
भारतीय सेना के जवानों ने LoC पार कर 50 से ज्यादा PAK के आतंकियों को मार गिराया . लेकिन इस मिशन पर जिन जवानों को भेजा गया वे भारतीय सेना के सबसे बेहतरीन में से एक माने जाते हैं. तभी इन्हें 'स्पेशल फोर्स' भी कहा जाता है. एक अनुमान के मुताबिक हर साल 400 से 500 जवान स्पेशल फोर्स में शामिल होने के लिए आवेदन करते हैं, लेकिन इनमें से सिर्फ 1 ही असल में स्पेशल कमांडो बन पाता है. हम आपको बताते हैं कि कैसे एक जवान स्पेशल कमांडो बनता है?
जब कोई शख्स सेना में भर्ती होता है तो उसको स्पेशल फोर्स में शामिल होने का विकल्प दिया जाता है. इसके बाद उसकी क्षमता के आधार पर सेना यह तय करती है कि उसे स्पेशल फोर्स में भेजा जाए या नहीं.
20 से 22 घंटे होती है ट्रेनिंग
स्पेशल फोर्स में शामिल होने के लिए जवानों को 2 महीने के प्रोबेशन पीरियड पर रखा जाता है. यानि इन दो महीनों में यह परखा जाता है कि जवान आगे जाकर सेना के सर्जिकल स्ट्राइक जैसे ऑपरेशन को अंजाम दे सकेगा या नहीं. इस प्रोबेशन पीरियड के दौरान हर दिन 20 से 22 घंटों की कठोर ट्रेनिंग से गुजरना होता है. जैसे मुट्ठी के बल रोड पर चलना, 3 से 4 किलोमीटर तक सड़क पर रोल करके जाना. इस दौरान उसे मेंटल लेवल पर भी टॉर्चर किया जाता है ताकि जवान की यह परखा जा सके कि जवान सिर्फ शारीरिक तौर पर नहीं बल्कि मानसिक स्तर पर भी मजबूत हो. उदाहरण के लिए अगर कोई जवान थक जाए तो उन्हें थकान दूर करने के लिए एक किताब पढ़ने को दे दी जाती है लेकिन अगले दो घंटे में जवान को किताब का रिव्यू लिख कर देना होता है.
ट्रेनिंग में सिखाया जाता है कांच खाना
प्रोबेशन के दौरान दी जाने वाली ट्रेनिंग कितनी कठोर होती है इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि जवानों को कांच खाने की भी प्रैक्टिस करवाई जाती है. सांप को हाथ से पकड़ना सिखाया जाता है. इसके बाद उन्हें हर दिन 25 किलोग्राम तक वजन के साथ 40 किलोमीटर भागना होता है. इस दौड़ को पूरा करने का भी समय तय होता है. जैसे अगर किसी जवान को 10 किलोमीटर भागना है तो उसे 1 घंटे 10 मिनट का टाइम दिया जाता है. ऐसे ही 20 किलोमीटर की दौड़ के लिए 2 घंटा 20 मिनट, 30 किलोमीटर के लिए 3 घंटे 45 मिनट और 40 किलोमीटर की दौड़ के लिए 4 घंटे 40 मिनट दिए जाते हैं. साथ ही हफ्ते में दो बार 5 किलोमीटर और हर दूसरे दिन 2.4 किलोमीटर की दौड़ लगाना भी अनिवार्य होता है.
दुश्मनों को मार गिराने की होनी चाहिए ताकत
इस ट्रेनिंग के दौरान ही चार स्तर पर तय किया जाता है कि किस जवान को कैसा काम देना है. इसके लिए जवानों को ड्राइविंग, डिमोलिशन, बैटल फील्ड नर्सिंग असिस्टेंस, कम्यूनिकेशन सिखाया जाता है. इसके बाद फाइनल लेवल पर ऑफिसर्स यह देखते हैं कि कौन सा जवान ड्राइविंग बेहतर कर रहा है, कौन सा जवान दुश्मनों को गोला-बारूद से उड़ाने का काम अच्छे से करेगा, कौन ऐसा है जो युद्ध में घायल अपने साथियों के लिए फर्स्ट एड देने का काम कर सकता है और कौन सा जवान रेडियो सेट, जीपीएस जैसे कम्यूनिकेशन डिवाइसेज को बेहतरी से चला पाएगा.
आखिरी लेवल होता है सबसे मुश्किल
प्रोबेशन का टाइम खत्म होने से पहले जवानों की नेविगेशनल स्किल देखी जाती है. इसके लिए हर जवान को 40 किलोमीटर दूर तक के जंगल-झाड़ियों में बिना जीपीएस, कंपास के छोड़ दिया जाता है. इन्हें एक टारगेट दिया जाता है. जो चुपचाप पूरा करना होता है. इतना ही नहीं अगर किसी जवान से टारगेट पूरा करने में गलती हो गई तो उसे वापस वहीं जाना होता है जहां से उसने शुरुआत की.
स्पेशल फोर्स भी तीन हिस्सों में बंटा होता है. जैसे पहाड़ी इलाकों में लड़ने के लिए अलग स्पेशल फोर्स होती है तो वहीं डेजर्सटेड इलाके में लड़ने के लिए अलग होती है. इस ट्रेनिंग से गुजरने के बाद 12 से 15 स्पेशल ऑफिसर्स की एक टीम तैयार की जाती है. फिर कमांडिंग ऑफिसर्स यह तय करते हैं कि किसको सर्जिकल स्ट्राइक जैसे ऑपरेशंस में भेजा जाना है या नहीं. बता दें कि अगर कोई अफसर इस तरह के ऑपरेशन पर जाता है, तो उसे अपने कंधे पर कम से कम 75 किलोग्राम वजन ढोना पड़ता है.
- सेना के पूर्व कैप्टन (नाम न छापने की शर्त पर) से बातचीत पर आधारित.