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PM की दावेदारी के बहाने विपक्ष का नेता बनने की कोशिश में राहुल

इस वक्त तमाम विपक्षी दलों की कोशिश यही है कि वे अपनी ज्यादा से ज्यादा अहमियत दिखाएं जिससे चुनाव में अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने का मौका मिले और गठबंधन की जीत की स्थिति में सत्ता में अधिक से अधिक भागीदारी मिले.

राहुल गांधी राहुल गांधी
कुमार विक्रांत/खुशदीप सहगल/वरुण शैलेश
  • नई दिल्ली,
  • 08 मई 2018,
  • अपडेटेड 7:08 PM IST

राजनीति में परसेप्शन बहुत मायने रखता है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कर्नाटक चुनाव के दौरान साफ किया कि उनकी पार्टी 2019 लोकसभा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरती है तो वे प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार हैं. दरअसल, उनसे एक चर्चा के दौरान पीएम बनने को लेकर सवाल पूछा गया था. इस पर राहुल ने कहा, ‘अगर कांग्रेस 2019 लोकसभा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनी तो क्यों नहीं बनूंगा प्रधानमंत्री?’

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‘नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी’की सीधी लड़ाई?

राहुल के इस बयान के सियासी गलियारों में तमाम मतलब निकाले जा रहे हैं. अब जबकि लोकसभा चुनाव को एक साल का वक्त बचा है, ऐसे में राहुल का ये बयान आनन-फानन में नहीं बल्कि सोची समझी रणनीति के तहत सामने आया लगता है. पिछले साल सितम्बर में राहुल ने अमेरिका के दौरे के वक्त भी ऐसा ही बयान दिया था. क्या ये बयान 2019 लोकसभा चुनाव को ‘नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी’की सीधी लड़ाई बनाने की कोशिश है? दरअसल, विपक्षी एकजुटता की बात तो होती है, लेकिन बीजेपी के खिलाफ जो विपक्षी गठबंधन बनेगा, उसका नेता कौन होगा, इस सवाल को लेकर कोई भी विपक्षी दल पत्ते खोलने को तैयार नहीं. अभी तक ये भी साफ नहीं कि विपक्षी दलों को गठबंधन के नेता के तौर पर राहुल गांधी कबूल होंगे या नहीं.

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विपक्षी दलों को संकेत दे रहे राहुल?

इस वक्त तमाम विपक्षी दलों की कोशिश यही है कि वे अपनी ज्यादा से ज्यादा अहमियत दिखाएं. जिससे पहले चुनाव में अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने का मौका मिले और गठबंधन की जीत की स्थिति में सत्ता में अधिक से अधिक भागीदारी मिले. वैसे राहुल के करीबी मानते हैं कि अगर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी होगी तो गठबंधन की सूरत में पीएम की कुर्सी कांग्रेस के पास ही रहेगी. तो क्या राहुल का ये बयान कांग्रेस की तरफ से खुद ही पहल कर विपक्षी दलों को संकेत देने की है.  

राहुल के रणनीतिकारों की योजना

दरअसल, राहुल के रणनीतिकारों की नजर सिर्फ उनकी कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर ताजपोशी तक ही सीमित नहीं बल्कि पीएम पद की उम्मीदवारी के साथ ही राहुल को सोनिया के बजाय विपक्ष के नेता के तौर पर स्थापित करने की है. राहुल का खुद को प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार होने की बात अचानक नहीं कही गई है. नीतीश कुमार का गठबंधन कांग्रेस और आरजेडी के साथ टूटने के बाद ही राहुल और उनकी टीम ने रूपरेखा तैयार करनी शुरू कर दी थी. इनकी दलील है कि कांग्रेस विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है और राहुल के पार्टी के नेता होने के साथ ही उनको विपक्ष के नेता के तौर पर बाकी विपक्षी दलों को कबूल करना होगा.

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 2019 में कांग्रेस के सबसे बड़े दल के तौर पर उभरने की स्थिति में राहुल के पीएम बनने संबंधी बयान का जिक्र करने पर पार्टी के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल मुस्कुराहट के साथ जवाब देते हैं- क्यों नहीं?

नीतीश के रहते असमंजस में थे राहुल

यह बात किसी से छुपी नहीं है कि नीतीश के साथ गठबंधन में रहते राहुल लगातार असमंजस में थे. करीबियों की मानें तो राहुल, विपक्षी गठबंधन की ओर से नीतीश के पीएम के उम्मीदवार बनने के नाम पर खुद को पीछे रखने तक को तैयार थे. लेकिन अब हालात बदल चुके हैं. नीतीश जहां बीजेपी के साथ गठबंधन कर चुके हैं वहीं, कई और क्षेत्रीय दलों में भी नेतृत्व अगली पीढ़ियों के हाथ में आने की वजह से हालात पहले से बदल चुके हैं. इन सब ने राहुल और उनकी टीम को नई रणनीति के साथ सामने आने का आधार तैयार किया.

विपक्ष की मुख्य आवाज बनाने की कोशिश के पीछे की कहानी

आखिर टीम राहुल मानती है कि सियासी हालात देशभर में बदले हैं. अब नीतीश मोदी के साथ हैं तो तमाम राज्यों में भी क्षेत्रीय दलों की कमान अब नई पीढ़ी पर है, जिससे राहुल लगातार संपर्क बना रहे हैं. नई पीढ़ी के नुमाइंदों को भी राहुल को नेता मानने में कोई खास दिक्कत पेश आती नहीं दिखती. राहुल के करीबी राज्यवार इसकी चर्चा भी करते हैं.

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राज्यवार कांग्रेस, राहुल और क्षेत्रीय नेताओं की केमेस्ट्री

तमिलनाडु

दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में डीएमके नेता करुणानिधि की उम्र और सेहत की मजबूरी की वजह से पार्टी की बागडोर अब उनके बेटे एमके स्टालिन के हाथों में आ चुकी है. सूत्रों की मानें तो स्टालिन और राहुल लगातार आपस में कई मौकों पर मिल भी चुके हैं और भविष्य की राजनीति की चर्चा भी कर चुके हैं. बंटवारा सीधा है- तमिलनाडु में कांग्रेस छोटा भाई तो दिल्ली में डीएमके छोटा भाई.

बिहार

नीतीश के साथ छोड़ने के बाद अब कांग्रेस और लालू यादव की पार्टी आरजेडी के बीच गठबंधन स्वाभाविक है और दोनों की मजबूरी है. राहुल के ऑर्डिनेंस फाड़ने वाले कदम से लालू चुनावी लड़ाई से बाहर हो गए. अब लालू भी अपने बेटों के लिए राजनीति कर रहे हैं. वहीं राहुल को भी आरजेडी की नई पीढ़ी से परहेज नहीं है. लालू चुनाव लड़ नहीं सकते, ऐसे में मोदी विरोध के नाम पर केंद्र में आरजेडी को राहुल के पीछे खड़े होने से परहेज नहीं होगा. वहीं बिहार में कांग्रेस जैसे आरजेडी के पीछे अभी चल रही है वैसे ही आगे भी करती रहेगी.

यह महज संयोग नहीं था कि अमेरिका में राहुल के संवाद के ठीक 1 दिन पहले आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव ने ट्वीट किया- ‘देश की सरकार शांतिपूर्ण तरीके से सिर्फ कांग्रेस ही चला सकती है और लोग ये अहसास करने लगे हैं.’अभी कुछ दिन पहले राहुल गांधी तमाम सियासी पंडितों को धता बताते हुए एम्स में लालू से मिलने पहुंच गए थे. साथ ही नीतीश से अलग राह पकड़ चुके नेता शरद यादव ने राहुल से मुलाकात करने के बाद ही मोदी और नीतीश के विरोध का बीड़ा उठाया था. इसलिए शरद यादव को भी राहुल के साथ आने में दिक्कत नहीं है.

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झारखंड

कमोबेश यहां भी हालात कुछ वैसे ही हैं. झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता शिबू सोरेन अपनी पार्टी की कमान अपने बेटे हेमंत सोरेन को सौंप चुके हैं. हेमंत को भी केंद्र की राजनीति में राहुल की सरपरस्ती से कोई ऐतराज नहीं. कुछ ऐसा ही झारखंड विकास मोर्चा के मुखिया बाबूलाल मरांडी के भी साथ है, अब दोनों विपक्ष के गठबंधन का हिस्सा बन ही गए तो राहुल के पीछे खड़े होने में उनको कोई ऐतराज नहीं.

आंध्र प्रदेश

बंटवारे के बाद इस दक्षिणी राज्य में कांग्रेस हाशिये पर पड़ी है. लगातार कांग्रेस के रणनीतिकार कोशिश कर रहे हैं कि कभी कांग्रेस का ही हिस्सा रहे जगनमोहन रेड्डी कांग्रेस में लौट आएं या कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लें. कांग्रेस को उम्मीद है कि अगर बात बनी तो राज्य में जगन और दिल्ली में राहुल की बात पर दोनों एक साथ हो जाएंगे. लेकिन जगन को साथ लाना अभी तक कांग्रेस के लिए टेढ़ी खीर ही रहा है.

पश्चिम बंगाल

सीपीएम नेता सीताराम येचुरी और राहुल गांधी हाल के दिनों में एक दूसरे के काफी करीब आए हैं. मोदी विरोध की सूरत में येचुरी को राहुल के साथ खड़ा होने में कोई परेशानी नहीं है. वहीं, कांग्रेसी रणनीतिकार कहते हैं नोटबंदी के वक्त भी राहुल और कांग्रेस की बुलाई प्रेस कॉन्फ्रेंस में ममता बनर्जी ने आना स्वीकार किया था. इसीलिए भविष्य में भी इसमें दिक्कत नहीं होगी. हालांकि, कांग्रेस के सामने राज्य में बड़ी दिक्कत है कि एक दूसरे के विरोधी सीपीएम और तृणमूल कांग्रेस को एक साथ मैनेज करना.

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उत्तर प्रदेश

यहां समाजवादी पार्टी अब मुलायम की नहीं अखिलेश की हो चुकी है. साथ ही अखिलेश राहुल की दोस्ती और साझा सियासत किसी से छिपी नहीं है. कांग्रेसी रणनीतिकारों का कहना है कि, वर्तमान राजनीतिक हालात में अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिए सीटों का समझौता और भविष्य के लिए सही प्रस्ताव मिलने पर गाहे-बगाहे मायावती भी इस पाले में आ ही जाएंगी. वैसे समाजवादी पार्टी और बीएसपी का गठजोड़ तो अब ज़मीन पर दिखने भी लगा है. बस उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को समाजवादी पार्टी और बीएसपी के छोटे भाई की भूमिका से ही संतोष करना होगा.

महाराष्ट्र

महाराष्ट्र में एनसीपी नेता शरद पवार की अहमियत को कांग्रेस अच्छी तरह समझती है. पिछले दिनों में एनसीपी के एनडीए में शामिल होने के कयासों ने कांग्रेस को बेचैन जरूर किया था, पर अब हालात बदल गए हैं. रणनीतिकार मानते हैं कि अगर मोदी विरोध और सेक्युलर ताकतों की मजबूती के नाम पर एनसीपी ने विपक्ष का साथ देना पसंद किया तो शरद पवार की सेहत और उम्र के चलते राष्ट्रीय राजनीति में उनकी बेटी सुप्रिया सुले और राज्य में उनके भतीजे अजीत पवार उत्तराधिकारी होंगे. ऐसे में सुप्रिया को राहुल की सरपरस्ती से दिक्कत नहीं होगी. आवश्यकता पड़ने पर शरद पवार कभी भी सोनिया गांधी से राजनीतिक संभावनाओं पर चर्चा कर सकते हैं.

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कुल मिलाकर अब टीम राहुल तय कर चुकी है कि मोदी से टकराना होगा तो कांग्रेस की कमान संभालने के बाद विपक्षी दलों को साथ लाकर नेतृत्व करना होगा और 2019 में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनना होगा. ऐसे में विपक्ष का नेता बनने के लिए राहुल ने पीएम का उम्मीदवार बनकर अपना दावा भी ठोक दिया. इन दोनों के बीच का सफर टीम राहुल आहिस्ता-आहिस्ता पूरा करना चाहती है.

रणनीति को ज़मीन पर उतारने की चुनौती

बात सीधी है कि राहुल कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बन गए, इसमें कोई चुनौती थी ही नहीं. कांग्रेस पार्टी की ओर से 2019 के लिए प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित हो जाएंगे, इसमें भी चुनौती नहीं है. दरअसल असली चुनौती तो विपक्ष का नेता बनने की है, जिसको सभी विपक्षी दल मान लें. क्योंकि टीम राहुल भी जानती है कि आज के दौर में मोदी और बीजेपी से टकराने के लिए कांग्रेस अकेले काफी नहीं है, विपक्ष को एकजुट होना होगा. इसीलिए नीतीश के अलग होने के पहले तक असमंजस में दिख रहे राहुल ने खुलकर भविष्य सियासत का ऐलान कर दिया. राहुल और उनकी टीम को याद रखना होगा कि रणनीति बनाना आसान है, उसको ज़मीन पर उतारना मुश्किल. साथ ही विपक्ष के कुनबे का साथ जुटाना राहुल के लिए आसान नहीं है, लेकिन असली चुनौती तो जनता का साथ पाने की होगी.

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