स मुंह पर कहता है.

मैं समझाने लगती हूं. ‘बात तो कीजिए. शायद कोई रास्ता निकल आए.’ मेरे साथ गया लोकल साथी थोड़ी देर देखता है, फिर फोन पर बात के बहाने वहां से निकल जाता है. अब मैं निपट अकेली हूं. भग्न हो चुके महलों और अकेले पड़ चुके परिवारों के साथ. 

ये जगह देख रही हैं! रात होती तो यहां खाट डालने की जगह नहीं बचती थी. घर-बाहर सब भर जाए, इतना बड़ा तो मेरा खुद का परिवार था. अब सुबह के समय भी ऐसा सन्नाटा रहता है मानो मसान (श्मशान) में बैठे हों.

फिर आप लोग भी क्यों नहीं चले जाते?

जा सकते तो कब का चले जाते. न तो पैसे हैं, न वो उम्र. 

कांच की किरचों की तरह चुभती-रिसती आंखें अनजाने ही घाव कर रही हैं. पूछने-कहने की कोई गुंजाइश नहीं.

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मोहल्ला सादात में मालियों का ये मंदिर अब मंदिर की तरह नहीं लगता. 

विदा लेने लगती हूं तो वहां का सबसे उम्रदराज शख्स मानो कोई भेद खोलता है- बहुत लोगों को मजबूरन घर बेचना पड़ा, लेकिन कई लोग अपने घर मंदिरों को दान कर गए.

लिखा-पढ़ी है?

हां, समाज के लोगों के पास सब लेखा-जोखा है. 

मंदिरों को डोनेट करने से क्या होगा?

भले खाली रहें लेकिन घर कम से कम दूसरे हाथों में तो नहीं पड़ेंगे. रसोई में उलट-सुलट तो नहीं पकेगा. 

बुजुर्ग के चेहरे पर बुजुर्गियत भरी तसल्ली है. उनकी बातों की सच्चाई टटोलने का फिलहाल मेरे पास कोई तरीका नहीं. मोहल्ले से बाहर निकल आती हूं, जहां सोर्स मेरे इंतजार में है. वो आगे साथ आने से इनकार कर देता है. युवा है. थोड़ी देर पहले अपनी हिम्मत की दो-पांच कहानियां सुना चुका. वो सीधे-सीधे डर का हवाला नहीं देता, लेकिन जो भी बुदबुदाता है, वो कुछ ऐसा ही है.

अगली सुबह कई लोगों से मिलती हूं. शहर के बाहर एक दुकान में जुटे ये लोग व्यस्त हैं. किसी को खेत पर काम के लिए जाना है, किसी को मवेशी चराने. पहले हड़बड़ाते हैं, फिर रटी हुई कहानी की तरह दंगों के साल, घर छूटने का दिन सबकुछ बताने लगते हैं. बिना उकताए, लगातार. 

कुछ ही घंटों में जो बातें मेरे लिए दोहराव बन गईं, उनके लिए वही उनकी इकलौती कहानी है. पलायन कर चुके इन चेहरों के कैलेंडर उन्हीं दिनों में अटके हुए हैं, अपना फड़फड़ाना या पलटा जाना टालकर. 



मालपुरा में घर छोड़े जाने के लिए बनते हैं- एक शख्स मेरी उकताहट भांपकर जाते-जाते कहता है.

फोटो ले सकती हूं आपकी? चेहरा धुंधला कर दूंगी. नहीं! सीधा इनकार.

मोहल्ला सादात, जिसका नाम कभी मालियों की हथाई (मोहल्ला) था, वहां जाने की बजाए मैं फोन पर स्थानीय सदस्य से बात करती हूं. 
मोहम्मद इशाक नकवी शहर कांग्रेस के अध्यक्ष हैं. पलायन की बात से इनकार करते हुए कहते हैं- हमारा मालपुरा तो पूरे देश का सबसे सुरक्षित शहर है. सब मिलकर रहते हैं. जो लोग जा रहे हैं, ‘डेवलपमेंट’ के हिसाब से जा रहे हैं. किसी को बिजनेस करना है, किसी को बड़ी जगह रहना है.

और FIR, जो हर साल किसी त्योहार, जुलूस के बाद होती है!

नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं है. अब बर्तन साथ हों तो थोड़ा-बहुत तो बजेंगे ही.

बातचीत में मोहम्मद नकवी खुद मान बैठते हैं कि मोहल्ला सादात में मालियों का मंदिर बंद पड़ा है.

क्यों?

अब ये तो वही जानें. समाज वालों ने खुद बंद कर रखा है. लेकिन उस मंदिर की सुरक्षा और देखभाल हम मुस्लिम ही करते हैं. जैनियों की दादाबाड़ी भी हमसे ‘घिरी’ हुई है, लेकिन कभी कोई शिकायत नहीं आई.



बंद पड़े मंदिर की देखभाल क्यों और किससे करनी है, ये मैं नहीं पूछ पाती. न ही ये बता पाती हूं कि जैनियों ने कितने-कितने ज्ञापन नीचे से लेकर ऊपर तक इसलिए ही दे रखे हैं क्योंकि वे खुद को घिरा हुआ पाते हैं.

कथित बेहद सुरक्षित इस छोटे से शहर में जगह-जगह RAC (राजस्थान आर्म्ड कॉन्सटेब्युलरी) चौकियां हैं, जो इसके संवेदनशील होने की गवाही देती हैं. वहीं SHO भागीरथ सिंह फोन पर इसके सेंसिटिव जगह होने की बात से बेहद तपाक से इनकार करते हैं. 

यहां तीज-त्योहार सब धूमधाम से मनते हैं. कांवड़ यात्रा और जुलूस की बात अलग है. वो मत पूछिए. 

अगर सब ठीक है तो मुश्किल से चार किलोमीटर के शहर में चप्पे-चप्पे पर चौकियां क्यों हैं?

कुछ साल पहले तक दंगे होते थे, तभी चौकियां बनीं. बाकी गश्त तो रुटीन प्रक्रिया है. हमने शांति समिति बना रखी है, जिसकी महीने, डेढ़ महीने में मीटिंग लेते हैं. दोनों धर्मों के लोग आते हैं. सब तरफ शांति है. 

बहुत संभलकर बात करते हुए भी फोन रखते हुए SHO साहब बोल जाते हैं- ताली तो वैसे भी एक हाथ से नहीं बजती. दरगाह थाने में सालों तैनात रहा. खूब जानता हूं. 

बातचीत की कड़ी में विधायक कन्हैया लाल चौधरी भी शामिल हैं. कहते हैं- हिंदुओं का पलायन जमकर हो रहा है. जाते हुए वे या तो घर खाली छोड़ जाते हैं, या मजबूर हों तो मुस्लिम खरीदार को बेच जाते हैं. पुराना इलाका लगभग खाली हो चुका. 



कितना बड़ा एरिया खाली है?

एक किलोमीटर से कुछ ज्यादा लंबाई और 5 सौ मीटर की चौड़ाई होगी. यही कुछ 6 सौ से 8 सौ परिवार. साल पचास के बाद छुटपुट लोग भागे. नब्बे के बाद ये बढ़ गया. ज्यों ही एक समुदाय की आबादी आगे बढ़ने लगती है, हिंदू परिवार पीछे सरकने लगता है. घर ही क्यों,  बाजार भी सरककर दूर जा चुका. 

बातचीत में पता लगा कि पुरानी तहसील का बापू बाजार पहले मालपुरा का मुख्य बाजार था. बीते कुछ सालों में यहां की ज्यादातर दुकानें बंद हो गईं. कुछ जगहों पर बोर्ड लगा हुआ कि फलां दुकान यहां से वहां शिफ्ट हो गई है. साथ में मोबाइल नंबर भी लिखा हुआ, ताकि ग्राहक बिखर न जाएं. 

व्यापारियों से मिलती हूं. नाम-चेहरा दिखाने को कोई राजी नहीं, लेकिन ऑफ-रिकॉर्ड सब बोलते हैं. 

वहां दंगों का डर रहता था. फिर बीच-बीच में कर्फ्यू भी लग जाता है. पिछला कर्फ्यू 18 दिन तक चला. धंधा बैठ जाता है.



ये कब की बात है?

साल 2019 में दशहरे के जुलूस पर पत्थरबाजी हो गई. दोनों पक्ष गरम हो गए. इसके बाद पूरे मालपुरा में कर्फ्यू रहा. इंटरनेट तक 6 दिनों के लिए बंद हो गया था. पुराने हिस्से में खतरा ज्यादा है. सड़कें संकरी हैं. कुछ हो-हवा गया तो माल तो जाएगा ही, जान भी जाएगी. यही देखकर दुकानें नए शहर में लानी पड़ीं. 

कैमरे पर न आने की शर्त के साथ कुछ लोग इसे लैंड जेहाद कहते हैं. वे दावा करते हैं कि हिंदू इलाकों को कब्जाने के लिए पूरी रणनीति अपनाई जा रही है. इसके तहत एक कोई मुस्लिम परिवार बहुसंख्यकों के बीच ऊंची कीमत पर घर खरीदता है. इसके बाद उसके मुलाकाती बढ़ने लगते हैं. सब बदलने लगता है और हिंदू अपने घर औने-पौने दाम पर बेचकर पलायन कर जाते हैं. 

धंधे का समय हो चुका. दुकानदार अब थोड़ी हड़बड़ी में लगते हैं. ग्राहकी के लिए भी. और शायद पहचाने जाने के डर से भी. 

लौटते हुए एक बार फिर पुराने मालपुरा से गुजरती हूं. ढहे हुए मकानों के बीच इक्का-दुक्का परिवार. मानो कयामत के बाद धरती पर कुछ ही लोग बाकी हों.

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