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मायावती को क्यों कहना पड़ा कि विपक्ष में बैठना मंज़ूर, समझौता नहीं

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सबसे मज़बूत पार्टियों में से एक होते हुए भी मायावती ने आखिरकार कह ही दिया कि चुनाव के बाद अगर स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो वो विपक्ष में बैठना पसंद करेंगी, न कि किसी राजनीतिक दल के साथ गठजोड़ करके सरकार बनाना.

मायावती मायावती
केशवानंद धर दुबे/पाणिनि आनंद
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  • 14 फरवरी 2017,
  • अपडेटेड 4:57 PM IST

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सबसे मज़बूत पार्टियों में से एक होते हुए भी मायावती ने आखिरकार कह ही दिया कि चुनाव के बाद अगर स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो वो विपक्ष में बैठना पसंद करेंगी, न कि किसी राजनीतिक दल के साथ गठजोड़ करके सरकार बनाना.

सत्ता के प्रमुख दावेदारों में और कोई पार्टी ऐसा बयान देती नज़र नहीं आ रही है. भाजपा हो या सपा-कांग्रेस गठजोड़, दो तिहाई बहुमत से कम पर कोई कुछ बोलने-कहने को तैयार नहीं है. मायावती शायद अकेली नेता हैं जो ऐसे समय में यह जोखिम ले रही हैं जब छह चरणों में 330 सीटों का मतदान बचा हुआ है.

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मायावती ने कहा- विपक्ष में बैठना मंजूर लेकिन बीजेपी का साथ कभी नहीं

पिछले हफ्ते जब पहले चरण का मतदान पूरा हुआ तो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने सत्ता पर दावेदारी का बयान दोहराते हुए कहा था कि पहले और दूसरे चरण में उनका मुकाबला बसपा से है और बाकी के पांच चरणों में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन से.

ऐसा कहने के पीछे दरअसल मंशा यह थी कि भाजपा विरोधी वोट बंटे और जीत के लिए दो धड़ों के बीच टकराव तीनध्रुवीय बन जाए. इससे भाजपा को लाभ मिल सकता है. किसी एक पार्टी या गठबंधन के साथ टकराव भाजपा विरोधी मतों को लामबंद करेगा.

लेकिन इस बयान की जड़ में अब अपने को दूसरे से मज़बूत बताने की प्रतिस्पर्धा भी समाहित है. मायावती के लिए यह बहुत आवश्यक है कि वो लोगों को बताएं कि वो मज़बूत हैं और उनमें विश्वास करके लोग बसपा को वोट दें.

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मायावती ऐसा स्थापित कर पाएं, इसके लिए सबसे पहले ज़रूरी है कि अपने चुनावी समीकरण को वो बांधे रख पाएं. मायावती का दांव इसबार दलित-मुस्लिम समीकरण पर है और इसमें उन्हें सेंध लगती नज़र आ रही है.

मुस्लिम मतदाताओं के बीच अभी भी सपा को बसपा से अधिक प्राथमिकता मिल रही है. उसकी वजह है मायावती का भाजपा के साथ गठबंधनों का इतिहास. मुस्लिम मतदाता को लगता है कि सीटों की कमी पड़ी तो मायावती कहीं फिर से भाजपा का साथ लेकर सरकार न बना लें. ऐसा हुआ तो वो ठगे जाएंगे और इसीलिए वो इस स्थिति से बचने के लिए सपा को शायद पहली प्राथमिकता दे रहे हैं.

मायावती अगर केवल जीत का दंभ भरती रहीं तो अंदर ही अंदर मुस्लिम वोट खिसकता जाएगा और उनके लिए स्थिति कठिन हो जाएंगी. ऐसे में उन्हें तत्काल यह समझाने की ज़रूरत है कि वो किसी भी हाल में भाजपा के साथ नहीं जाएंगी.

भाजपा के साथ समझौता नहीं, भले ही विपक्ष में बैठना पड़े, ऐसा बयान दरअसल सूबे के मुस्लिम मतदाताओं के लिए मायावती का संदेश है ताकि वो शक और भय से उबरकर उनके लिए वोट कर सकें. ऐसा अगर हो पाता है तो एक नकारात्मक दिखने वाला बयान मायावती के लिए एक सकारात्मक तस्वीर तैयार कर सकता है.

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ज़ाहिर है कि मायावती के विरोधी इस बयान को उनकी हार की स्वीकारोक्ति के तौर पर दिखाने का काम करेंगे. लेकिन विपक्ष के इस हमले से मायावती कमज़ोर कम, प्रतिबद्ध ज़्यादा नज़र आएंगी.

सूबे में इसबार का विधानसभा चुनाव मायावती के लिए खासा निर्णायक है. उनकी पार्टी, उनका नेतृत्व और देश में दलित राजनीति के वर्चस्व की दृष्टि से मायावती के लिए यह चुनाव जीतना बहुत ज़रूरी है. मायावती इसे भली भांति समझती हैं. और शायद इसीलिए विपक्ष में बैठने की बात कहकर उन्हें एक बड़ा दांव खेला है.

हालांकि मुसलमान उनके इस बयान पर कितना ऐतबार करते हैं, इसका फैसला 11 मार्च को मतगणना के बाद ही हो सकेगा.

 

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