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'महीनाभर काम में 15 दिन की तनख्वाह, PAK में हम खानदानी गुलाम थे, हमारी बहू-बेटियां उनका खिलौना'

मई का महीना था, जब बेटे ने आम की फरमाइश की. मैं आम की बाड़ी में काम करता. हाथ उसकी मीठी महक में सने रहते, लेकिन घर तक फल की एक फांक भी नहीं पहुंची. जमींदार ने चेताया था- एक भी फल कम पड़ा तो तनखा (तनख्वाह) काट लूंगा. वे मजदूरी हमसे कराते, लेकिन गिनती अपने लोगों से. जिन पैसों से हम आटा नहीं खरीद पाते थे, उससे भला आम कैसे लेते!

पाकिस्तान में गरीब हिंदू बंधुआ मजदूरी करने पर मजबूर हैं. पाकिस्तान में गरीब हिंदू बंधुआ मजदूरी करने पर मजबूर हैं.
मृदुलिका झा
  • जोधपुर,
  • 01 जून 2023,
  • अपडेटेड 11:42 AM IST

जोधपुर के चोखां इलाके में मेरी एक पीठ से बात हो रही है. विष्णुमल. पाकिस्तान से आए ज्यादातर रिफ्यूजियों की तरह वे भी चेहरा दिखाने को तैयार नहीं. कहते हैं- वीडियो देखकर वहां छूटे हमारे लोगों को और सताया जाता है. जानते हैं कि इनका कोई आसरा नहीं. चाहे जिस हाल में रहें, यहीं रहना है.

मुझे पुराने लोग याद आ गए. कुछ पुराने किस्से. 'ससुराल में कभी भी अपने मायके के दुख मत बताओ वर्ना वहां भी दुख मिलेगा.'

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जनवरी में तीर्थयात्रा के नाम पर हरिद्वार पहुंचे विष्णु वहां से होते हुए जोधपुर आ गए. ये राजस्थान का वो इलाका है, जहां भील समुदाय के लोगों की अच्छी-खासी आबादी है. पहले से बसे हुए भी, और नए आ रहे भी. वे कहते हैं- हमने सोचा था, दूध में पानी की तरह मिल जाएंगे. लेकिन यहां तो और उजाड़ दिए गए.

अतिक्रमण हटाने के नाम पर जोधपुर डेवलपमेंट अथॉरिटी ने जिन रिफ्यूजियों के घर तोड़े, विष्णु का कच्चा मकान उनमें से एक था.

'हम हिंदुओं में घर शगुन होता है. वहां घर छूटा. यहां घर टूटा. पता नहीं, एक जन्म में और कितनी मौत देखनी है.' खाट पर बैठी हुई पीठ हल्के-से कांपती लगती है, मानो सिसक रही हो.

सांकेतिक फोटो (Unsplash)

पाकिस्तान का मीरपुर खास प्रांत.

मार्च से जून तक यहां की हवाएं एक खास खुशबू में डूबी रहती हैं. आमों की महक. किस्म-किस्म के आम यहां बाग-बाड़ियों में दिखेंगे. टोकरियों में सजाकर ये खास फल वहां के खास लोगों तक जाता है. लकड़ी की पेटियों में भरकर सात समंदर लांघता है. बस, खेत किनारे बनी झोपड़ियों तक नहीं पहुंच पाता. इन्हीं में एक झोपड़ी विष्णु की भी थी.

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विष्णु बताते हैं कि मिट्टी और फूस से बना घर था. बारिश में पानी आसमान से कम, हमारी झोपड़ी से ज्यादा टपकता. गर्मियों में सूरज वहीं डेरा डाले रहता. ये पुश्तैनी झोपड़ी थी. मेरे बाबा भी यहीं रहते. उनके बाबा भी. और अब मेरा परिवार यहां पल रहा था.

पक्का घर होता भी कैसे! महीनाभर काम करते तो पंद्रह दिनों की तनखा मिलती. किसी न किसी बात पर कटौती हो ही जाती. देर से आए, पैसे काटो. रुककर बीड़ी पी ली, पैसे काटो. बारिश नहीं हुई, तनखा रोक लो. फसल गल गई, पैसे नहीं मिलेंगे.

पैसे कटने की इतनी आदत हो चुकी थी कि हम महीने के पंद्रह दिन ही जोड़ा करते. वे कसैली आवाज में कहते हैं.

जमींदारी प्रथा हिंदुस्तान में भले खत्म हो गई हो, पाकिस्तान, और खासकर सिंध में ये चलन खूब मिलता है. वहां भील, माली और मेघवाल समुदाय के हिंदू ज्यादा बसते हैं. अक्सर गरीब और अनपढ़ ये लोग एक ही मालिक के घर मजदूरी करते हैं. दादा से होते हुए पिता और पोते तक खेतों में काम करते हैं.

खानदानी हार की तरह ये खानदानी गुलाम होते हैं.

पाक से आए हिंदू शरणार्थियों पर काम करने वाले एक्टिविस्ट डॉ ओमेंद्र रत्नू फोन पर बताते हैं- आदमी अकेले ही जमींदारों के गुलाम नहीं होते. उस घर की औरतें भी होती हैं. घर में जवान औरत से लेकर बच्चियों तक पर मालिक की नजर रहती है. जब मन चाहे, वे उन्हें तलब कर सकते हैं. मना कर देंगी तो भी रेप होगा. मारपीट, पति की तनख्वाह कटेगी, वो अलग.  

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ह्यूमन राइट्स कमीशन ऑफ पाकिस्तान (HRCP) के मुताबिक, अकेले सिंध प्रांत में हजारों हिंदू बंधुआ मजदूर की तरह जी रहे हैं.

वहां उन्हें हारिस कहा जाता है, यानी चौकीदार या चौबीसों घंटे मुस्तैद रहने वाला. कमीशन ने साल 2021 के आखिर में 4 हजार से ज्यादा ऐसे हारिसों की लिस्ट सिंध प्रशासन को सौंपी थी, ये जिक्र उनकी वेबसाइट पर मिलता है.

तो मेरे सामने बैठा शख्स हारिस था. घड़ी की सुइयों पर दौड़ने वाला, दूसरों की फसलें उगाता, दूसरों के आंगन बुहारता, दूसरों के घर की खिड़कियां चमकाता और अपनी टपकती हुई छत को देखकर किस्मत को कोसता हुआ.

विष्णु कहते हैं- सालभर तो जैसे-तैसे कट जाता, गर्मियां मुश्किल हो जाती थीं मैडम. आम की खुशबू आती तो बच्चे जिद पकड़ लेते. एकाध बार मांगने की कोशिश की तो भी पैसे काट लिए.

मालिक का कहना था कि दिल में लालच आया, तो चोरी भी जरूर हुई होगी. 

और घर की औरतों के साथ उसका सलूक? गरीब के औरत-बच्चों के साथ कोई कैसा होता है! सपाट सा जवाब मिलता है. 

तभी घर में विष्णु की पत्नी आती हैं. सीने तक सरका आंचल. वे सिंधी में पति से कुछ कह रही हैं. उनके जाते ही विष्णु कहते हैं- कह रही थी, मेहमान आया, लेकिन कहवा तो दूर, पानी को साबुत गिलास भी नहीं. बुलडोजर आया तो घर के साथ ज्यादातर सामान भी तोड़ता चला गया.

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झोपड़ी में वाकई कुछ भी साबुत नहीं था, न छत, न फर्श. बांस के फट्टे से सटकर कपड़े लटके हुए. कोने में ठंडा चूल्हा. जिस चारपाई पर हम बैठे हैं, उसकी तरफ इशारा करते हुए वे कहते हैं- ये, और कुछ बर्तन-कपड़े लेकर आए थे. पाकिस्तान में यही हमारी कमाई थी.

वहां घर भी कहां हमारा था! जमींदार से ही पट्टा खरीदा था. जाते हुए बेचना चाहा तो सबने हाथ खड़े कर दिए. जानते थे कि जाएंगे तो लौटकर तो आएंगे नहीं. अब तक उस झोपड़ी में नए हिंदू मजदूर आ चुके होंगे.

वहां से निकलते हुए उमरकोट के शिवहरि से मुलाकात हुई. 7 महीने पहले भारत आए शिवहरि जोधपुर की गली-गली घूमकर कपड़े बेचते हैं.

'फेरीवाला! यहां सब मुझे फेरीवाला बुलाते हैं. वहां मेरी थोक-खुदरा की दुकान हुआ करती.'

तो यहां क्यों आए?

आना पड़ा. बेटी 10 साल की हो गई थी. क्लास में फर्स्ट आती. एक बार उसकी मां ने धीरे से स्कूल छोड़ने का जिक्र किया तो रो पड़ी. कहने लगी कि अगर पढ़ा नहीं सकते थे, तो स्कूल भेजा ही क्यों. वैसे तो अपनी उम्र से ज्यादा सयानी है. सब जानती है. लेकिन पढ़ाई छोड़ने की बात पर बिदक गई. बेटा भी बड़ा हो गया था. अक्सर स्कूल से पिटकर आता. वहां सारे हिंदू बच्चों का यही हाल था. बच्चे काफिर कहकर चिढ़ाते.

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काफी सोचकर मैंने सामान समेत अपनी दुकान बेच दी. सब मिलाकर 50 लाख का माल वहां रहा होगा, लेकिन हाथ में 10 लाख आए. करेंसी एक्सचेंज में वो भी कम हो गए. उन्हीं पैसों से यहां कपड़े खरीदे. ठेली पर बेचने निकलता हूं तो वहां छूटी अपनी दुकान याद आ जाती है. सफेद गद्दी पर बैठता. साथ में दो लड़के लगे रहते. यहां गर्मी-ठंड में सड़क पर फिरता रहता हूं.

बात करते हुए अचानक वे मोबाइल निकालकर कुछ तस्वीरें दिखाने लगते हैं- रौबीला, तना हुआ चेहरा. दुकान की एक झलक. एक तस्वीर में बच्चों के साथ सोफे पर हंसते हुए. एक के बाद एक तस्वीरें सरक रही हैं. 'रात-दिन का फर्क है मैडम. वे चेहरा और ये चेहरा. वो जिंदगी और ये जिंदगी. बच्चे भी इतने महीनों में कुम्हला गए, जैसे जड़ से कट गए हों.'

'पाकिस्तान हमारा घर नहीं, लेकिन हमारा घर तो पाकिस्तान में ही था.' वही कसकती हुई आवाज.

(नोट: पीड़ित परिवारों के नाम और चेहरा छिपाए गए हैं.)

जोधपुर में उजड़े शरणार्थी हिंदू कैंप की चौथी कहानी पढ़िए, कल. 

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