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ईरान परमाणु डील रद्दः भारत समेत दुनिया को क्यों पड़ेगा महंगा, ये हैं 5 कारण

डोनाल्ड ट्रंप के फैसले की जहां ईरान समेत दूसरे सहयोगी राष्ट्र आलोचना कर रहे हैं, वहीं उनके इस निर्णय का दुनिया पर बड़ा असर भी देखने को मिल सकता है.

प्रतीकात्मक तस्वीर प्रतीकात्मक तस्वीर
जावेद अख़्तर
  • नई दिल्ली,
  • 09 मई 2018,
  • अपडेटेड 4:02 PM IST

ईरान के साथ हुए अंतरराष्ट्रीय परमाणु समझौते को दरकिनार करते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इससे अलग होने का फैसला कर लिया है. ट्रंप के इस फैसले की जहां ईरान समेत दूसरे सहयोगी राष्ट्र आलोचना कर रहे हैं, वहीं उनके इस निर्णय का दुनिया पर बड़ा असर होने के आसार जताए जा रहे हैं. भारत समेत दूसरे एशियाई देशों पर भी इस कदम का कई रूप में प्रभाव पड़ सकता है.

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1. तेल के दाम

तेल पैदा करने और निर्यात करने वाले OPEC देशों में ईरान तीसरे नंबर पर है. खासकर एशियाई देशों को ईरान बड़े पैमाने पर तेल सप्लाई करता है. भारत में सबसे ज्यादा तेल इराक और सऊदी अरब के बाद ईरान से आता है. भारत इस आयात को और बढ़ाने वाला है.

हाल ही में जब ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी दिल्ली पहुंचे तो भारत ने उससे तेल आयात बढ़ाने का वादा किया. जिसके बाद ये समझा जा रहा है कि 2018-19 से ईरान और भारत के बीच तेल का कारोबार डबल हो जाएगा. 2017-18 की बात करें तो भारत ईरान से प्रतिदिन 2,05,000 बैरल तेल आयात करता है, जो 2018-19 में बढ़कर 3,96,000 बैरल प्रति दिन होने की संभावना है.

मौजूदा वक्त में तेल की कीमत 70 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई है, जो कि पिछले चार सालों में सबसे ज्यादा है. ऐसे में ईरान पर अमेरिका के इस फैसले से तेल दामों में बढ़ोतरी की आशंका भी जताई जा रही है. अंग्रेजी अखबार दि हिंदू के एक लेख में इसका अनुमान लगाया गया है.

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2. चाबहार बंदरगाह

ईरान, भारत और अफगानिस्तान के बीच चाबहार बंदरगाह शुरू हो गया है. यह बंदरगाह विकसित करने के लिए तीनों देशों के बीच समझौता हुआ था. चाबहार दक्षि‍ण पूर्व ईरान के सिस्तान-बलूचिस्तान प्रांत में स्थि‍त है, इसके जरिए भारत का मकसद पड़ोसी पाकिस्तान को बाइपास कर अफगानिस्तान तक पहुंचना है. भारत पहले ही इस बंदरगाह के लिए 85 मिलियन डॉलर निवेश कर चुका है और अभी उसकी योजना करीब 500 मिलियन डॉलर के इन्वेस्टमेंट की है.

भारत इस चाबहार बंदरगाह के जरिए पिछले साल 11 टन गेंहूं की पहली खेप अफगानिस्तान भेज चुका है. भारत के इस कदम पर उस वक्त अमेरिका ने नरमी जाहिर की थी. जबकि अब हालात जुदा हैं. अमेरिका के नए सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन ईरान के प्रति काफी सख्त रुख वाले माने जाते हैं. ऐसे में इस बात की भी आशंका है कि ईरान पर अमेरिका का सख्त कदम भारत के चाहबहार निवेश को महंगा कर सकता है.

3. अंतर्राष्ट्रीय उत्तर दक्षिण परिवहन गलियारा (INSTC)

अंतर्राष्ट्रीय उत्तर दक्षिण परिवहन गलियारा यानी INSTC भारत को ईरान के रास्ते रूस और यूरोप से जोड़ने की परियोजना है. जो कारोबार को आसान बनाएगा. इस गलियारे को 2002 में मंजूरी मिलने के बाद से ही भारत इसका हिस्सा है. 2015 में समझौते के तहत जब ईरान से प्रतिबंध हटाए गए तो इस गलियारे की स्थापना को गति मिली. लेकिन एक बार फिर इस समझौते से अमेरिका के अलग होने के बाद इस परियोजना को झटका लगने की आशंका है.

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4. शंघाई सहयोग संगठन (SCO)

शंघाई सहयोग संगठन में भारत को जगह मिल गई है, जिसकी आधिकारिक तौर पर शुरुआत अगले महीने चीन में होने वाले एससीओ समिट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हिस्सेदारी से हो जाएगी. पाकिस्तान को भी इसमें जगह मिल गई है और अब चीन ईरान को लेकर विचार कर रहा है. अगर ईरान भी एससीओ में साथ आ जाता है तो चीन और रूस के नेतृत्व वाला यह संगठन एक तरीके से अमेरिका विरोध ताकतों का समूह बन जाएगा और इसमें भारत भी शामिल रहेगा. ऐसे में एक तरफ जहां पीएम मोदी अमेरिका और इस्त्राइल के साथ मिलकर पश्चिमी देशों से संबंध मजबूत कर रहे हैं, वहीं एससीओ के मंच से अमेरिका विरोधी खेमे में शामिल होने के नुकसान भी भारत को उठाने पड़ सकते हैं.

5. भारत-अमेरिका द्विपक्षीय संबंधों पर असर

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत हमेशा से नियम आधारित संबंधों का समर्थक रहा है. लेकिन अमेरिका का ईरान से समझौता तोड़ना एक तरीके की वादाखिलाफी के रूप में देखा जा रहा है. इसका असर भारत-अमेरिका के द्विपक्षीय संबंधों के अलावा बहुपक्षीय समझौतों पर भी पड़ सकता है. खासकर, यूएन क्लाइमेट चेंज समझौता और ट्रांस पैसिफिक समझौते से डोनाल्ड ट्रंप के कदम खींचने के बाद ऐसी चिंताएं और बढ़ गई हैं.

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बता दें कि जुलाई 2015 में बराक ओबामा के दौर में एक समझौता हुआ था, जिसके तहत ईरान पर हथियार खरीदने पर 5 साल तक प्रतिबंध लगाया गया था. इसके अलावा मिसाइल प्रतिबंधों की समयसीमा 8 साल तय की गई थी. इस समझौते के बदले ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम का बड़ा हिस्सा बंद कर दिया था और बचे हिस्सों पर निगरानी के लिए सहमत हो गया था. लेकिन ट्रंप ने इस समझौते से खुद को अलग कर लिया है, जिससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय में राजनीति गरमा गई है.

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