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क्या 27 साल पुराने फैसले की वजह से बच जाएगी कर्नाटक जेडीएस-कांग्रेस सरकार?

कानून के जानकारों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट सहित कोई भी अदालत विधानसभा स्पीकर या अध्यक्ष को तब तक कोई आदेश नहीं दे सकती है जब तक कि वह विधायकों की अयोग्यता को लेकर अंतिम निर्णय नहीं ले लेता है.

विधानसभा अध्यक्ष के. आर. रमेश कुमार (फोटो-IANS) विधानसभा अध्यक्ष के. आर. रमेश कुमार (फोटो-IANS)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 17 जुलाई 2019,
  • अपडेटेड 8:49 AM IST

कर्नाटक का सियासी गणित उलझता ही जा रहा है. कांग्रेस-जेडीएस के बागी विधायकों के इस्तीफे पर सु्प्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया है और आज इस पर फैसला आएगा. शीर्ष कोर्ट में बागी विधायकों की तरफ से वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी, तो वहीं अभिषेक मनु सिंघवी ने कर्नाटक विधानसभा अध्यक्ष के. आर. रमेश कुमार और राजीव धवन ने मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी का पक्ष रखा.

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कानून के जानकारों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट सहित कोई भी अदालत विधानसभा स्पीकर या अध्यक्ष को तब तक कोई आदेश नहीं दे सकती है जब तक कि वह विधायकों की अयोग्यता को लेकर अंतिम निर्णय नहीं ले लेते हैं.

विधानसभा स्पीकर को यह सहूलियत 18 फरवरी 1992 को किहोटो होलोन बनाम जचिल्लहू और अन्य के मामले (Kihoto Hollohan vs Zachillhu And Others) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से हासिल है. कर्नाटक संकट पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान स्पीकर का पक्ष रख रहे वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने भी इस केस का जिक्र किया. इस फैसले के पैरा 111 में स्पीकर के अधिकारों का जिक्र किया गया है. उस दौरान पांच जजों की पीठ ने यह फैसला दिया था.  

क्या कहता है दल-बदल कानून

कर्नाटक मामले को लेकर दल-बदल कानून पर सबकी नजर है. यह कानून कहता है कि निर्वाचित सदस्य यदि विशेष परिस्थितियों में अपनी पार्टी छोड़ते हैं तो इसका मतलब उनकी सदस्यता का रद्द होना होता है. भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची को दल-बदल विरोधी कानून कहा जाता है. इसे 1985 में 52वें संशोधन के साथ संविधान में शामिल किया गया था.

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इस कानून की जरूरत तब महसूस हुई जब सियासी फायदे के लिए लगातार सदस्यों को बगैर सोचे समझे दल की अदला बदली करते हुए देखा जाने लगा. अवसरवादिता और राजनीतिक अस्थिरता बहुत ज्यादा बढ़ गई थी और इससे जनादेश की अनदेखी होने लगी थी.

इस कानून के मुताबिक कोई सदस्य सदन में पार्टी व्हिप के खिलाफ जाकर वोटिंग करे या यदि कोई सदस्य स्वेच्छा से त्यागपत्र दे अथवा कोई निर्दलीय, चुनाव के बाद किसी दल में चला जाए या यदि मनोनीत सदस्य कोई दल ज्वॉइन कर ले तो उसकी सदस्यता रद्द हो जाएगी.

वर्ष 1985 में कानून बनने के बाद भी जब अदला बदली नहीं रुकी तो इसमें संशोधन किया गया. वर्ष 2003 में यह तय किया गया कि सिर्फ एक व्यक्ति ही नहीं, बल्कि यदि सामूहिक रूप से भी पार्टी बदली जाती है तो उसे असंवैधानिक करार दिया जाएगा.

इसी संशोधन में धारा तीन को भी खत्म कर दिया गया जिसके तहत एक तिहाई पार्टी सदस्यों को लेकर दल बदला जा सकता था. अब ऐसा कुछ करने के लिए दो तिहाई सदस्यों की रजामंदी की जरूरत होगी.

यही अहम प्रावधान कर्नाटक की मौजूदा स्थिति पर भी लागू होता है, जो सदन में किसी भी पार्टी के दो तिहाई से कम विधायकों को तोड़ने से रोकता है. पार्टी के सदस्यों को तोड़ा न जा सके इसलिए उन्हें एक साथ रखने के लिए शहर के बाहर किसी रिजॉर्ट में रखा जाता है.

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कानून की समीक्षा की मांग

बहरहाल, चुनाव आयोग इस कानून को लेकर अपनी भूमिका में स्पष्टता चाहता है. बीच में यह मांग भी उठी है कि ऐसे हालात में स्पीकर या अध्यक्ष की राय की समीक्षा भी ठीक से की जानी चाहिए. और तो और स्वेच्छा से दल छोड़ने के अर्थ की भी ठीक से व्याख्या की जाए. क्योंकि इस कानून का इस्तेमाल सदस्य को अपनी बात रखने से रोकने और पार्टी ही सर्वोच्च है कि भावना को सही ठहराने के मकसद से भी किया जा सकता है.

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