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नोटबंदी से बेहाल चाय बागान के मजदूर पेट भरने को खा रहे हैं फूल-पत्तियां

दार्जिलिंग सहित पश्चिम बंगाल के चाय बागान मजदूरों की हालत पहले से ही खराब थी और नोटबंदी ने उनकी रही सही कमर भी तोड़ दी है. इन मजदूरों के लिए हालत यह हो गई है कि उनमें से कई को जिंदा रहने के लिए मजबूरी में फूल-पत्तियों से पेट भरना पड़ रहा है.

चाय बागान मजदूरों को कई हफ्तों से मेहनताना नहीं मिला है चाय बागान मजदूरों को कई हफ्तों से मेहनताना नहीं मिला है
सबा नाज़/मनोज्ञा लोइवाल
  • कोलकाता,
  • 16 दिसंबर 2016,
  • अपडेटेड 11:01 AM IST

दार्जिलिंग सहित पश्चिम बंगाल के चाय बागान मजदूरों की हालत पहले से ही खराब थी और नोटबंदी ने उनकी रही सही कमर भी तोड़ दी है. इन मजदूरों के लिए हालत यह हो गई है कि उनमें से कई को जिंदा रहने के लिए मजबूरी में फूल-पत्तियों से पेट भरना पड़ रहा है.

चाय बागान मजदूरों को नवंबर से न्यूनतम भत्ते भी नहीं मिल पा रहे हैं. पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में 68 चाय बागान हैं. इनमें से 38 बागानों ने 8 नवंबर को नोटबंदी शुरू होने के बाद से अपने मजदूरों को सिर्फ एक हफ्ते का भत्ता दिया है.

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चाय के फूल खाकर पेट भर रहे मजदूर
पश्चिम बंगाल के एक और चाय उत्पादक जिले अलीपुरद्वार में भी चाय बागान मजदूरों की हालत कुछ ऐसी ही है. घर में राशन की किल्लत से जूझ रहे इन मजदूरों के पास जरूरी सामान खरीदने तक के लिए पैसा नहीं. ऐसी ही एक मजदूर कल्याणी गोपे का कहना है- 'अब हमारे बागान अच्छा नहीं कर रहे हैं, हम सब्जी खरीदने में भी सक्षम नहीं, ना ही कुछ खाने के लिए हैं. बच्चे चाय पत्ती के कुछ फूल ले आते हैं, हम उन्हीं को पका कर खा रहे हैं.'

नोटबंदी के बाद इन तकलीफों से जूझ रहीं कल्याणी अकेली नहीं. नकदी की किल्लत की वजह से मजदूरों और उनके परिवारों को खाने लायक जो सामान भी मिल रहा है, उसी से गुजारा करना पड़ रहा है. पौष्टिक तत्वों के अभाव में अब इन्हें स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का भी सामना करना पड़ा रहा है.

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चाय बागान में काम करने वाले मार्था नाग कहते हैं, 'फूलों को खाकर आधा पेट ही भरता है, लेकिन हमारे सामने कोई दूसरा विकल्प भी नहीं. जरूरी पौष्टिक तत्वों के अभाव में कमजोरी हो रही है और काम करना भी मुश्किल हो रहा है.'

चाय बागान में हालात बिगड़ने से पलायन कर रहे मजदूर
चाय बागानों की ओर से भुगतान में देरी होने की वजह से मजूदरों को दूसरे रोजगार ढूंढ़ने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. चाय बागान मजदूर और दो बच्चों की मां संचारिया ओराओना कहती हैं- 'कई लोगों ने चाय बागान छोड़ काम की तलाश में दूसरी जगह जा रहे हैं. मेरे अपने परिवार के लोग चले गए हैं. पैसों की अचानक जरूरत पड़ने की वजह से मेरे छोटे बेटे को भी यहां से जाना पड़ा. चाय बागान में पैसे कब मिलेंगे, इसका कोई ठिकाना नहीं.'

उत्तरी बंगाल में चाय बागानों के करीब 3.5 लाख मजदूरों को नकदी में मेहनताना मिलता है. इनकी दिहाड़ी औसतन 132.50 रुपये होती है. चाय बागान अमूमन एक हफ्ते या पखवाड़े में मजदूरों को वेतन देते हैं. नोटबंदी के बाद नकदी की किल्लत की वजह से चाय बागानों को बीच में ही अपना काम बंद करना पड़ा. मजदूरों के अभाव में कुछ चाय बागान मालिक भी काम बंद करके दसूरी जगह चले गए हैं.

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नगदी की किल्लत से कई बागान में काम बंद
सिलीगुड़ी में कैश के अभाव में तिरहाना चाय बागान के मालिक और मैनेजर भाग गए. बागान का प्रबंधन मजदूरों को उनका भुगतान नहीं दे पा रहा था. इस बागान को इलाके के सबसे बड़े बागानों में से एक माना जाता है और इसके बंद होने से करीब 2000 मजदूरों का रोजगार चला गया है. बागडोगरा के पास स्थित ये चाय बागान हर साल 10.5 लाख किलो चाय का उत्पादन करता था, लेकिन पिछले 15 दिन से यहां चाय का उत्पादन भी बंद पड़ा था.

चाय बागान मजदूर बीर बहादुर थापा का कहना है- '8 से 16 घंटे दिन-रात काम करने के बाद भी हमें अपनी मजदूरी नहीं मिल रही. कोई जवाब देने वाला नहीं कि हमें अपना मेहनताना कब मिलेगा. हमारे सबके बच्चे हैं, जिनकी पढ़ाई के लिए हमें पैसे चाहिए. हमें खाने-पीने के लिए भी पैसों का इंतजाम करना भारी पड़ रहा है. दिन-रात काम करने के बाद भी चाय बागान मालिक हमारी समस्याओं पर ध्यान नहीं दे रहे. हमारे पास दवा और खाने का सामान खरीदने के लिए भी पैसे नहीं हैं.'

मजदूरों की तकलीफों के बीच राजनीति भी जोरों पर
जहां चाय बागान मजदूरों की हालत बहुत चिंताजनक है, वहीं राजनीति अपना काम करने से बाज नहीं आ रही. तृणमूल कांग्रेस के नेता पार्टी सुप्रीमो ममता बनर्जी की तर्ज पर केंद्र सरकार पर असम को तरजीह देते हुए पश्चिम बंगाल के चाय उत्पादक क्षेत्रों से भेदभाव का आरोप लगा रहे हैं. एक स्थानीय INTTUC नेता ने कहा, 'तिरहाना चाय बागान पूरी तरह प्रबंधन की जिम्मेदारी है, ये केंद्र सरकार या TMC की जिम्मेदारी नहीं है. लेकिन कुछ हद तक मोदी सरकार को इस हालत के लिए दोष दिया जा सकता है. क्योंकि ये स्थिति केंद्र सरकार के नोटबंदी के फैसले के बाद उत्पन्न हुई है. उन्हें (मजदूरों) को पिछले 5 हफ्ते से भुगतान नहीं मिला. यही वजह है कि सारे के सारे चाय बागान मजदूर आंदोलन पर उतारू हैं. चाय बागान के मालिक और मैनेजर बिना कोई भनक दिए भागे हुए हैं. सरकार का कोई कसूर नहीं है. हमने पार्टी नेताओं को इस बारे में बता दिया है, उन्होंने चाय बागान मजदूरों को न्याय दिलाने का वादा किया है. साथ ही भरोसा दिलाया है कि चाय बागान जल्दी फिर से काम करने लगेंगे.'

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दार्जिलिंग के बीजेपी सांसद का अच्छे दिन का वादा अधूरा
बता दें कि दार्जिलिंग लोकसभा सीट से बीजेपी के एसएस अहलूवालिया सांसद हैं, जिन्होंने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के समर्थन से 2014 में लोकसभा चुनाव जीता था. तब अहलूवालिया ने गोरखालैंड और चाय बागान मजदूरों के लिए अच्छे दिन का वादा किया था, लेकिन ढाई साल बीतने के बाद भी चाय बागान मजदूरों की हालत में कोई परिवर्तन नहीं आया. वहीं, तृणमूल कांग्रेस की कोशिश गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेताओं में फूट डाल कर अपने हित साधने की रही है. चाय बागान मजदूरों की समस्याएं सुलझाने में कोई भी पार्टी गंभीर नहीं है और दिहाड़ी मजदूरों पर इसकी सबसे ज्यादा मार पड़ रही है.

असम में चाय बागानों की भी हालात खराब
टी-बोर्ड की ओर से कराए गए बेसलाइन सर्वे के मुताबिक, असम में 750 चाय बागान हैं, जहां 65,000 से ज्यादा मजदूर काम करते हैं. वहीं पश्चिम बंगाल में 300 चाय बागानों में 30,000 मजदूर काम कर रहे हैं. असम के चाय बागानों के मजदूरों की भी हालत ज्यादा अच्छी नहीं हैं. नोटबंदी के साथ ही यहां असम सरकार का चाय बागानों को एक निर्देश भी भारी पड़ रहा है. राज्य सरकार ने मजदूरों का भुगतान सीधे उनके बैंक खातों में भेजने के लिए निर्देश जारी कर रखा है. उधर बैंक कैश की किल्लत का हवाला देकर मजदूरों को भुगतान करने में असमर्थता जता रहे हैं.

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टी-बोर्ड ऑफ इंडिया के सूत्रों के मुताबिक, औसतन एक चाय बागान को हर हफ्ते मजदूरों को भुगतान के लिए 10 लाख रुपये की हर हफ्ते जरूरत होती है. असम के तिनसुकिया जिले में अधिकतर चाय बागान मजदूर निरक्षर हैं. वे एटीएम का इस्तेमाल करने को मुश्किल मानते हैं. इसलिए वे कैश में ही पेमेंट लेना पसंद करते हैं.

असम में अभी कोई चाय बागान बंद नहीं हुआ है, लेकिन पश्चिम बंगाल में 6 चाय बागान बंद हो चुके हैं. इनके बंद होने से 5,800 स्थायी और अस्थायी श्रमिक रोजगार खो चुके हैं. घड़ी की टिक-टिक चल रही है. केतली उबल रही है. लेकिन ये चाय है जिसकी महक और स्वाद गायब हो रहा है.

(सिलीगुड़ी में अंगुष्मान चक्रवर्ती, अलीपुरद्वार में प्रसन्नजीत चक्रवर्ती, तिनसुकिया में मनोज कुमार दत्ता, दार्जिलिंग में कयेस अंसारी के साथ मनोज्ञा लोइवाल)

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