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आदिवासी दुल्हन, दान की जमीन और हावी होता दीन...झारखंड के इस इलाके में खतरनाक खेल!

देश की राजधानी नई दिल्ली से सैकड़ों किलोमीटर दूर झारखंड के आदिवासी इलाकों में काफी कुछ ऐसा चल रहा है, जिसे संदेह की नजर से देखना जरूरी हो जाता है. ये इलाके देश के बॉर्डर पर तो नहीं हैं, लेकिन उन हिस्सों से सीधे जुड़े हैं, जहां अक्सर सीमा-पार से होने वाली गतिविधियों की खबर आती है. ऊपर से देखने पर सब सामान्य, लेकिन सतह के नीचे जैसे काफी कुछ खदबदा रहा हो. कुछ ऐसा, जो खतरे की आहट-सा लगता है. इस मामले की पड़ताल हमें 17 सौ किलोमीटर दूर ले गई.

झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों में कई चौंकाने वाले बदलावों का दावा हो रहा है. (Illustration- Vani Gupta/Aaj Tak) झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों में कई चौंकाने वाले बदलावों का दावा हो रहा है. (Illustration- Vani Gupta/Aaj Tak)
मृदुलिका झा
  • झारखंड के दुमका, पाकुड़ और साहिबगंज से,
  • 13 मार्च 2024,
  • अपडेटेड 12:51 PM IST

स्पेनिश टूरिस्ट से हुए गैंगरेप ने झारखंड के दुमका को ग्लोबल मैप पर ला दिया. हर कोई आदिवासी-बहुल इलाके की बात कर रहा है. लेकिन ये नाम पहले भी गुमनाम नहीं था. दुमका समेत कई जिले हैं,  जिनके बारे में कहा जा रहा है कि बांग्लादेशी मुसलमान न केवल आ रहे, बल्कि घर-बार तक बसा रहे हैं. कुछ आदिवासी नेताओं ने डर जताया कि जल्द ही उनकी बेटियों से लेकर जमीनें तक खत्म हो जाएंगी.

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इस डर में कितनी सच्चाई है? क्या इतना आसान है सीमा के उस पार से इस पार आकर बस जाना? क्या ये कथित घुसपैठ, महज रोटी-कपड़ा-मकान जैसी बेसिक जरूरतों के लिए हो रही है या एक पूरा तंत्र स्थापित हो चुका है जो इलाके की डेमोग्राफी बदलकर एक बड़े खतरे की वजह बन सकता है? ऐसे कई सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश हमें संथाल-परगना के तीन जिलों तक ले गई. पढ़िए, इस पड़ताल का पहला हिस्सा.

साहिबगंज का गोंडा पहाड़.

दिसंबर 2022 में यहां एक आंगनबाड़ी के पास इंसानी पैर का टुकड़ा दिखा, जिसे कुत्ते नोंच रहे थे. पास ही एक घर में बोरे में बंद मांस के टुकड़े बरामद हुए. ये रूबिका पहाड़िया की लाश थी. वो आदिवासी महिला, जिसने करीब एक महीने पहले ही दिलदार अंसारी से शादी की थी.

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दिलदार की ये दूसरी शादी थी. पहली पत्नी साथ ही रहती थी, जिस बारे में रूबिका को पहले पता नहीं था. झगड़े शुरू हुए और महीनेभर के भीतर ही रूबिका की खौफनाक हत्या हो गई. तफ्तीश में ये भी सामने आया कि मारने के बाद लड़की की लाश से खाल अलग कर दी गई थी ताकि पहचान न हो सके.

पति समेत बाकी दोषी फिलहाल जेल में हैं, लेकिन दसियों टुकड़ों में बंटी युवती एक थ्योरी को बल दे गई. थ्योरी जो दक्षिणपंथी राजनीति में सबसे ज्यादा जोर-शोर से उछाली जाती है. लव जिहाद की थ्योरी.

झारखंड के 6 जिले संथाल-परगना कहलाते हैं. 

दुमका, साहिबगंज और पाकुड़ में हम कई आदिवासी नेताओं और स्थानीय लोगों से मिले. सबकी जुबान पर ये शब्द था.

इसका कोई दस्तावेज या डेटा नहीं. अपनी बात पर वजन के लिए वे कुछ घटनाओं का हवाला देते हैं, जिनमें एक पैटर्न दिखता है.

मुस्लिम युवक का आदिवासी युवती से प्रेम. नाम छिपाकर या असल पहचान के साथ शादी और फिर धर्म परिवर्तन! नहीं! यहां एक फर्क है. पूरे देश में कथित जिहाद का जो कॉमन फसलफा है, उसमें लड़की का धर्म बदलने पर ज्यादा जोर रहता है. वहीं संथाल-परगना में ये बात अलग हो जाती है.

यहां शादी के बाद लड़की वही नाम-सरनेम रखती है. इस आदिवासी पहचान का फायदा शौहर को मिलता है. वो जमीन से लेकर पॉलिटिक्स तक में पैठ बना लेता है.

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कैसे?
इसे समझने के लिए हम पाकुड़ कोर्ट पहुंचे. यहां एक वकील हमारी मदद करने वाला था. मिलने पर उसने कई ऐसी बातें कहीं, जो आगे चलकर दोबारा-तिबारा भी सुनने में आईं. लेकिन बात शुरू होने से पहले शर्त थी कि मोबाइल बंद कर दिया जाए. हम कोर्ट के एक कोने में बैठे थे.

पाकुड़ के सिविल कोर्ट में हमें कई जानकारियां मिलीं. 

इतनी सावधानी की वजह?

आप लोग रिकॉर्ड करके चले जाएंगे. मेरा परिवार यहीं है. पता भी नहीं लगेगा, कौन कहां गायब हो गया.

भरोसा देने के बावजूद युवा वकील का चेहरा ढंका हुआ.

बात को खींचे बिना हम मुद्दे पर आते हैं.

यहां बांग्लादेशी घुसपैठियों के सोच-समझकर आदिवासी लड़कियों से शादी की बात कही जा रही है. आप इस बारे में कुछ जानते हैं?

यहां रेट चल रहा है. बांग्लादेश से गरीब लोग आते हैं. उन्हें टारगेट मिलता है. एक युवती को फांसने पर तय रकम. ये पैसा इंस्टॉलमेंट में मिलता है. काम शुरू करने से पहले थोड़े पैसे. इतने, जितने में अच्छे कपड़े लिए जा सकें, लड़की को घुमाया-फिराया जा सके. ज्यादातर आदिवासी परिवार गरीब हैं. उन्हें निशाना बनाया जाता है. मुलाकात की जाती है. धीरे से दोस्ती होती है. और फिर रिश्ता बन जाता है.

इसके लिए भी एक नेटवर्क होता है, एक शख्स गांव में चूड़ी-बिंदी बेचने वाला बनेगा. या फिर छोटी-मोटी दुकान खोल लेगा. वो ऐसे घरों की पहचान करेगा. दूसरा शख्स लड़की को अप्रोच करेगा. 

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शादी के बाद आता है दूसरा स्टेप. लड़का उसके नाम पर जमीन लेता है, या उसकी जमीन ले लेता है. संथाल-परगना का एसपीटी एक्ट इसमें उसकी मदद करता है.

घुसपैठ से लेकर योजनाबद्ध रिश्तों को समझने के लिए हमने इन रास्तों को तय किया.

तीसरा स्टेप भी है, जो सबसे ज्यादा खतरनाक है.

आदिवासी-बहुल इन इलाकों में मुखिया के पद आदिवासियों के लिए रिजर्व हैं. कहीं-कहीं ये महिलाओं के लिए आरक्षित है. गैर-आदिवासी यहां चुनाव नहीं लड़ सकते. आदिवासियों के पास चूंकि इलेक्शन लड़ने के लिए पैसे नहीं होते, न ही उन्हें राजनीति में खास दिलचस्पी है. ऐसे में बाहरी लोग उन्हें इस्तेमाल कर रहे हैं. वे अपनी पत्नियों को चुनाव लड़वाते हैं, और जीतने पर उसके सारे काम-हक अपने पास रख लेते हैं. औरत का काम सिर्फ कही हुई जगह पर साइन करना रह जाता है.

कपड़ा बांधे हुए चेहरा लगातार बोल रहा है.

आप जो कह रहे हैं, इसका कोई सबूत है या कोई डेटा?

लिखा-पढ़ी में कुछ है नहीं. हमने लोकल लेवल पर एक बार कोशिश की थी, लेकिन धमकियां मिलने लगीं. फिर काम रोक दिया. आप खुद पता कीजिए न. लोकल चुनाव से ऐन पहले गैर-आदिवासियों की आदिवासी लड़कियों से शादी खूब हो रही हैं. वे जीत भी जाती हैं क्योंकि आदिवासियों के साथ उन्हें लोकल मुस्लिमों का भी सपोर्ट मिलता है. बस, इसके बाद राजनीति से उनका कोई मतलब नहीं. पति ही सारे काम संभालता है. सारे फैसले लेता है.

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इसी सूत्र की पहचान के जरिए हम पाकुड़ के जबरदाहा गांव पहुंचे. गांव की पूर्व महिला प्रतिनिधि सुनीता मरांडी के घर, जिनके पति हैं आजाद अंसारी.

गांव में सबसे ऊंची जगह पर काफी दूर तक फैला कच्चा-पक्का मकान. सुनीता गीले कपड़ों का ढेर लिए कहीं जा रही थीं. रोकने पर पति का नाम लेते हुए कहा- वो तो घर पर हैं नहीं. काम है तो बाद में आइए.

हमारे कहने पर वे रुक गईं. घर के भीतर पहुंचते ही बातचीत शुरू हो गई.

पाकुड़ की पूर्व महिला प्रतिनिधि सुनीता मरांडी.

आप गांव की मुखिया हैं?

थी. इस बार चुनाव लड़ी, लेकिन हार गई.

कैसे हार गईं. काम तो आप लोगों ने खूब किया था! हम अंदाजे से बात करते हैं.

हां. किया था. सड़क बनवाई. शौचालय बनवाया. वो (पति) खूब भागदौड़ करता था. सब काम देखता. बेसी (काफी) काम करता था वो.

तब आप क्या करती थीं?

मैं भीतर का काम देखती थी. तीन बच्चे हैं हमारे. उनका काम, खाना-पानी.

क्या नाम है बच्चों का?

फरजाना. फरहाना और युसुफ.

अरे वाह और आपका नाम क्या है?

सुनीता मरांडी....सवाल में छिपे सवाल को वे नहीं समझ पातीं.

बच्चों को पढ़ना आता है!

हां. स्कूल जाते हैं. कुरान भी पढ़ते हैं.

आदिवासी महिलाओं से अलग सुनीता सिर पर आंचल करती हैं.

आपके पति की ये दूसरी शादी है क्या?

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हां-हां. बड़की बीमार रहती थी. तब मुझसे शादी की. हम छुटकी हैं. ऊ अलग रहती है.

एक्स्ट्रा इंफॉर्मेशन देती इस पूर्व मुखिया में एक चीज दिखी, जो आदिवासी महिलाओं में शायद ही दिखे. वो सिर पर पल्लू डालकर बाल ढंके हुए थीं. कान के पीछे सख्ती से खोंसा हुआ आंचल. बीच-बीच में आदतन ही हाथ सिर पर चला जाता था.

आप कहां तक पढ़ी-लिखी हैं?

मीट्रिक (मैट्रिक).

अच्छा. एक बार यहां अपना नाम और पता लिखकर दे सकेंगी?

सवाल के पूरा होते-होते भीतर से एक लड़का नमूदार हो गया. सुनीता को रोकते हुए मेरी तरफ देखता है- आपको बताया न, मैट्रिक पढ़ी हुई हैं. कुछ पूछना है तो अब्बू के आने पर लौटिएगा.

16-17 साल के लगते चेहरे पर सख्ती. सुनीता हंसते हुए कहती हैं- बड़ा बेटा है. युसुफ.

आगे मैं कुछ बोल-सुन पाती, इसके पहले बेटे ने सीधे बाहर जाने बोल दिया.

पाकुड़ के ही जोगी गढ़िया में मिलते-जुलते मामले का पता लगा. यहां झरना मरांडी मुखिया हैं, जिनके पति असराफुल शेख हैं. वे खुद को मुखिया पति कहते और सारे कामकाज संभालते हैं.

‘मुखिया पति’ टर्म यहां खूब बोला जाता है.

ये असल में मुखिया के पति होते हैं. पंचायत से जुड़े सारे फैसले, पैसों का लेनदेन यही देखते हैं. मुखिया का काम दस्तखत करना, या बहुत जरूरी हो तो मीटिंग में जाना होता है. यहां तक कि अधिकारियों से अनौपचारिक ‘डीलिंग’ भी पति करते हैं.

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संथाल में आदिवासियों की जमीन और हक सुरक्षित रखने के लिए कई नियम बनाए गए. 

ये ट्रेंड कॉमन है. आदिवासी महिला के लिए आरक्षित सीट वाली जगहों पर गैर-आदिवासियों के आदिवासी लड़कियों से शादी और चुनाव लड़वाने की घटनाएं बढ़ रही हैं. इसमें कई बातें एक जैसी हैं.

साहिबगंज की ही बात करें तो यहां की कई पंचायतों में मुखिया तो आदिवासी महिला है, लेकिन पंचायत से जुड़ा सारा कामकाज उनके पति देखते हैं, जो कि माइनोरिटी से हैं.

वहां के बड़ा सोनाकड़ गांव में ऐन चुनाव से पहले कई ऐसी शादियां हुईं. फिलहाल यहां सोना किस्कू मुखिया हैं, जिनके पति वकील अंसारी हैं. ऐसे ही मधुवापाड़ा पंचायत की मुखिया के पति का नाम समीरूल इस्लाम है.

साहिबगंज में जो आदिवासी महिला मोनिका किस्कू जिला परिषद की अध्यक्ष चुनी गईं, उनके पति का नाम उमेद अली था. शादी के बाद, आदिवासी नेताओं के मुताबिक, वे मुस्लिम तौर-तरीके रखने लगीं, लेकिन आरक्षित सीट भी नहीं छोड़ी.

आदिवासियों के हक बने रहें, इसके लिए उन्हें कई सेफ्टी लेयर दी गईं. इसी लेयर में कथित सेंध लगने पर आदिवासी युवा परेशान हैं.

दुमका में सिद्धो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय के स्टूडेंट लीडर राजेंद्र मुर्मू कहते हैं- हमारी ट्राइबल बच्चियों को प्रलोभन देकर फंसाया जा रहा है ताकि उनसे किसी न किसी तरह का फायदा लिया जाए. जैसे आरक्षित सीट पर नौकरी करवाना, या फिर पंचायत चुनाव लड़वाना.

राजेंद्र मुर्मू गैर-मजहब में शादी कर रही महिलाओं के आदिवासी हक लेने की बात करते हैं. 

ऐसे कितने मामले आपकी जानकारी में हैं?

दुमका में ही 30 प्रतिशत से ज्यादा आदिवासी लड़कियों ने नॉन-ट्राइबल, खासकर मुस्लिमों से शादी की.

लेकिन ये इत्तेफाक भी हो सकता है, या उनकी अपनी मर्जी भी?

आप लोग बाहर से ऐसा मान सकते हैं, लेकिन हमें साफ दिख रहा है. आदिवासी लड़कियां इनके लिए इनवेस्टमेंट हैं. उसपर 1 लाख खर्च करेंगे, तो बदले में 1 करोड़ का फायदा होगा.

वो कैसे?

आमतौर पर माइनिंग इलाकों में ऐसी शादियां हो रही हैं, जहां जमीन के नीचे कोयला है. यहां एसपीटी एक्ट के चलते कोई भी गैर-आदिवासी जमीन खरीदी नहीं कर सकता, लेकिन आदिवासियों के पास तो ये जमीन हैं. शादी के बाद अवैध खनन चलने लगता है. इसी तरह चुनाव में खड़ा कर दिया जाता है. नाम किसी और का होता है, कंट्रोल किसी और का. सबकुछ बिजनेस की तरह हो रहा है. जिस लड़की से फायदा नहीं दिखता, उसे मार भी दिया जाता है.

संथाल समाज में महिला-पुरुष बराबरी से रहते आए हैं. सांकेतिक फोटो

आप लोग क्या चाहते हैं?

आदिवासी लड़की अगर गैर-आदिवासी से शादी करे तो उसे पिता के घर की पहचान छोड़नी पड़े. इससे ट्राइबल्स का हक बना रहेगा. और जब बाहरी लोगों को फायदा मिलना बंद होगा तो वे भी हमारी बच्चियों को फांसना बंद कर देंगे.

अब पढ़िए, वो चलन, जिसके लिए लैंड-जिहाद टर्म इस्तेमाल हो रहा है. लेकिन इससे पहले वो नियम जानते चलें, जिसे संथाल-परगना टेनेंसी एक्ट (एसपीटी) कहते हैं.

एक्ट के तहत संथाल जिलों में जमीनों की खरीदी-बिक्री नहीं हो सकती. यहां तक कि लीज पर भी नहीं दी जा सकती. जमीन के मूल मालिक ही उसके मालिक रहते हैं. इसके पीछे सोच थी कि ट्राइबल और दूसरी पिछड़ी जातियों की जमीनें सेफ रहें. इसमें संथाल के 6 जिले शामिल हैं- गोड्डा, देवघर, दुमका, जामताड़ा, साहिबगंज और पाकुड़.

बीते कुछ वक्त से यहां जमीनें 'दान' की जा रही हैं.

आदिवासी एक दानपत्र बनवाते हैं, जिसमें वे अपनी जमीन को किसी को भी दे देते हैं. ये गिफ्ट लैंड हैं. सरकार के पास इसका कोई हिसाब-किताब नहीं. गिफ्ट लैंड पर संथाल से बाहरी लोग, या घुसपैठिए, चाहे जो बस जाएं, किसी के पास कोई रिकॉर्ड नहीं रहेगा.

एक बार आदिवासियों के हाथ से निकली जमीन गिफ्ट लैंड बनकर कई हाथों से गुजरती रहती है. 

दुमका के पूर्व सर्कल ऑफिसर यामुन रविदास बताते हैं कि असेंबली में भी ये मुद्दा उठा था. ज्यादातर आदिवासी जमीनें दान कर रहे हैं.

क्या इसकी कोई लिखा-पढ़ी होती है?

नहीं, बस नोटरी के पास जाकर एक कागज बनवा लिया जाता है. सरकारी नजर में इसका कोई मतलब नहीं. लेकिन जरूरतमंद आदिवासी थोड़े पैसों के लिए ऐसा कर लेते हैं. जैसे किसी को शादी या इलाज के लिए 1 लाख रुपये चाहिए. वो अपनी जमीन दान कर देगा, बदले में उतने पैसे ले लेगा. जमीन की कीमत भले अच्छी-खासी हो, लेकिन वो वक्ती जरूरत में फंस जाता है. कई बार आदिवासी के जमीन देने के बाद वो एक से दूसरे हाथ में जाती रहती है. एक समुदाय से दूसरा समुदाय उसे लेता रहता है. 

अगर कागज का कोई मतलब नहीं, तब तो कल को वो लैंड वापस भी ले सकता है?

हां. लेकिन आदिवासी कागज के भ्रम में रह जाते हैं. कई बार आगे की पीढ़ियां दावा भी कर देती हैं.

संथाल-परगना में कितनी जमीनें दान की जा चुकीं?

इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है क्योंकि सरकारी जानकारी में तो गिफ्ट लैंड आता ही नहीं. सब बाहर-बाहर ही हो जाता है.

आदिवासियों के देवस्थल जाहेरथान पर भी कब्जा हो रहा है.

गिफ्ट लैंड पर लोग घर बनाने या अवैध खनन का काम ही नहीं कर रहे, इसका और खतरनाक इस्तेमाल भी है.

अप्रैल 2022 में कोलकाता से आई स्पेशल टास्क फोर्स ने दुमका के सरुआ गांव में रेड डाली, जहां अवैध गन फैक्ट्री चल रही थी. फैक्ट्री गिफ्ट लैंड पर बनी हुई थी. इसका कहीं कोई रिकॉर्ड नहीं था.

ऐसी ही घटना साल 2021 में भी हुई थी, जहां दानपत्र की जमीन पर अवैध विस्फोटक बनाए जा रहे थे. मामला शिकारीपाड़ा का था. चूंकि प्रशासन इस जमीन को किसी आदिवासी की ही मानता है तो इसकी अलग से जांच-पड़ताल नहीं होती. यही बात अपराधियों को छूट देती है.

गिफ्ट लैंड के चलते बसाहट का पैटर्न भी बदल रहा है. अपनी ही जमीन पर आदिवासियों की घटती आबादी, जबकि ओवरऑल बढ़ती आबादी चौंकाने वाली है.

साल 1931 से 2011 के बीच राज्य की आदिवासी जनसंख्या में 11.9 प्रतिशत की कमी आ गई. साल 1931 के सेंसस में ट्राइबल जनसंख्या 38 प्रतिशत थी, जो आखिरी जनगणना में घटकर 26.2 रह गई. ये गिरावट नब्बे के दशक से तेज हुई. ये तब हो रहा है, जब ट्राइबल जिलों की जनसंख्या लगातार बढ़ रही है. 

आदिवासी पूजास्थल पर बना कब्रिस्तान

साहिबगंज में एक चौंकाने वाला मामला आया. गांव तेतरिया में ट्राइबल्स के देवस्थान को कब्रिस्तान में बदलने की तैयारी हो गई. इस बारे में आदिवासियों ने आवेदन भी किया, और साइन कैंपेन भी चलाया, लेकिन अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई.

तेतरिया के मुखिया सुनील सोरेन मुलाकात में कागजों के ढेर के ढेर देते हुए कहते हैं- हमारा जाहेरथान (मंदिर) मुर्दा दफनाने की जगह बन जाएगा. कई ऐसे मामले हैं. हमारे ही गांव में गोचर लैंड पर मस्जिद बना दी गई. जबकि उसका कोई दूसरा इस्तेमाल नहीं हो सकता.

आप लोग कोई कार्रवाई क्यों नहीं करते?

साहिबगंज में ग्राम तेतरिया के मुखिया सुनील सोरेन.

हम थोड़े से लोग बाकी हैं. ज्यादातर कम पढ़े-लिखे और गरीब. पंचायतों में ही बहुत से लोग हैं, जो दूसरे धर्म में शादी किए हुए हैं. हमारी ताकत उनके सामने कुछ नहीं. विरोध करेंगे तो दबा दिए जाएंगे.

राष्ट्रीय स्तर के नेता भी जमीन के अवैध या जबरिया लेनदेन से अनजान नहीं. कई बार इसपर एसआईटी भी गठित हुई, लेकिन उसके रिजल्ट का कहीं खुलासा नहीं हो सका.

इस बारे में भाजपा में एसटी मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष समीर उरांव कहते हैं- एसपीटी एक्ट के तहत जमीनें बेची नहीं जा सकतीं. लेकिन दूसरी जाति या धर्म में शादी करने पर इसमें कोई अड़चन नहीं. यही हो रहा है.

तो क्या आदिवासी आबादी का कम होना भी कहीं न कहीं इस सबसे जुड़ा है?

इस सवाल का जवाब थोड़ा गोल-मोल होते हुए आया.

पहले आदिवासियों में जन्मदर से मौत की दर ज्यादा थी. केंद्र ने सिकलसेल एनीमिया जैसी बीमारी पर काफी काम किया. अब बर्थ रेट तो बढ़ चुकी, लेकिन आबादी कम हो रही है. इसकी एक वजह ट्राइबल बहनों की बांग्लादेशी घुसपैठियों से शादी भी है. इसके एक पीढ़ी बाद उनकी पहचान चली जाती है. हो सकता है कि ये आबादी में झलक रहा हो. 

दुमका में रिश्ते से इनकार करने पर नाबालिग लड़की को पेट्रोल से फूंक देने वाला शाहरुख भी जमाबंदी जमीन पर बसा हुआ था. इससे संथाल में जमीन और जनसंख्या के पैटर्न की झलक दिखती है. 

(अगली किस्त: झारखंड के आदिवासी-बहुल जिलों में कथित लव-जिहाद पर. इसका अंत 'फिक्स' नहीं. लड़की का मजहब बदल सकता है. उसकी मौत हो सकती है. या वो मोहरा भी बन सकती है. किसी के लिए ये नाकामयाब प्रेम कहानी है, किसी के लिए साजिश...)

(साथ में- दुमका से मृत्युंजय कुमार पांडे)

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