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राहुल गांधी के लेफ्टिनेंट माने जाने वाले सिंधिया ने आखिर क्यों छोड़ा कांग्रेस का हाथ?

सिंधिया और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ के बीच अर्से से चली आ रही खींचतान बहुत कुछ संकेत दे रही थी, लेकिन फिर भी कांग्रेस नेताओं को उम्मीद थी कि सिंधिया की गांधी परिवार से नजदीकी उन्हें पार्टी छोड़ने जैसा बड़ा फैसला लेने से रोके रखेगी.

बीजेपी में शामिल हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया (फाइल फोटो-पीटीआई) बीजेपी में शामिल हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया (फाइल फोटो-पीटीआई)
मौसमी सिंह
  • नई दिल्ली,
  • 12 मार्च 2020,
  • अपडेटेड 2:57 PM IST

  • बीजेपी में शामिल हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया
  • सिंधिया समर्थक विधायकों ने भी एमपी में दिए इस्तीफे

कांग्रेस से नाता तोड़ने के एक दिन बाद ग्वालियर के सिंधिया राजघराने से संबंध रखने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया आखिरकार ‘भगवा’ हो गए. बुधवार को सिंधिया बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की उपस्थिति में पार्टी में शामिल हो गए और इस तरह महीनों की अटकलों पर विराम लग गया.

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दिल्ली में इस घटनाक्रम के साथ ही मध्य प्रदेश में सिंधिया के समर्थक विधायकों की इस्तीफों की झड़ी लग गई. साथ ही राज्य में कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार पर अनिश्चितता का प्रश्नचिह्न लग गया. सिंधिया के इस्तीफे के बाद कांग्रेस के कई नेताओं ने सिंधिया पर निशाना साधा. उन्होंने कटाक्ष किया कि ‘सिंधिया ने खुद को पार्टी से ऊपर रखा, उसी पार्टी से जिसने उनके लिए इतना कुछ किया.’

हालांकि सिंधिया और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ के बीच अर्से से चली आ रही खींचतान बहुत कुछ संकेत दे रही थी, लेकिन फिर भी कांग्रेस नेताओं को उम्मीद थी कि सिंधिया की गांधी परिवार से नजदीकी उन्हें पार्टी छोड़ने जैसा बड़ा फैसला लेने से रोके रखेगी.

कैसे तैयार हुई पटकथा?

दिसंबर 2018 में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद से ही राज्य में कांग्रेस के दो शीर्ष नेताओं कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच रिश्तों में तनातनी दिखनी शुरू हो गई थी. मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव नतीजे आऩे के बाद सिंधिया की रेंज रोवर कार तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के घर पहुंची. उस वक्त सिंधिया को बताया गया कि पार्टी ने कमलनाथ को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया है और उन्हें (सिंधिया) को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का पद सौंपा जाएगा. अपने स्वभाव के मुताबिक सिंधिया ने तब बिना कोई ना-नुकर पार्टी की इस पेशकश को स्वीकार कर लिया.

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कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, “उसी वक्त से सिंधिया समर्थकों को लगने लगा कि पार्टी नेतृत्व ने कमलनाथ को सिंधिया की जगह इसलिए तरजीह दी क्योंकि पार्टी हाईकमान को ये डर था कि समान आयु वर्ग होने की वजह से कहीं राहुल गांधी कहीं सिंधिया की चमक में कहीं दब ना जाए. यही सिंधिया के पिता दिवंगत माधवराव सिंधिया के साथ भी हुआ था. और अब वही इतिहास दोहराया जा रहा है.”

महीनों तक सिंधिया ने धैर्य के साथ पार्टी आलाकमान से कोई निर्देश सुनने का इंतजार किया. लेकिन इसके बजाए उन्हें फरवरी 2019 में लोकसभा चुनाव से पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के महासचिव प्रभारी के रूप में भेजा गया. कई लोगों ने इसे सिंधिया को मध्य प्रदेश की राजनीति से दूर रखने के लिए सजा के रूप में देखा. उस वक्त तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए बहुत कम संभावनाएं थीं और कुछ करने के लिए वक्त निकल चुका था.

लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के बाद राहुल गांधी अध्यक्ष पद से अपना इस्तीफा वापस नहीं लेने पर अड़े थे. पर्दे के पीछे बंद कमरों में पार्टी नेता राहुल की जिद पर हताशा जताने लगे और कहने लगे कि इससे पार्टी को और नुकसान हो रहा है.

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सिंधिया का नाम सुझाया

कांग्रेस वर्किंग कमेटी (CWC) की तब राहुल गांधी को मनाने के लिए बैठक भी हुई. उस वक्त पार्टी की त्रिपुरा यूनिट ने पार्टी अध्यक्ष के तौर पर सिंधिया का नाम भी सुझाया. लेकिन वो सिंधिया ही थे जिन्होंने अध्यक्ष के तौर पर सोनिया गांधी के नाम का प्रस्ताव किया और वो इस ज़िम्मेदारी संभालने के लिए सोनिया गांधी के पास आग्रह करने भी गए.

कई नेताओं का मानना है कि कांग्रेस के मंचों पर सिंधिया की अहमियत हमेशा देखने को मिलती थी. वो बैठकों में प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ बैठते थे और उन्हें हर कोई गंभीरता से सुनता था. लेकिन सिंधिया को लगने लगा कि उन्हें मध्य प्रदेश की राजनीति में पीछे रखा जा रहा है. ऐसी परिस्थितियों में सिंधिया कांग्रेस में घुटन महसूस करने लगे थे. वहीं, मध्य प्रदेश के दो दिग्गजों- कमलनाथ और दिग्विजय सिंह ने भी सिंधिया के खिलाफ आपस में हाथ मिला लिया. इससे सिंधिया के लिए मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं.

एक नेता ने कहा, कमलनाथ और दिग्वजिय मिल कर सिंधिया को दबा रहे थे और सिंधिया समर्थक मंत्री एक साधारण ट्रांसफर पोस्टिंग भी नहीं करा पा रहे थे. क्योंकि सारी फाइल मुख्यमंत्री के दफ्तर के जरिए जाती थीं इसलिए वो दबी रहती थीं.

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बीजेपी ने भांपी मनोदशा

बीजेपी ने सिंधिया की मनोदशा को भांप लिया. इसके बाद पार्टी ने सिंधिया की बुआ यशोधरा राजे को उन्हें पार्टी में लाने के लिए मन बनाने की जिम्मेदारी सौंपी. इसके अलावा बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता जफर इस्लाम को भी इस काम में लगाया गया. वो सिंधिया के पुराने दोस्त रहे हैं और दोनों की आपस में अच्छी ट्यूनिंग रह चुकी थी.

एक हफ्ते पहले बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के बेटे की शादी के दौरान गृह मंत्री अमित शाह की जफर इस्लाम के साथ विस्तार से चर्चा हुई. इस चर्चा के दौरान नरेंद्र सिंह तोमर, धर्मेंद्र प्रधान, शिवराज सिंह चौहान और नरोत्तम मिश्रा भी वहां मौजूद थे. कोई भी इसे हल्की अनौपचारिक वार्ता समझ सकता था. लेकिन उस बातचीत का नतीजा 10 मार्च होली वाले दिन से दिखना शुरू हुआ. बुधवार को जफर इस्लाम सिंधिया को साथ लेकर दोपहर सवा दो बजे दिल्ली में बीजेपी मुख्यालय पहुंचे.

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दरअसल, सिंधिया ने मध्य प्रदेश में चीज़ों को सही दिशा में नहीं मानते हुए एक महीना पहले ही सड़क पर उतरने की चेतावनी दे डाली थी. गुना के पूर्व सांसद सिंधिया ने राज्य से जुड़े मुद्दों को मुखरता से उठाना इसलिए शुरू किया कि उनकी बात ‘10. जनपथ’ तक पहुंचेगी और उन्हें सुना जाएगा. सिंधिया ने बुधवार को दिल्ली में बीजेपी में शामिल होने के दौरान मध्य प्रदेश के किसानों के मुद्दों का जिक्र भी किया. साथ ही उन्होंने कहा कि 18 साल जिस पार्टी में वो रहे उससे विमुख होने का एक कारण ये भी है कि कांग्रेस मध्य प्रदेश में अपने चुनावी वादों को पूरा करने में नाकाम रही.

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जुबानी जंग की रही भूमिका

सिंधिया का कांग्रेस से मोहभंग होने के पीछे बीते महीने कमलनाथ से उनकी जुबानी जंग ने भी बड़ी भूमिका निभाई. सिंधिया ने 15 फरवरी को मीडिया से बातचीत में कहा था, “ये नामुमकिन है कि कांग्रेस कोई वादा करे और उसे पूरा नहीं करे. अगर कांग्रेस ने किसी बात का वादा किया है तो उसे पूरा किए जाना बहुत अहम है...नहीं तो सड़क पर उतरना पड़ेगा.”

सिंधिया ने एक तरह से ये कमलनाथ को आगाह किया था कि अगर राज्य सरकार किसानों के कर्ज माफी के वादे को पूरा करने में नाकाम रही तो वो सड़क पर उतर कर विरोध प्रदर्शन का रास्ता अपनाएंगे. सिंधिया की इस चेतावनी के बारे में जब मुख्यमंत्री कमलनाथ से पूछा गया तो उनका जवाब था- “तो उतर जाएं”. कमलनाथ के इस तरह के जवाब से ये संकेत गया कि कांग्रेस आलाकमान मजबूती से उनके पीछे हैं.

सिंधिया ने आखिरी कोशिश के तौर पर 26 फरवरी को कांग्रेस वर्किग कमेटी की बैठक के बाद पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलने की इच्छा जताई लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका.

सिंधिया के समर्थकों को कथित तौर पर जहां हाशिए पर रखा जा रहा ता वहीं उनके विधायकों को भोपाल में प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा था. सिंधिया को अपनी ही पार्टी में वजूद की लड़ाई लड़नी पड़ रही थी. आखिरकार उन्होंने अपनी दादी का रास्ता चुना और कांग्रेस का हाथ छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया.

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