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विजय दिवस विशेष: करगिल युद्ध का वो हीरो, जो है देश का पहला ब्लेड रनर

मेजर डीपी सिंह बताते हैं कि अस्पताल से निकलने के बाद से लेकर आज ब्लेड रनर बनने तक के सफर में कई पड़ाव आए. मजबूत इच्छाशक्ति के दम पर वह कदम-दर-कदम आगे बढ़ते गए और हर चुनौती का सामना किया.

मेजर डीपी सिंह (फोटो- Instagram: MajorDPSingh) मेजर डीपी सिंह (फोटो- Instagram: MajorDPSingh)
देवांग दुबे गौतम
  • नई दिल्ली,
  • 26 जुलाई 2020,
  • अपडेटेड 7:40 AM IST

  • मेजर डीपी सिंह अपनी सफलताओं का श्रेय भारतीय सेना को देते हैं
  • 2016 में लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स ने पीपल ऑफ द ईयर घोषित किया

21 साल पहले आज ही के दिन (26 जुलाई) भारतीय सेना के जवानों ने अपनी बहादुरी से पाकिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था. यूं तो सेना के जवानों ने देश को कई बार गौरवान्वित महसूस कराया है, लेकिन ये तारीख खास है. इसी दिन सेना ने 2 महीने तक चले करगिल युद्ध में विजय हासिल की थी. इस जंग में भारत ने अपने कई जांबाजों को खोया. इनमें कैप्टन विक्रम बत्रा, कैप्टन सौरभ कालिया, कैप्टन मनोज पांडे जैसे रणबांकुरे हैं. वहीं, कुछ ऐसे भी नायक हैं जो आज भी हमारे बीच हैं और उनमें वही जुनून और जज्बा कायम है.

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इन्हीं में से एक हैं मेजर (रि.) डीपी सिंह. सरहद पर दुश्मन से लोहा लेने वाले मेजर डीपी सिंह के नाम कई उपलब्धियां हैं और देश के लिए वह एक मिसाल बन चुके हैं.

डॉक्टर ने घोषित कर दिया था मृत

तारीख 13 जुलाई. समय सुबह का. मेजर डीपी सिंह जम्मू और कश्मीर के अखनूर सेक्टर में बॉर्डर पर बनी एक पोस्ट संभाले हुए थे. मेजर की टीम में उनके साथी जवान थे. पाकिस्तान की पोस्ट उनकी पोस्ट से करीब 80 मीटर की दूरी पर थी. यहां पर फायरिंग बंद थी. लेकिन दो दिन बाद 15 जुलाई को दुश्मन की ओर से फायरिंग शुरू हुई.

मेजर डीपी सिंह अपने बंकर के बाहर मोर्चा संभाले थे. इस दौरान पाकिस्तान ने दो मोर्टार दागे. पहले मोर्टार से तो डीपी सिंह बच गए, लेकिन दूसरा मोर्टार उनके बगल में आ गिरा. तेज धमाका हुआ. मेजर डीपी सिंह जमीन पर गिर पड़े.

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इस हमले में वो बुरी तरह घायल हो गए. उनका एक पैर जख्मी हो चुका था. शरीर पर 40 से ज्यादा घाव थे. उनके साथियों ने गोलीबारी के बीच उन्हें सुरक्षित जगह पर पहुंचाया. मेजर डीपी सिंह को अखनूर के आर्मी हॉस्पिटल ले जाया गया. यहां पर डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया. लेकिन सेना के जवानों की तो ट्रेनिंग ही ऐसी होती है कि वह अंतिम पल तक हार नहीं मानते.

इस घटना पर मेजर डीपी सिंह ने एक इंटरव्यू में बताया था कि अस्पताल में एक डॉक्टर ने तो यहां तक कह दिया था कि ये मर चुका है. लेकिन एक अन्य डॉक्टर ने मेरे अंदर जिंदगी देखी. मेजर डीपी सिंह के मुताबिक, तीन दिन बाद उनको होश आया. उनको मालूम पड़ा कि उन्हें गैंगरिन हो गया है. डॉक्टरों ने बताया कि मेरा एक पैर गल चुका है और अब उसको काटने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है. डॉक्टर्स से मेजर डीपी सिंह कहते हैं कि प्लीज गो अहेड. मेजर डीपी सिंह इसे अपना पुनर्जन्म मानते हैं.

वो कहते हैं कि जैसे उस मोर्टार पर मेरा नाम लिखा था, लेकिन वो मुझे मार नहीं सका. मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं मर रहा हूं. जिस दिन इंसान हार मान ली उस दिन समझो वो मर गया. तब तो आपको डॉक्टर भी नहीं बचा सकते.

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मेजर डीपी सिंह कहते हैं कि जब मालूम पड़ा कि मेरा पैर काटना पड़ेगा, तब शायद मैं हार मान सकता था, लेकिन मैंने इसे एक चुनौती के तौर पर देखा. मैंने अपने आप से कहा कि आओ देखते हैं कि कैसे लोग बिना एक पैर के जिंदा रहते हैं.

साल 2009 में पहली बार मैराथन में लिया हिस्सा

साल 1999 में अपना एक पैर गंवा चुके मेजर डीपी सिंह ने 10 साल बाद 2009 में पहली बार मैराथन में हिस्सा लिया. इसके दो साल बाद वह देश के पहले ब्लेड रनर (कृत्रिम पैरों की मदद से दौड़ने वाला धावक) बने. वह हॉफ मैराथन में भी हिस्सा ले चुके हैं. वह 21 किमी हॉफ मैराथन दौड़कर इतिहास भी रच चुके हैं. भारत में उनसे पहले ऐसा किसी ने नहीं किया था.

डीपी सिंह बताते हैं कि अस्पताल से निकलने के बाद से लेकर आज ब्लेड रनर बनने तक के सफर में कई पड़ाव आए. मजबूत इच्छाशक्ति के दम पर वह कदम-दर-कदम आगे बढ़ते गए और हर चुनौती का सामना किया.

मेजर डीपी सिंह के नाम दर्ज हैं ये रिकॉर्ड

मेजर डीपी सिंह ने अपनी जिंदगी में वो कारनामे किए हैं जो पूरी तरह से स्वस्थ इंसान के लिए भी करना मुश्किल होता है. वह चार बार लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में अपना नाम दर्ज करा चुके हैं. साल 2016 में लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स ने उन्हें पीपल ऑफ द ईयर घोषित किया था. इसके दो साल बाद केंद्र सरकार ने मेजर डीपी सिंह को नेशनल रोल मॉडल के अवॉर्ड से नवाजा. इतना ही नहीं मेजर डीपी सिंह एशिया के पहले दिव्यांग स्काई डाइवर हैं.

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सेना को सफलता का श्रेय

मेजर डीपी सिंह अपनी इन सफलताओं का श्रेय भारतीय सेना में प्राप्त अनुशासन को देते हैं. डीपी सिंह कहते हैं कि मेरी सफलता के पीछे मेरी एक सिख के रूप में परवरिश और भारतीय सेना की ट्रेनिंग है. इसने मुझे प्रतिकूल परिस्थितियों को अवसर में बदलने की क्षमता दी है. उन्होंने कहा कि जब मैं घायल हुआ था तब मुझे अलग-अलग जाति, धर्म और राज्य के लोगों से रक्त मिला था. मेरे शरीर में देश का खून दौड़ रहा है और मुझे लगता है कि मैं सबकुछ हासिल कर सकता हूं.

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