
सरकारी कामकाज में सूचना के महत्व को कभी नकारा नहीं जा सकता. 2005 का सूचना का अधिकार कानून साफ करता है ‘लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि आम नागरिक को पूरी जानकारी मिले और सूचनाओं के आदान प्रदान में पारदर्शिता हो, इससे भ्रष्टाचार को रोकने में मदद मिलती है और सरकार को भी जवाबदेह बनाया जा सकता है.’
लेकिन आज के परिपेक्ष में कहा जा सकता है कि इसे भुलाया जा रहा है. मामला यहां तक पहुंच गया है कि राफेल के कथित गायब दस्तावेजों की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल को आरटीआई की तीन धाराओं की याद दिलाई और खुली अदालत में उन्हें इन धाराओं को पढ़ने का आदेश दिया,
सेक्शन 22 – गोपनीयता कानून की अनिवार्यता नहीं
सेक्शन 24 – भ्रष्टाचार और मानवाधिकार के मामलों में सुरक्षा और गोपनीय एजेंसियों को भी जानकारी देना जरुरी
सेक्शन 8 (2) – सार्वजनिक हित जानकारी गुप्त रखने से ज्यादा जरुरी हों
सही उम्मीदवार और नियुक्ति में पारदर्शिता
देश भर के आरटीआई कार्यकर्ता लगातार ये मांग कर रहे हैं कि केंद्र और राज्य के सूचना आयुक्तों की नियुक्तियों में पारदर्शिता बरती जाए. 2018 में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई, जिसके जवाब में अदालत ने फरवरी 2019 में सरकार को नियुक्तियों के लिए 4 मुख्य बिंदुओं पर ध्यान देने के निर्देश दिये.
1. नियुक्ति की प्रक्रिया 1 से 2 महीने पहले शुरु हो.
2. नौकरशाहों के अलावा भी उम्मीदवारों को चुना जाए
3. पारदर्शी तरीके से चुनाव हो और सभी जानकारियां सार्वजनिक की जाएं
4. उम्मीदवारों का पात्रता भी सार्वजनिक की जाए
दरअसल आईटीआई एक्ट ये कहता है कि उम्मीदवारों के लिए कुछ विशेष अहर्ता नहीं है. सेक्शन 12(5) और 13(5) के मुताबिक सूचना आयुक्त सार्वजिनक जीवन का कोई भी मानिंद व्यक्ति हो सकता है जिसे कानून, विज्ञान, सामाजिक कार्य, पत्रकारिता या शासन का अनुभव हो.
केंद्र सरकार ने अब तक सूचना आयुक्त के लिए जरूरी आर्हता को सार्वजनिक नहीं किया है. एक आरटीआई के जवाब में केंद्र ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट की सलाह पर विचार किया जा रहा है.
2009 से 2012 तक सूचना आयुक्त रहे शैलेश गांधी कहते हैं ‘ उम्मीदवारों का चुनाव राजनीतिक विचारधारा या नौकरशाही के साथ अच्छे रिश्तों पर निर्भर करता है. पिछले कुछ साल में केंद्रीय सूचना आयोग में कोई भी नियुक्ति बिना अदालती दखल के संभव नहीं थी. 2018 में एक जनहित याचिका के बाद ही मुख्य सूचना आयुक्त और 4 सूचना आयुक्तों की नियुक्ति हुई थी.
तब तक अदालत ने कोई निर्देश नहीं दिये थे अब भी 4 पद खाली पड़े हैं. आरटीआई कार्यकर्ता मानते हैं कि नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता बरतनी चाहिए. अमेरिका की तरह बड़े पदों के लिए यहां भी उम्मीदवारों के सार्वजनिक इंटरव्यू लिए जाने चाहिए.
आवाज उठाने वाले की सुरक्षा
आरटीआई के चलते सैकड़ों लोगों ने तमाम घोटाले और भ्रष्टाचार की परते खोली हैं लेकिन इसी के चलते कार्यकर्ताओं को मुसीबतों का भी सामना करना पड़ा है. कॉमनवेल्थ हूमन राइट्स इनिशियेटिव के मुताबिक अबतक 83 आरटीआई कार्यकर्ता मारे गए हैं 165 पर हमला हुआ है, 180 को प्रताड़ित किया गया और 6 ने खुदकुशी कर ली.
2014 का व्हिसल ब्लोअर्स प्रोटेक्शन एक्ट अब तक पारित नहीं हो पाया है, ये कानून आवाज उठाने वालों की सुरक्षा के लिए बनना था.
2003 में एनएचआई के इंजीनियर सत्येंद्र दुबे की हत्या के बाद मचे बवाल के बाद ये तय हुआ था कि भ्रष्टाचार उजागर करने वालों की सुरक्षा के लिए कानून बनेगा. यूपीए ने जाते जाते ये कानून पास तो करवा लिया लेकिन नोटिफिकेशन के 5 साल बाद भी इसका क्रियान्वयन नहीं हो पाया है.
अगस्त 2018 में सरकार ने राज्यसभा को बताया कि कानून में कुछ बदलाव की जरुरत थी और वो बदलाव कर इसे 13 मई 2015 में लोकसभा से पास करवा लिया गया लेकिन ये राज्यसभा में अटका हुआ है.
लोकसभा भंग होने के बाद ये बिल बेकार हो गया हो लेकिन कई आरटीआई कार्यकर्ता मानते हैं कि इस बिल में किये गए कुछ बदलाव आवाज उठाने वाले के हित में नहीं है जैसे कुछ मामलों में कार्यकर्ताओं को सुरक्षा नहीं दी जाएगी और कुछ मामलों में जानकारी भी गुप्त रखी जाएगी.
ये सारे बदलाव सार्वजनिक विमर्श के बिना किए गए हैं इसलिए नई सरकार के लिए बेहतर होगा कि दोबारा प्रयास करने से पहले वो इस पर विचार करे क्योंकि ये सिर्फ सूचनाओं की जानकारी नहीं है, इसी जानकारी के आधार पर भ्रष्टाचार के कई मामले खुल जाते हैं जो शायद कभी सामने नहीं आ पाते. लोकतंत्र की जड़ों को और मजबूत करने के लिए सरकार को आरटीआई कानून को और सशक्त करने की जरुरत है.