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जब नेहरू कोशिश के बाद भी नहीं बनवा पाए पसंद का कांग्रेस अध्यक्ष!

राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बनना सोमवार को तय हो गया. सिर्फ राहुल ने ही नामांकन भरा है इसलिए उनके निर्विरोध कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने का औपचारिक ऐलान होना ही बाकी रह गया है. वे अध्यक्ष के नाते अपनी मां सोनिया गांधी से पार्टी की बागडोर थामेंगे, जिन्होंने 19 साल तक ये जिम्मेदारी संभाली. 

जवाहरलाल नेहरू और राहुल गांधी जवाहरलाल नेहरू और राहुल गांधी
वंदना भारती/खुशदीप सहगल/बालकृष्ण
  • नई दिल्ली,
  • 04 दिसंबर 2017,
  • अपडेटेड 7:34 PM IST

राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बनना सोमवार को तय हो गया. सिर्फ राहुल ने ही नामांकन भरा है इसलिए उनके निर्विरोध कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने का औपचारिक ऐलान होना ही बाकी रह गया है. वे अध्यक्ष के नाते अपनी मां सोनिया गांधी से पार्टी की बागडोर थामेंगे, जिन्होंने 19 साल तक ये जिम्मेदारी संभाली.  

हाल फिलहाल के वर्षों में कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए इसी तरह निर्विरोध ताजपोशी होती रही है. लेकिन कांग्रेस के इतिहास में ऐसे कई मौके आए जब अध्यक्ष की कुर्सी के लिए पार्टी के भीतर ही जमकर घमासान हुआ. इसमें सबसे मशहूर किस्सा है जब राहुल गांधी के पिता राजीव गांधी के नाना और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के तमाम विरोध के बावजूद पुरुषोत्तम दास टंडन कांग्रेस के अध्यक्ष बनने में कामयाब रहे थे.

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बात अगस्त 1950 की है जब कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव होना था. मुकाबले में आमने सामने थे आचार्य कृपलानी के नाम से मशहूर जीवतराम भगवानदास कृपलानी और नेहरू के ही शहर इलाहाबाद से आने वाले पुरुषोत्तम दास टंडन. नेहरू और टंडन भले ही एक शहर से आते थे लेकिन विचारधारा को लेकर दोनों के बीच जबरदस्त मतभेद थे. नेहरू का मानना था कि टंडन एक रूढीवादी हिंदू विचारधारा के व्यक्ति हैं और उनका पार्टी अध्यक्ष बनना देश और पार्टी के हित में नहीं होगा.  

इससे पहले हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने को लेकर भी टंडन और नेहरू में विवाद हो चुका था. टंडन हिंदी के धुर समर्थक थे और उसे समूचे देश की भाषा बनाने के पीछे पूरी ताकत लगा रहे थे. लेकिन उदारवादी स्वभाव वाले नेहरू का मानना था कि इस तरह से हिन्दी को गैर हिन्दी भाषी राज्यों पर थोपना ठीक नहीं होगा. यही नहीं पाकिस्तान के खिलाफ भी टंडन के विचार बेहद आक्रामक थे और  उन्होंने एक बार शरणार्थियों की एक सभा में पाकिस्तान से बदला लेने की भी बात की थी जो नेहरू को नागवार गुजरी थी. नेहरू का मानना था कि ऐसे विचारों से लोगों की भावना और भडकेगी.

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उस समय कांग्रेस के सबसे कद्दावर नेता  नेहरू की मर्जी के खिलाफ अगर पुरूषोत्तम दास टंडन मैदान में उतरे थे तो उसकी वजह ये थी कि उनके पीछे सरदार पटेल (वल्लभ भाई पटेल) चट्टान की तरह खडे थे. सरदार पटेल चाहते थे कि टंडन हर हालत में पार्टी के अध्यक्ष बनें.

पटेल और नेहरू का इस चुनाव के कुछ ही महीने पहले एक और बेहद अहम मुद्दे पर भारी विवाद हो चुका था. वो मामला था भारत के पहले राष्ट्रपति  चुने जाने का. नेहरू चाहते थे कि सी राजागोपालचारी, जिन्हें राजाजी के नाम  से जाना जाता था, वो पहले राष्ट्रपति बनें. लेकिन पटेल की पसंद थे राजेन्द्र प्रसाद. जब नेहरू के नहीं चाहने के बावजूद पटेल के प्रभाव की वजह से राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपति बनने में कामयाब हुए तो नेहरू को बडा झटका लगा. इसलिए 1950 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव उनके लिए नाक सवाल बन गया था.

लेकिन जब चुनाव हुए तो एक बार फिर पटेल, नेहरू पर भारी पडे. टंडन आसानी से आचार्य कृपलानी को आसानी से हराकर कांग्रेस अध्यक्ष चुन लिए गए. नेहरू इस पर काफी आहत हुए. उन्होंने सी राजगोपालाचारी को अपना दर्द बयां करते हुए चिट्टी में लिखा, ‘टंडन का चुना जाना ये साफ दिखाता है कि अब शायद न पार्टी को मेरी जरूरत है और न ही सरकार को. मैं बेहद थका हुआ महसूस कर रहा हूं और मुझे ऐसा लगता है अब आगे शायद  ही मैं संतोषजनक ढंग से कोई काम कर पाउंगा ''

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लेकिन  टंडन के अध्यक्ष चुने जाने के चार महीने बाद, 15 दिसम्बर 1950 को सरदार पटेल का निधन हो गया. इसके बाद टंडन की राह बेहद मुश्किल हो गयी. नेहरू के साथ उनके मतभेद बढते गए. सरकार  और पार्टी के बीच खाई इस कदर चौडी होती गई कि दबाव बनाने के लिए नेहरू ने कांग्रेस वर्किंग कमेटी से इस्तीफा दे दिया. मामले को तूल पकडता देखकर अंत में टंडन को झुकना पडा. टंडन ने 10 सितंबर 1951 को  अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और उनकी जगह जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री के साथ साथ पार्टी के अध्यक्ष भी बन गए. अगले चार वर्ष  तक नेहरू, पार्टी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री दोनों पदों पर बने रहे.

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